
आज शरद पूर्णिमा, शुभ मुहूर्त में करें पूजा और पढ़ें ये व्रत कथा
संक्षेप: हिंदू धर्म में पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है, लेकिन आश्विन मास की पूर्णिमा को “शरद पूर्णिमा” कहा जाता है, जो वर्ष की सबसे शुभ और पवित्र पूर्णिमा मानी जाती है। इस दिन चंद्रमा अपनी सोलहों कलाओं से पूर्ण होकर आकाश में उदित होता है और उसकी चांदनी को अमृतमयी बताया गया है।
हिंदू धर्म में पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है, लेकिन आश्विन मास की पूर्णिमा को “शरद पूर्णिमा” कहा जाता है, जो वर्ष की सबसे शुभ और पवित्र पूर्णिमा मानी जाती है। इस दिन चंद्रमा अपनी सोलहों कलाओं से पूर्ण होकर आकाश में उदित होता है और उसकी चांदनी को अमृतमयी बताया गया है। धार्मिक मान्यता है कि इस रात की चंद्रकिरणों में दिव्य औषधीय गुण और अमृत तत्व समाहित होते हैं, जिनका स्पर्श तन और मन दोनों के लिए अत्यंत लाभकारी माना गया है। इसी कारण इस तिथि को “कोजागरी पूर्णिमा” और “रास पूर्णिमा” भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा पर मां लक्ष्मी, भगवान विष्णु और चंद्र देव की आराधना का विशेष महत्व है। इस दिन व्रत-पूजन और जागरण करने से जीवन में सुख-समृद्धि, धन-धान्य और सौभाग्य प्राप्त होता है।इस साल 6 अक्टूबर यानी आज शरद पूर्णिमा है। प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में इस दिन की पौराणिक कथाएं वर्णित हैं, जिनसे इसका महत्व और बढ़ जाता है। आइए, जानते हैं शरद पूर्णिमा शुभ मुहूर्त और व्रत कथा विस्तार से—

शुभ मुहूर्त-
अभिजित मुहूर्त 12:03 पी एम से 12:50 पी एम
विजय मुहूर्त 02:25 पी एम से 03:13 पी एम
गोधूलि मुहूर्त 06:23 पी एम से 06:47 पी एम
अमृत काल 11:40 पी एम से 01:07 ए एम, अक्टूबर 07
निशिता मुहूर्त 12:02 ए एम, अक्टूबर 07 से 12:51 ए एम, अक्टूबर 07
साहुकार की पुत्रियों की कथा- शरद पूर्णिमा व्रत कथा
हिंदू धर्म में व्रत-उपवास और त्योहारों का विशेष महत्व है। हर पर्व केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसमें जीवन जीने की गहन शिक्षा भी छुपी रहती है। शरद पूर्णिमा का व्रत भी ऐसा ही एक पावन पर्व है। आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। मान्यता है कि इस रात चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं के साथ उदित होता है और उसकी किरणों से अमृत बरसता है। यही कारण है कि इस पूर्णिमा को “कोजागरी पूर्णिमा” और “रास पूर्णिमा” भी कहा जाता है।
इस दिन मां लक्ष्मी और चंद्र देव की आराधना का विशेष महत्व होता है। जो लोग इस दिन जागरण करते हैं और विधिपूर्वक व्रत करते हैं, उनके जीवन में सुख-समृद्धि, संतान सुख और लक्ष्मी का वास होता है। इसी दिन से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा है जिसे “साहुकार की पुत्रियों की कथा” के नाम से जाना जाता है। इस कथा के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि व्रत और पूजन को कभी अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए।
कथा का प्रारंभ
बहुत समय पहले की बात है। एक नगर में एक अत्यंत संपन्न साहुकार रहता था। उसके पास धन-दौलत, सम्मान और वैभव की कोई कमी नहीं थी। साहुकार की दो पुत्रियां थीं। दोनों का स्वभाव अलग-अलग था।
बड़ी पुत्री धार्मिक प्रवृत्ति की, गंभीर और आस्थावान थी। उसे व्रत-पूजन और नियमों का पालन करना बहुत प्रिय था। वह हर पूर्णिमा का व्रत करती और विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करती।
दूसरी ओर छोटी पुत्री थोड़ी लापरवाह थी। वह भी पूर्णिमा का व्रत करती थी, लेकिन केवल दिखावे के लिए। कभी पूजा अधूरी छोड़ देती, कभी नियम का पालन नहीं करती। श्रद्धा का भाव भी उसमें उतना गहरा नहीं था।
बड़ी और छोटी बहन के जीवन का अंतर
समय के साथ दोनों बहनों के जीवन में स्पष्ट अंतर दिखने लगा। बड़ी पुत्री के घर में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती थी। उसकी संतानें स्वस्थ और दीर्घायु थीं। घर में लक्ष्मी का वास था और सबकुछ मंगलमय प्रतीत होता था।
इसके विपरीत, छोटी पुत्री के जीवन में लगातार कष्ट बने रहे। जब भी वह संतान जन्म देती, वह बच्चा कुछ ही समय में मृत्यु को प्राप्त हो जाता। बार-बार संतान हानि से उसका जीवन दुख और निराशा से भर गया था।
पंडितों से प्रश्न
एक दिन छोटी पुत्री अत्यंत दुखी होकर नगर के पंडितों के पास गई और बोली—
“गुरुदेव! मैं बहुत दुखी हूं। मेरे घर बार-बार संतान जन्म लेती है, परंतु जीवित नहीं रह पाती। कृपया बताइए, ऐसा क्यों होता है? क्या मेरे भाग्य में संतान सुख नहीं लिखा?”
