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जो भी है, सब ईश्वर में समाहित है

हम सच्चे ज्ञान की तलाश में रहते हैं। ऐसा ज्ञान, जो हमें परमात्मा के प्रकाश से सराबोर कर दे। किंतु संबोधि, अर्थात ईश्वर की इस खोज में हम या तो उसे मांगते हैं या उसे बाहरी जप-तप के व्यवहार से खोजते...

जो भी है, सब ईश्वर में समाहित है
हिन्दुस्तान टीम,नई दिल्लीTue, 19 Jan 2021 02:55 PM
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हम सच्चे ज्ञान की तलाश में रहते हैं। ऐसा ज्ञान, जो हमें परमात्मा के प्रकाश से सराबोर कर दे। किंतु संबोधि, अर्थात ईश्वर की इस खोज में हम या तो उसे मांगते हैं या उसे बाहरी जप-तप के व्यवहार से खोजते हैं। जबकि परमात्मा के प्राप्त होने जैसी महानतम घटना अकस्मात घटती है। इसके अकस्मात घटने का मर्म और सही प्रक्रिया समझ जाएं, तो सब आसान हो जाए। 

यह सत्य है कि अस्तित्व में कुछ भी अकारण नहीं घटता। लेकिन, अस्तित्व स्वयं अकारण है। परमात्मा स्वयं अकारण है। उसका कोई कारण नहीं। संबोधि यानी परमात्मा, संबोधि यानी अस्तित्व। यह तुम्हारा स्वभाव है; संबोधि तुम हो। इसलिए तत्क्षण घट सकती है, और अकारण घट सकती है। जो भी सकारण घटता है, वह विज्ञान के हाथ के भीतर आ ही जाएगा। सिर्फ एक चीज रह जाएगी, जो कभी वैज्ञानिक न होगी, वह स्वयं अस्तित्व है। क्योंकि, अस्तित्व अकारण है; यह बस है। विज्ञान के पास उसका कोई उत्तर नहीं। विराट, समग्र का कारण हो भी कैसे सकता है? क्योंकि जो भी है, सब उसमें समाहित है, उसके बाहर तो कुछ भी नहीं। समाधि इसीलिए नहीं घटती, क्योंकि ये क्षुद्र नहीं है, यह विराट है। 

फिर हम जो चेष्टा करते हैं, उसका क्या परिणाम? अगर अष्टावक्र तुम्हें समझ में आ जाते हों, तब तो तुम व्यर्थ ही श्रम करते हो, तब तो तुम व्यर्थ ही अनुष्ठान करते हो। अनुष्ठान की कोई भी जरूरत नहीं; समझ पर्याप्त है। इतना समझ लेना कि परमात्मा तो है ही, और उसकी खोज छोड़ देना। इतना समझ लेना कि जो हम हैं, वह मूल से जुड़ा ही है। इसलिए, जोड़ने की चेष्टा और दौड़-धूप छोड़ देनी है...और मिलन घट जायेगा। मिलने के प्रयास से तो दूरी बढ़ रही है..जितनी तुम मिलन की आकांक्षा करते हो, उतना ही भेद बढ़ता जाता है। जितना तुम खोजने निकलते हो, उतने ही खोते चले जाते हो; क्योंकि जिसे तुम खोजने निकले हो, उसे खोजना ही नहीं है, जागकर देखना है; वह मौजूद है। जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे पीछे ही चल रहा है। परमात्मा सामने है और हम उसी से प्रार्थना कर रहे हैं कि मिलो, हे प्रभु तुम कहां हो? 

