
जीवन का अर्थ जानना है जरूरी, भुगतना होगा कर्मों का फल
संक्षेप: जिंदगी का असली अर्थ हर किसी को जानना जरूरी है। इससे जिंदगी में बैलेंस बनाने में आसानी होती है। इंसान को अपनी जिंदगी के हर एक पहलू पर ध्यान देना चाहिए। इसी के साथ ये भी समझना जरूरी है कि किसी भी लोक में कर्मों का फल तो जरूर मिलता है।
जीवन के प्रति मनुष्य का स्थिर और निश्चित दृष्टिकोण होना चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टि से तो यह और भी आवश्यक है। जीवन दर्शन के प्रति और दर्शन जीवन के प्रति सजग होना चाहिए। जीवन और दर्शन एक-दूसरे से अलग नहीं, उनमें मेल होना चाहिए। जब जीवन और दर्शन में मेल होगा, तभी हम अपने जीवन का सही अर्थ जान पाएंगे। वन भी सबके पास है और दर्शन भी। संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं, जिसके पास जीवन हो और दर्शन न हो। परंतु जीवन और दर्शन में मेल होना चाहिए। यदि दर्शन जीवन होता है तो दोनों मिलकर एक प्राण बन जाते हैं।
सरल भी और गूढ़ भी
प्रश्न है- जीवन क्या है? दर्शन क्या है? यह सरल भी है और गूढ़ भी है। सभी लोग कहते हैं- सुनकर काम करो, देखकर चलो। देखने का सब जगह महत्व है । यदि जीवन न होता, तो शायद देखने की आवश्यकता नहीं होती।
बंद आंखों से देखना
आदमी जीता है, वही जीवन है। इंद्रियों और प्राण के संयोग से ही वह बनता है। प्रोफेसर ल्योनिदवासिलियेव ने लिखा है- मैंने मस्तिष्क संस्थान के परीक्षणों द्वारा ज्ञात किया कि मनुष्य में अक्षय शक्ति है, अनंत शक्ति है। उसकी शक्ति विद्युत तरंगों की तरह नहीं है। जीवन का क्षेत्र बहुत विशाल है। जीवन की परिधि विशाल होती जा रही है। जीवन आगे बढ़ रहा है। हम जो आंखों से देखते हैं, वही दर्शन है। परंतु सब कुछ सीधा-ही-सीधा नहीं होता, उल्टा भी होता है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने कुछ बातें उल्टी भी कही हैं। उन्होंने कहा- हम जो देखते हैं, वह दर्शन नहीं है। वह देखना, देखना नहीं है। देखने का अर्थ है- आंखें बंद करके देखना।
अधूरे नहीं, पूरेपन से देखना
मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता। सुनता हुआ भी नहीं सुनता। यह बात बिल्कुल उल्टी है। समझ से परे है। आपको कहा जाए कि आंखें मूंदकर देखो, नहीं दिखेगा। हमारी इंद्रियां इतनी क्षीण होती हैं कि थोड़ा-सा भी व्यवधान आया नहीं कि दर्शन रुक जाता है। यदि हम ऊपर चढ़कर देखते हैं, तो पहाड़ दिखाई देता है, परंतु नीचे से नहीं दिखाई देता। कारण स्पष्ट है कि व्यवधान आ गया। दोपहर में दीप जलता है, परंतु उसका प्रकाश नहीं दिखाई देता। अनंत परमाणु चक्कर लगा रहे हैं पर दिखाई नहीं देते। जहां समानाभिहार होता है, वहां आंखों से नहीं देखा जा सकता। मन में सरसों का एक बीज यदि डाल दिया जाए, तो वह होते हुए भी दिखाई नहीं देता, इसलिए हमारे ऋषियों-मुनियों तथा दार्शनिकों ने कहा- आपका देखना अधूरा है।
सजगता के साथ देखना
एक सड़क हमारे सामने है। यदि हम उसे दूर से देखते हैं, तो वह केवल पतली-सी काली रेखा के समान ही दिखाई देती है। यह दर्शन है ही नहीं। यह सही है कि दर्शन का अर्थ होता है, देखना। परंतु जहां आंखें मूंदकर देखा जाए। दर्शन का अर्थ है- साक्षात। जो मन को एकाग्र करके देखने का प्रयास करते हैं, वही सही देखना है। जहां दूरी देखने में बाधक नहीं बनती, वही देखना है। भगवान महावीर ने कहा है- जो मनुष्य क्रोध, मान, माया और लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
स्वयं में केंद्रित होना ही दर्शन
जब हम अपने आप में देखते हैं, तब दर्शन पूर्ण हो जाता है। जहां चित्त को अपने आप में केंद्रित किया जाता है, वही है दर्शन। शेष सब तर्क का मायाजाल है। यह सरल तो बहुत है, परंतु इसे पाने में कठिनाई होती है, पर जिन्होंने थोड़ा प्रयत्न किया, उन्हें मिला भी अवश्य। लोग दर्शन को भूलभुलैया मानकर चलते हैं, परंतु ऐसी बात नहीं है। आज दार्शनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
स्थिर और निश्चित दृष्टिकोण
जिस प्रकार एक अपंग आदमी लाठी के सहारे चलता है, उसी प्रकार यदि हमारे पास दर्शन का आलंबन हो, तो हम सत्य तक अवश्य पहुंच सकते हैं। हमें ध्यान रखना है कि आत्मा एक है। वह अमर है। आपको अपने किए हुए कार्य का फल भुगतना पड़ेगा। चाहे इहलोक में या परलोक में। जिसमें इन तीनों तथ्यों के प्रति अटूट विश्वास है, वह मनुष्य बुराइयों से घबराएगा। इसे ऐसे समझें। एक आदमी गाली देता है। इससे सामनेवाले को क्रोध आना चाहिए, लेकिन उसे क्रोध नहीं आता। वास्तव में यह उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण है। जीवन के प्रति मनुष्य का स्थिर और निश्चित दृष्टिकोण होना चाहिए। आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए तो और भी आवश्यक है। जीवन दर्शन के प्रति और दर्शन जीवन के प्रति सजग होना चाहिए। हमें सजगता के साथ समझने तथा देखने का प्रयत्न करना चाहिए। और, हमें अपने जीवन का अर्थ जरूर जानना चाहिए।

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