पंडितों ने ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनी और कुछ देर मौन रहने के बाद बोले-
“बेटी! इसका कारण तुम्हारी लापरवाही है। तुम पूर्णिमा का व्रत तो करती हो, परंतु उसे पूरे नियम और श्रद्धा के साथ नहीं निभाती। व्रत अधूरा करने से उसका फल नहीं मिलता। यही कारण है कि तुम्हारी संतान जीवित नहीं रहती। यदि तुम विधिपूर्वक व्रत करोगी, तो संतान सुख अवश्य प्राप्त होगा।”
व्रत का संकल्प
पंडितों की बातें सुनकर छोटी पुत्री ने मन ही मन निश्चय किया कि अगली पूर्णिमा पर वह व्रत पूरी श्रद्धा और नियम से करेगी। समय बीता और अगली पूर्णिमा आई। उस दिन उसने प्रातःकाल स्नान किया, शुद्ध वस्त्र धारण किए, संकल्प लिया और पूरे दिन उपवास किया।
शाम को उसने विधिवत पूजन किया, कथा सुनी और रात्रि में जागरण भी किया। इस बार उसने कोई कमी नहीं छोड़ी। उसके मन में गहरी श्रद्धा और आस्था थी कि अब उसका व्रत सफल होगा।
संतान का जन्म और दुखद घटना
कुछ समय बाद छोटी पुत्री के घर पुत्र का जन्म हुआ। परिवार में खुशी का माहौल छा गया। सबने सोचा कि अब उनके घर का दुख समाप्त हो जाएगा। लेकिन भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। जन्म के तुरंत बाद ही वह शिशु मृत हो गया।
छोटी पुत्री का मन टूट गया। उसने शिशु को एक छोटे पीढ़े पर लिटाया और ऊपर से कपड़ा ढक दिया। फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाया और उस पीढ़े पर बैठने के लिए कहा।
चमत्कार
बड़ी बहन जैसे ही पीढ़े पर बैठने लगी, उसका घाघरा मृत शिशु से छू गया। तभी आश्चर्यजनक रूप से वह बच्चा जीवित होकर जोर-जोर से रोने लगा। यह देखकर बड़ी बहन घबरा गई और बोली-
“हे बहन! तू मुझे कलंकित करना चाहती थी। यदि मैं इस पीढ़े पर बैठ जाती, तो लोग कहते कि मेरे कारण यह बच्चा मर गया।”
छोटी बहन ने शांत स्वर में उत्तर दिया—
“नहीं बहन! ऐसा कुछ नहीं। यह बच्चा तो पहले ही मृत था। परंतु तेरे पुण्य, तेरे भाग्य और तेरे व्रत की शक्ति से ही यह जीवन में लौट आया है। तेरी आस्था और श्रद्धा के कारण ही यह चमत्कार हुआ है।”
नगर में संदेश-
इस घटना की चर्चा पूरे नगर में फैल गई। लोग एक-दूसरे से कहने लगे—
“देखो! व्रत को कभी अधूरा नहीं करना चाहिए। जो व्रत नियम, श्रद्धा और संपूर्णता से किया जाए, वही फलदायी होता है। आधा-अधूरा व्रत निष्फल रहता है।”
नगर भर में यह संदेश फैल गया कि व्रत अच्छे से करना चाहिए। शरद पूर्णिमा का व्रत विशेष रूप से मां लक्ष्मी की कृपा और संतान सुख देने वाला है। इसे अधूरा करना अपने हाथों से भाग्य बिगाड़ने जैसा है।





