Hindi Newsधर्म न्यूज़Free from the bondage of attachment and hatred purity of mind is the essence of religion

राग-द्वेष के बंधन से मुक्त, चित्त की शुद्धता ही धर्म का सार है

  • शुद्ध धर्म सदा स्पष्ट और सुबोधक होता है। उसमें रहस्यमयी गुत्थियां नहीं होती। शुद्ध धर्म में कपोल कल्पनाएं नहीं होती। जो कुछ होता है, यथार्थ ही होता है। धर्म कोरे सिद्धांत निरूपण के लिए नहीं प्रत्युत स्वयं का साक्षात्कार करने के लिए होता है।

राग-द्वेष के बंधन से मुक्त, चित्त की शुद्धता ही धर्म का सार है
Saumya Tiwari लाइव हिन्दुस्तानFri, 30 Aug 2024 07:06 AM
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उपाध्याय गुप्त सार मुनि के अनुसार धर्म के सार को समझे बिना धर्म का ठीक से पालन नहीं किया जा सकता है। सार को समझेंगे तभी उसे ग्रहण कर पाएंगे अन्यथा अंदर के सार तत्त्व को छोड़कर छिलकों में ही उलझे रह जाएंगे। सार में सदा समानता रहती है। अनेक रूप-रूपाय भिन्न-भिन्न बाह्याडंबर, आकार-प्रकार, बनावट-सजावट, खान-पान जो भिन्न-भिन्न संप्रदायों के प्रतीक मात्र थे, वे आज भिन्न-भिन्न धर्म बनकर पारस्परिक विरोध का कारण बन गए हैं। सारा मानव समाज इन बाह्याचार और बाह्याडंबर रूपी स्थूल छिलकों में बुरी तरह उलझ गया है। हमें जब तक धर्म की वास्तविक ‘मणि’ प्राप्त नहीं होती, तब तक हम कंगाल हैं। हमारा जीवन निस्सार दिखावों, निरर्थक कर्मकांडों और निकम्मे बुद्धि-किलोलो में भरा रहता है। धर्म का सार तो चित्त की शुद्धता में है, राग-द्वेष-मोह के बंधनों से मुक्त होने में है। विषम स्थितियों में भी चित्त की समता बनाए रखने में है। मैत्री, करुणा, मुदिता में है। साथ-साथ जो यह भी समझते हो कि ये गुण हममें नहीं है तो देर-सवेर वे भी धर्म के सार को प्राप्त कर ही लेते हैं। लेकिन जब हम बाह्याडंबर के निस्सार छिलकों को ही धर्म मानने लगते हैं, तब शुद्ध धर्म प्राप्त कर सकने की सारी संभावनाओं को खो देते हैं। हम यह जांच कभी करते ही नहीं हैं कि जिसे हम धर्म माने जा रहे हैं, उसकी वजह से हमारे मन-मानस में क्या सुधार हो रहा है? अथवा हमारे जीवन-व्यवहार में कुछ सुधार हो रहा है? अत धर्म की शुद्धता को जानना, समझना, जांचना, परखना पहला आवश्यक चरण है।

शुद्ध धर्म सदा स्पष्ट और सुबोधक होता है। उसमें रहस्यमयी गुत्थियां नहीं होती। शुद्ध धर्म में कपोल कल्पनाएं नहीं होती। जो कुछ होता है, यथार्थ ही होता है। धर्म कोरे सिद्धांत निरूपण के लिए नहीं प्रत्युत स्वयं का साक्षात्कार करने के लिए होता है। धर्म राजमार्ग की तरह ऋजु है, उसमें भूल-भुलैया नहीं होती। धर्म आदि, मध्य और अंत हर अवस्था में कल्याणकारी ही होता है। मिश्री की तरह, जहां से चखो, मुंह मीठा ही करेगा। यदि ऐसा हो तो धर्म यथार्थ है, शुक्ल है, शुद्ध है अन्यथा धर्म के नाम पर कोई धोखा हो सकता है।

अतएव यदि शुद्ध धर्म का सार ग्रहण नहीं करेंगे तो द्वेष, द्रोह, दुराग्रह, हठधर्मी, पक्षपात, संकीर्णता, कट्टरता, भय, आशंका, अविश्वास, प्रमाद, कठमुल्लेपन से भरा हुआ जीवन निस्तेज, निष्प्राण, निरुत्साही ही होगा। कुत्सित, कलुषित, कुटिल ही होगा। शुद्ध धर्म का सार ग्रहण कर लेंगे तो प्यार, करुणा, स्नेह, सद्भाव, त्याग, बलिदान, सहयोग, सहकार, श्रद्धा-विश्वास, अभ्युदय और विकास से भरा हुआ जीवन ओजस्वी, वर्चस्वी ही होगा। शुद्ध धर्म के यही प्रत्यक्ष लाभ हैं। प्रत्यक्ष लाभ ही शुद्ध धर्म की सच्ची कसौटी है। इस धर्म तरु पर सर्वेंद्रिय सुख रूपी फलों के साथ-साथ मुक्ति रूपी महाफल फलता है।

 

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