ट्रेंडिंग न्यूज़

Hindi News Astrology DiscourseIf you want to find the Lord then lose your mind

प्रभु को पाना है तो मन को खो दो

सारा जीवन मन हम पर अपनी लगाम कसे रहता है। मन के आदेशों पर प्यास से व्याकुल वनचर की तरह हम सांसारिक तृष्णाओं में भटकते रहते हैं। पर कभी मन से मतभेद पैदा करके नहीं देखते। यदि ऐसा करें, तो आपको अपने...

प्रभु को पाना है तो मन को खो दो
आनंदमूर्ति गुरुमां,नई दिल्लीTue, 29 Jun 2021 11:09 AM
ऐप पर पढ़ें

सारा जीवन मन हम पर अपनी लगाम कसे रहता है। मन के आदेशों पर प्यास से व्याकुल वनचर की तरह हम सांसारिक तृष्णाओं में भटकते रहते हैं। पर कभी मन से मतभेद पैदा करके नहीं देखते। यदि ऐसा करें, तो आपको अपने ईश्वर का पता चलेगा। तब पता चलेगा, मन के मिथ्या संसार का सच।

 आपके पूरे जीवन को आपका मन चलाता है, पर मन कहां है, इसका उत्तर कोई नहीं जानता। आपके शरीर को जीवित रखने में आपके मन का कितना बड़ा योगदान है, इसका अनुमान शायद खुद आपको भी नहीं है। जन्म ही होता है मन के कारण। यह सुख भोगना और दुख से बचना चाहता है। इसी सुख की प्यास को बुझाने को मन शरीर धारण करता है और इच्छाओं की पूर्ति करता है। लेकिन आपकी बहुत सारी इच्छाएं स्वाभाविक नहीं हैं, वे परिवार और समाज द्वारा आपके मन में डाली गई हैं। जैसे धन पाने की इच्छा हम जन्म के साथ नहीं लाए हैं, यह इच्छा हमको समाज ने दी है।
सच तो यह है कि आप जिस मन को महसूस करते हो, वह असली मन है ही नहीं। बुद्ध ने कहा है, ‘अपने मन को खोजो, मन को जानो’। अगर मैं आपसे कहूं कि आज दिनभर कोई ऐसी बात सोचिए, जो आपको समाज ने नहीं दी है, न ही समाज ने सिखाई है, तो तुम अचम्भे में पड़ जाओगे कि क्या सोचें? कई धर्मानुरागी कहेंगे कि ‘हम भगवान को सोचेंगे।’ पर याद रहे, भगवान के बारे में जिस तरह के विचार तुम्हारे मन को दिए गये हैं, तुम वही विचार कर सकते हो।

आपका मन असली ईश्वर के बारे में सोच ही नहीं पाता, क्योंकि ईश्वर क्या है, इसका पता अभी आपके मन को है ही नहीं। इसके लिए आपका अपने मूलभूत मन से परिचय होना जरूरी है। इसी मन के कारण तुम क्रोध में आगबबूला हो जाते हो, और इसी मन के कारण तुम शांत गम्भीर हो जाते हो। इसी मन के कारण खाने-पीने के लिए दौड़ते हो, धन पाकर मकान बनाने के लिए पीड़ा में जलते हो। इसी मन के विचारों की तरंगों के अनुसार, आपके शरीर का रूप-रंग भी बदलता जाता है। शरीर तो सिर्फ इस मन का गुलाम है। मन नाच नचवाता है और शरीर नाचता रहता है। मन की इन्हीं तरंगों से मनुष्य बंधा है और इन्हीं मन के भावों से मुक्त हो जाए, तो व्यक्ति मुक्त है। इसलिए बदलाव शरीर में नहीं करना है, बदलाव करना है इस मन में। इस मन में बदलाव तब घटेगा, जब तुम इस मन को पहचानोगे कि मन है क्या?
मनुष्य दुनियादारी का सबक किसी से सीखे बिना ही, खूब दक्षता से खेलता है। लेकिन परमात्मा के बारे में रोज पढ़ाया जाता है। मैं आपसे पूछती हूं, ‘क्या आपका मन ईश्वर से प्यार करने लग गया? क्या आपका मन प्रार्थनापूर्ण हो गया?’ ईश्वर के रास्ते पर चलो, ऐसा दिन-रात सुनते हो, लेकिन मन है कि फिर भी नहीं चलता।
मन की इसी प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कबीर साहिब कह रहे हैं, ‘रे मन तू कर ले साहेब स्यों प्रीत।’ कबीर जी साहेब अर्थात ईश्वर के गुण बता रहे हैं कि जो ईश्वर की शरणागति में आता है, ईश्वर उसको अंगीकार करते हैं, उसको स्वीकार करते हैं। उसका भला-बुरा, उसके पाप-पुण्य का लेखा-जोखा किए बगैर उसको अपनी शरण में लेकर उबार देते हैं। रे मन! ऐसे कृपालु ईश्वर से प्रीति कर।
व्यक्ति की दृष्टि सिर्फ अपने शरीर पर है, अपने मन पर उसकी दृष्टि होती ही नहीं। शरीर की ही जरूरतें पूरी करते रहता है। अब खाओ, अब शरीर को सजाओ, संवारो। सारे समय दृष्टि देह पर लगी रहती है। मनुष्य देह का, इ्द्रिरयों का उपासक है। सारे समय शरीर को तृप्ति देना चाहता है। जरा कल्पना कर देखिए कि किसी को पता चले कि वह एक घंटे बाद मरने वाला है, तो उसके मन की स्थिति क्या होगी? उसका मन संसार की किन-किन चीजों के बारे मंे सोचेगा? क्या चाहेगा? मजे की बात यह है कि मृत्यु उसी को भयभीत करती है, जिसका मन अभी बहुत सारी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है। लेकिन जो इच्छाओं से मुक्त हो गया है, वह मृत्यु की सूचना पाकर कभी उदास और दुखी नहीं होगा, बल्कि उसे अगर मालूम हो जाए कि इतना ही समय बाकी है, तो वह और भरपूर ढंग से जी लेगा। वह अपने जीवन में प्रकृति के हर रंग को, प्रकृति के हर ढंग को आनन्दपूर्ण होकर जीयेगा। मित्रों से गले मिलेगा, क्योंकि फिर शायद मिलना नहीं होगा।
समझें इस बात को, कि हमारा मन के प्रति अज्ञान ही हमें मन से बांधता है और मन को द्रष्टा भाव से जान लेना ही मन से मुक्ति है। मन में रह कर मन को जाना नहीं जा सकता, मन से बाहर आकर ही मन को जाना जा सकता है। जिसने मन से बाहर आने की कला को सीख लिया, वह जीत गया। अब उसे कोई नहीं हरा सकता। मन में रहकर मन की मैल से मुक्त 
नहीं हो सकते। पर अगर मन से बाहर आना सीख लोगे, मन के और आपके बीच के फासले को जान लोगे, तो आप मन से मुक्त हो जाओगे। मन से बाहर आने की इस कला को ही ‘धर्म’ कहते हैं। अपने ही मन से अलगाव कर 
लेने, इस भेद को देख लेने को ही मैं ‘धर्म’ कहती हूं।
धर्म सिर्फ मंजीरे बजाकर कीर्तन करना, राम-कृष्ण की लीलाओं को सुनना भर नहीं है। धर्म का विज्ञान है अपने मन को जानना। जिस दिन आप अपने मन को द्रष्टा भाव से देख लोगे, उस दिन तुम पाओगे कि मन सिर्फ एक परछाई है, और कुछ नहीं।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें