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चातुर्मास विशेष : जप-तप व साधना के चार मास

chaturmas 2022 : भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही अहिंसा, संयम, तप और जीव मात्र के प्रति गहरी करुणा, भावना पर आधारित रही है। संन्यासियों को आदर्श मानकर जहां उनके लिए कठोर नियम बनाए गए हैं, वहीं गृहस्थों

चातुर्मास विशेष : जप-तप व साधना के चार मास
Yogesh Joshiश्री नरेश मुनि,नई दिल्लीTue, 12 Jul 2022 08:46 AM

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भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही अहिंसा, संयम, तप और जीव मात्र के प्रति गहरी करुणा, भावना पर आधारित रही है। संन्यासियों को आदर्श मानकर जहां उनके लिए कठोर नियम बनाए गए हैं, वहीं गृहस्थों को अनेक नियमों में छूट दी गई। इसी कड़ी में ऋषि-मुनियों के लिए वर्षा ऋतु के चार मास, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन एवं कार्तिक में स्थान-स्थान पर भ्रमण ना करते हुए एक स्थान पर ही स्थिर रहने का विधान किया गया। भारत में उत्पन्न हुए हिन्दू, जैन तथा बौद्ध धर्म में आज भी ये परम्परा अविच्छिन्न रूप में प्रचलित है।

‘अत्रि स्मृति’ में लिखा है कि वर्षाकाल में भूमि पर सर्वत्र ही छोटे-छोटे कीट पतंगे, मच्छर, मक्खियों की भरमार हो जाती है, अत: संन्यासियों को एक ही जगह रुकना चाहिए। मत्स्य पुराण के अनुसार भी साधुजनों के लिए विचरण के मास तो आठ ही हैं। वर्षा ऋतु के चार मास में तो जीव हिंसा के निवारणार्थ एक स्थान पर प्रवास ही शास्त्र सम्मत है। बौद्ध धर्म में भी कमोबेश इसी व्यवस्था का विधान है।

जैन धर्म भारतीय श्रवण परम्परा का प्रमुख अंग है। इसकी आधारशिला अहिंसा, दया, क्षमा व अनुकंपा गुणों के ऊपर टिकी हुई है। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका- इन चार धर्म तीर्थों की प्रत्येक चर्या अहिंसा की परिधि के इर्द-गिर्द ही घूमती है। प्रत्येक युग में हर तीर्थंकर प्रभु का प्रवचन, ‘सव्व जग जीव रक्खण दयट्ठयाए’ यानी संसार के सब सूक्ष्म स्थूल जीवों की रक्षा एवं दया के लिए ही होता है। वर्षा काल के प्रसंग में आचारांग सूत्र में विधान है कि वर्षा होने पर पृथ्वी पर असंख्य अनंत जीव उत्पन्न हो जाते हैं। जगह-जगह सजीव बीज पैदा होते हैं। लोगों का आवागमन ना होने से रास्तों की पहचान भूल जाती है, ऐसा जानकर साधु-साध्वी इस समय विहार यात्रा न करें, यतनपूर्वक वर्षावास करें।

उपरोक्त परिपेक्ष्य में जैन धर्म के सभी साधु-साध्वी आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन, सायंकालीन प्रतिक्रमण के उपरांत, चार महीने के लिए एक जगह पर स्थित हो जाते हैं। सारे काल में मौन, जप, तप के द्वारा विशेष आत्मिक शुद्धि करते हैं। जैन इतिहास में पूरे चार मास तक निराहार रहने वाले संतों का उल्लेख मिलता है।

आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन विनीत साधक द्वारा अपने इष्ट गुरु के प्रति अपने तन, मन, धन व सर्वस्व का भी समर्पण किया जाता है। गुरु हमें संसार की मोह-ममता से परे हटाकर परमात्मा से मिलाता है। इसलिए कबीर दास जी ने गोविंद से पहले गुरु को प्रथम स्थान दिया।

भारतीय इतिहास में गुरुओं की विशाल परम्परा रही है। इसी कड़ी में एक प्रसिद्ध जैन संत संघ शास्ता शासन प्रभावक श्री सुदर्शन लाल जी महाराज हुए, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से लाखों लोगों का जीवन निर्माण किया। उनका जन्म चार अप्रैल, 1923 को रोहतक में हुआ था। 25 अप्रैल 1999 को उनका देवलोक गमन हुआ। इस वर्ष 4 अप्रैल से आगामी 4 अप्रैल 2023 तक गुरुदेव का जन्म शताब्दी वर्ष भारत वर्ष में मनाया जा रहा है।

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