तुम सोचते हो कि इतना करेंगे तो परमात्मा मिल जाएगा, जैसे कोई सौदा है! अष्टावक्र कह रहे हैं: क्या पागलों जैसी बात कर रहे हो? पुण्य से मिलेगा परमात्मा? तब तो खरीददारी हो गई। पूजा से मिलेगा परमात्मा? तो तुमने तो खरीद लिया। प्रसाद कहां रहा? और जो कारण से मिलता है, वह कारण अगर खो जाएगा, तो फिर खो जायेगा। जो अगर कारण से मिलता हो, तो कारण के मिट जाने से फिर छूट जाएगा। परमात्मा अकारण मिलता है। लेकिन हमारा अहंकार मानता नहीं। हमारा अहंकार कहता है, -अकारण मिलता है! तो इसका मतलब यह कि जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, उनको भी मिल जायेगा?- यह बात हमें बड़ी कष्टकर मालूम होती है कि जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, उनको भी मिल जायेगा। 
परमात्मा को पाने के लिए करने की जरूरत क्या है? कहो भी तो भरोसा नहीं आता। क्योंकि, हमारा मन पूछता है, बिना कुछ किये? बिना किये तो क्षुद्र चीजें नहीं मिलतीं... मकान नहीं मिलता, कार नहीं मिलती, दुकान नहीं मिलती, धन, पद, प्रतिष्ठा नहीं मिलती...परमात्मा मिल जायेगा बिना किये? भरोसा नहीं आता। इस ‘न करने’ को भी करना पड़ेगा। इसलिए तो हम ऐसे-ऐसे शब्द बना लेते हैं..कर्म में अकर्म, अकर्म में कर्म..मगर हम इसमें कर्म को डाल ही देते हैं।   

मैं तुमसे कहता हूं, वही अष्टावक्र कह रहे हैं-मिला ही हुआ है। मिलने की भाषा ही गलत है। मिलने की भाषा में तो दूरी आ गई; जैसे छूट गया। छूट जाये तो तुम क्षण भर जी सकते हो? परमात्मा से छूट कर कैसे जी पाओगे? परमात्मा से छूट कर तो तुम्हारी वही गति हो जायेगी, जो मछली की सागर से छूट कर हो जाती है। किनारा है कोई परमात्मा का? सागर ही सागर है। उसके बाहर होने का उपाय नहीं है। अष्टावक्र तुमसे कह रहे हैं कि तुम उससे कभी दूर गए ही नहीं हो, इसलिए घट सकता है अकारण। खोया ही न हो तो मिलना हो सकता है अकारण। हम बड़े दीन हो गए हैं। दीन हो गए हैं जीवन के अनुभव से।  

हम दीन नहीं हैं। इसलिए तो जनक कहते हैं कि ‘अहो! मैं आश्चर्य हूं! मुझको मेरा नमस्कार! मुझको मेरा नमस्कार! इसका अर्थ हुआ कि भक्त और भगवान दोनों मेरे भीतर हैं। दो कहना भी ठीक नहीं, एक ही मेरे भीतर है, भूल से उसे मैं भक्त समझता हूं; जब भूल छूट जाती है, तो उसे भगवान जान लेता हूं। भूल अस्तित्व में नहीं है..भूल केवल स्मरण में है। भूल अस्तित्व में नहीं है..भूल केवल तुम्हारे गणित में है। भूल ज्ञान में है। 

इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, कुछ करने का सवाल नहीं है। भक्त तुम अपने को जानते हो..यह जोड़ की भूल। इसलिए तो जनक कह सके: अहो! मेरा मुझको नमस्कार! कैसा पागल मैं! जो सदा था, उसे न जाना। और, जो कभी भी नहीं था, उसे जान लिया! रस्सी में सांप देखा! सीपी में चांदी देखी! किरणों के जाल से मरुद्यान के भ्रम में पड़ गया, जल देख लिया!  
संबोधि एक महान स्थिति है, क्योंकि यह घटना है ही नहीं। संबोधि घटी ही हुई है। तुम्हें जिस क्षण तैयारी आ जाये, तुम्हें जिस क्षण हिम्मत आ जाये, जिस क्षण तुम अपनी दीनता छोड़ने को तैयार हो जाओ, और जिस क्षण तुम अपना अहंकार छोड़ने को तैयार हो जाओ..उसी क्षण घट जायेगी। न तुम्हारे तप पर निर्भर है, न तुम्हारे जप पर निर्भर है।  
सौजन्य: ओशोधारा नानक धाम, मुरथल 

 

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