ऐसे टूटा कुबेर का घमंड
देवराज इंद्र के कोषाध्यक्ष कुबेर अपने को देवकोष का मालिक समझ उसके धन का निजी स्वार्थ में उपयोग करने लगे। एक दिन वे भगवान शिव के पास पहुंचे और कहा, ‘महादेव, मैं एक भव्य भोज का आयोजन कर रहा हूं।...
देवराज इंद्र के कोषाध्यक्ष कुबेर अपने को देवकोष का मालिक समझ उसके धन का निजी स्वार्थ में उपयोग करने लगे। एक दिन वे भगवान शिव के पास पहुंचे और कहा, ‘महादेव, मैं एक भव्य भोज का आयोजन कर रहा हूं। मेरी इच्छा है कि उसमें समस्त देवगण, यक्ष, गंधर्व आदि भाग लें और सभी वहां से तृप्त होकर लौटें। कृपया आप भी सपरिवार पधारें।’ शंकर जी समझ गए कि कुबेर अहंकारग्रस्त हो चुके हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं तो नहीं आ पाऊंगा, न पार्वती ही आ पाएंगी, किंतु गणेशजी को अवश्य
भेज दूंगा।’
गणेशजी भोज में जा पहुंचे। उन्होंने जाते ही कुबेर से कहा, ‘मुझे भूख लगी है। सबसे पहले मुझे भोजन कराएं।’ गणेशजी के क्रोध से कुबेर पहले ही परिचित थे, इसलिए उन्होंने उनकी थाली तुरंत सबसे पहले परोस दी। गणेशजी ने भोजन करना शुरू किया तो खाते ही चले गए। देखते ही देखते तमाम व्यंजन समाप्त होने लगे। कुबेर यह देख कर घबरा गए। अब अन्य अतिथि क्या भोजन करेंगे, यह बात सोचते हुए उन्होंने भोजन परोसना रुकवा दिया।
गणेशजी क्रोधित होकर बोले, ‘आप तो दावा कर रहे थे कि कोई भी अतृप्त नहीं लौटेगा, लेकिन आप तो मुझ अकेले का ही पेट नहीं भर पाए।’ कुबेर को काटो तो खून नहीं। हैरान-परेशान कैलाश पर्वत की तरफ भागे। कैलाश पहुंचते ही शिवजी के समक्ष हाथ जोड़ कर बैठ गए और फिर शिवजी के चरणों में गिर कर भोज यज्ञ की रक्षा करने की प्रार्थना करने लगे। तभी गणेशजी वहां पहुंचे और अपने पिता से कहने लगे, ‘मुझे किस दरिद्र के भोज में भेज दिया?’ गणेशजी के मुख से अपने लिए दरिद्र शब्द सुन कर कुबेर का सारा अहंकार जाता रहा और उन्हें यह समझते देर न लगी कि यह सब शंकर जी ने उनके अहंकार को तोड़ने के लिए किया था। शंकरजी ने कहा, ‘कुबेर, अहंकार के कारण तुम्हें लज्जित होना पड़ा है। जीवन में कभी अहंकार मत करना। अहंकार की राह सदैव पतन की ओर ले जाती है।’ यह सुनते ही कुबेर, शंकरजी के चरणों में गिर कर क्षमा मांगने लगे।