मन का स्वरूप चेतना की धारा से निर्मित होता है विचार
- मन का अर्थ है— संकल्प-विकल्प। मन का अर्थ ‘स्मृति और चिंतन’ के इर्द-गिर्द घूमता है। मन का अर्थ समय की परिधि में तीनों कालों में बंटा हुआ है। मन अतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है तथा वर्तमान का चिंतन करता है।
मन शब्द से हर कोई परिचित है। मन का साम्राज्य विशाल है। योग की एक प्रसिद्ध सूक्ति है— ‘यत्र पवनस्तत्र मन’ अर्थात जहां पवन है, वहां मन है। मन क्या है? यह प्रश्न सहज ही उठता है। सामान्य शब्दों में कहें तो जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है।
मन का अर्थ है— संकल्प-विकल्प। मन का अर्थ ‘स्मृति और चिंतन’ के इर्द-गिर्द घूमता है। मन का अर्थ समय की परिधि में तीनों कालों में बंटा हुआ है। मन अतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है तथा वर्तमान का चिंतन करता है। मन की प्रकृति चंचल है, इसीलिए कभी व्यग्र होता है,कभी एकाग्र।
मन के स्थान के संबंध में पृथक-पृथक धारणाएं प्रचलित हैं। कोई इसे हृदय के नीचे, कोई हृदय के बीच तो कोई समूचे शरीर में व्याप्त बताता है। शरीर शास्त्र के अनुसार मन का स्थान मस्तिष्क है। वस्तुत मन का शासन सर्वत्र व्याप्त है।
मन के स्वरूप को जानना इसलिए आवश्यक है कि वह हमारी साधना का मुख्य आधार है। उसी के आधार पर ध्यान, उपलब्धियों, अनुपलब्धियों का लेखा-जोखा होता है। मन के साथ चेतना का योग न हो तो ध्यान की कोई आवश्यकता नहीं है। मन का स्वरूप चेतना की धारा से निर्मित होता है। वह न चंचल है; न स्थिर है। जैसा उत्पादन होता है, वैसा ही वह निर्मित हो जाता है।
हमारे मन में हजारों अवस्थाएं प्रतिदिन घटित होती हैं। जब मन बाह्य-साक्षात्कार में लगता है, तब मन में हजारों घटनाएं घटित होती हैं। अकारण प्रेम, शत्रुता व भय के भाव आ जाते हैं। बाह्य-साक्षात्कार में बड़ी परेशानियां होती हैं। मन में जितने विकल्प उठते हैं, उतना ही मन अशांत होता है। जब थकान व बेचैनी से आदमी परेशान हो जाता है, तब आदमी सोचता है कि दूसरे रास्ते से चलना चाहिए। और वह रास्ता होता है आत्म-साक्षात्कार का।
इसी से विरोधी विचार आदमी के मन में पैदा होते रहते हैं। एक मन कहता है— यह करूं और दूसरा मन कहता है— यह न करूं। तब सहज विचार आता है कि आदमी के कितने मन हैं। वस्तुत मन/चित्त तो एक ही है किंतु उसकी वृत्तियां अनेक होती हैं। इससे मन अनेक बन जाते हैं परिणामत एक मन भी अनेक जैसा प्रतिभासित होने लगता है। मन के दो स्तर हैं— चेतन मन का स्तर और अचेतन मन का स्तर। हमारे जितने आचरण हैं, उन सबका स्रोत है अचेतन मन।
मन की मुख्यत तीन अवस्थाएं हैं— विक्षेप, एकाग्रता और अमन। विक्षेप अर्थात स्मृतियों, कल्पनाओं और विचारों का सतत विचरण। जबकि एकाग्रता का अर्थ है— एक स्मृति पर टिके रहना। तीसरी अवस्था है— अमन। अमन का अर्थ है— मन को उत्पन्न ही नहीं होने देना। स्थिरता की मान्यता भ्रांत है क्योंकि मन कि प्रकृति ही ‘चंचलता’ है। चूंकि मन स्थाई तत्त्व नहीं है, अत वह उत्पन्न और नष्ट होता रहता है। निर्विकल्प और निर्विचार की अवस्था ‘अमन’ कहलाती है।
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