भीतर हो जन्माष्टमी, तो मिलेंगे कृष्ण
- श्री कृष्ण के रूप का दर्शन कर उनके स्वरूप तक पहुंचने का पर्व है जन्माष्टमी। आनंद में झूम उठने का पर्व है जन्माष्टमी। जितना आवश्यक है कि हम श्रीकृष्ण के रूप की उपासना करें, उतना ही आवश्यक है कि हम उनके स्वरूप की भी स्मृति अपने चित्त में लाएं।
बाहर की जन्माष्टमी मनाना भी आवश्यक है ताकि तुम्हें याद आ जाए कि मेरे भीतर अभी भी उतना ही अंधकार है, जितना कृष्ण के जन्म के समय उनके माता-पिता के कारागार में था। अगर मन के अंधकार से मुक्ति चाहते हो, तो फिर अंतस की जन्माष्टमी मनाओ। भीतर की जन्माष्टमी वही मना पाएगा, जिसके भीतर कृष्ण-चेतना का जन्म हुआ हो।
आज भी अगर आप कृष्ण को प्रेम से पुकारो तो आपके शरीर में उनके प्रेम की तरंगें स्पंदित होने लग जाएंगी क्योंकि कृष्ण किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है। वह स्वयं अपने मुख से कहते हैं, ‘मैं अव्यक्त हूं, अजन्मा हूं।’ श्रीकृष्ण से जुड़ने के हजार उपाय हैं…
श्री कृष्ण के रूप का दर्शन कर उनके स्वरूप तक पहुंचने का पर्व है जन्माष्टमी। आनंद में झूम उठने का पर्व है जन्माष्टमी। जितना आवश्यक है कि हम श्रीकृष्ण के रूप की उपासना करें, उतना ही आवश्यक है कि हम उनके स्वरूप की भी स्मृति अपने चित्त में लाएं। भगवान भगवद्गीता में अपने स्वरूप का बहुत गहराई से वर्णन करते हैं। भगवान का यह स्वरूप ही हमारा स्वरूप है।
भगवान ने कृष्ण रूप में जन्म लेकर सबके कल्याण और आध्यात्मिक उन्नति के लिए ज्ञान की परंपरा को भगवद्गीता के द्वारा आगे प्रेरित किया। जब अर्जुन क्या करूं और क्या न करूं के द्वंद्व में फंस जाते हैं तो भगवान ज्ञान का उपदेश देकर उस अमृतमयी ज्ञान धारा से अर्जुन को सारे द्वंद्वों से मुक्त कर देते हैं। पर समझने की बात यह है कि ज्ञान का उपदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं था, अपितु अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान सबको उपदेश दे रहे थे और अपने ग्रंथ के माध्यम से आज भी दे रहे हैं।
कृष्ण के प्रिय होने का अर्थ बस इतना है कि कृष्ण के उपासक का मन ठहर जाता है और यह ठहरा हुआ मन फिर कृष्ण का ही आकार ले लेता है। भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं रह जाता। लेकिन केवल रूप का गुणगान करने से कोई भक्त नहीं कहलाएगा क्योंकि भक्त हम उसे कहते हैं, जो कण-कण में बस भगवान को ही देखता है। भक्ति का आधार है प्रेम। जिसने संसार से प्रीति तोड़कर परमात्मा से प्रीति जोड़ ली, वे संसार में रहकर भी संसार से दुखी नहीं होता, क्योंकि ईश्वर ही उसका संसार बन जाता है। इतना घनिष्ठ प्रेम काफी है, एक व्यक्ति को वैराग्यपूर्ण करने के लिए। जन्माष्टमी का पर्व उन पर्वों में से एक है, जो हमें इस बात की याद दिलाते हैं कि जीवन में ऐसी भक्ति और ज्ञान का संचार होने से श्रीकृष्ण का जन्म तुम्हारे ही भीतर हो जाएगा; फिर आंख बंद करो तो भी आनंद और आंख खोलो तो भी आनंद है।
आज भी अगर आप कृष्ण को प्रेम से पुकारो तो आपके शरीर में उनके प्रेम की तरंगें स्पंदित होने लग जाएंगी, क्योंकि कृष्ण किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है। वह स्वयं अपने मुख से कहते हैं, ‘मैं अव्यक्त हूं, अजन्मा हूं।’ श्रीकृष्ण से जुड़ने के हजार उपाय हैं। सुदामा के लिए कृष्ण बचपन के सखा ही रहे, कभी बड़े ही नहीं हुए। मीरा के लिए कृष्ण पूर्ण पुरुष हैं। उन्हें वे अपने प्रेमी, अपने पति के रूप में देखती थीं। चैतन्य महाप्रभु के लिए श्रीकृष्ण अवतारी पुरुष हैं। कृष्ण को वह भाव से अपने भीतर महसूस करते हैं।
जो सबका उद्धार करने, संपूर्ण संसार का कल्याण करने के लिए आता है, उसे नित्य अवतार कहते हैं। आप किसी संत के जीवन को देखो तो भी और अगर श्रीकृष्ण के जीवन को देखो तो भी यह जान लोगे कि चराचर सृष्टि पर उसी अगम, अगोचर, अगाध की सत्ता है। इंद्रियों से उसे तुम जान नहीं सकते, मन से उसका मनन नहीं हो सकता, बुद्धि से उसका चिंतन नहीं हो सकता, ऐसी परम सत्ता को कायम रखने के लिए श्रीकृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों का जन्म होता है।
यों तो जन्माष्टमी उस अजन्मे का जन्मोत्सव है, पर यह बात भी सत्य है कि रात्रि के बारह बजे कृष्ण का जन्म होता है, जब घड़ी की दो सुइयां आपस में मिल जाती हैं। ऐसे ही मनुष्य के अंदर कृष्ण-चेतना का जन्म तब होता है, जब भक्त की भक्ति मिटकर उसी भगवत्ता में मिल जाती है। जैसे घड़ी की सुइयां मिल जाती हैं। उसी तरह तुम्हारी ‘मैं’ उस विश्वव्यापक चैतन्य कृष्ण की ‘मैं’ के साथ मिल जाए तो तुम्हारे ही भीतर कृष्ण-चेतना का जन्म हो जाएगा।
बाहर की जन्माष्टमी मनाना भी आवश्यक है ताकि तुमको याद आ जाए कि मेरे भीतर अभी भी उतना ही अंधकार है, जितना कृष्ण के जन्म के समय उनके माता-पिता के कारागार में था। मन के अंधकार, मोह, ममता, भय, क्रोध इन सबसे अगर मुक्ति चाहते हो, तो फिर भीतर की जन्माष्टमी मनाओ। भीतर की जन्माष्टमी वही मना पाएगा, जिसके भीतर कृष्ण-चेतना का जन्म हुआ हो।
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