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गुरु पूर्णिमा विशेष: जानिए गुरु पर क्या कहते हैं अाध्यात्मिक गुरु ओशो

कबीर का प्रसिद्ध वचन है- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।। इस सूत्र के दो अर्थ हो सकते हैं, और दोनों प्रीतिकर हैं। कबीर कहते हैं कि एक ऐसी घड़ी आई, जब गुरु...

गुरु पूर्णिमा विशेष: जानिए गुरु पर क्या कहते हैं अाध्यात्मिक गुरु ओशो
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 19 Jul 2016 02:00 PM
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कबीर का प्रसिद्ध वचन है- गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।। इस सूत्र के दो अर्थ हो सकते हैं, और दोनों प्रीतिकर हैं। कबीर कहते हैं कि एक ऐसी घड़ी आई, जब गुरु और गोविंद दोनों सामने खड़े थे। ऐसी घड़ी आएगी ही एक दिन। गुरु तो द्वार है; आज नहीं कल, गोविंद प्रकट होगा। गुरु तो मार्ग है; आज नहीं कल, मंजिल आएगी। और पहली घड़ी में तो ऐसा होगा कि गुरु भी मौजूद होगा और गोविंद भी मौजूद होंगे। 

तो कबीर कहते हैं- बड़ी दुविधा में खड़ा हो गया। गुरु गोविंद दोउ खड़े, काको लागूं पाय? पहले किसके पैर छुऊं! कबीर फिर कहते हैं कि बलिहारी गुरु तुम्हारी कि जब मैं दुविधा में था, तुमने तत्क्षण इशारा कर दिया कि गोविंद के पैर छुओ। बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो बताय। क्योंकि मैं तो बस यहां तक उपयोगी था। मैं तो राह पर लगे हुए मील के पत्थर की तरह था, जिसका इशारा था मुकाम आ गया, मंजिल आ गई, अब मेरा कोई काम नहीं। अब तुम गुरु को छोड़ो, गोविंद के पैर छू लो। एक तो यह अर्थ है। साधारणत: यही अर्थ किया जाता है। लेकिन इस दूसरे वचन का एक और अर्थ हो सकता है और यह दूसरा अर्थ तो और भी कीमती है। और मेरी प्रतीति दूसरे अर्थ के साथ है, क्योंकि पहले जो वचन हैं, वे दूसरे अर्थ के साथ ही सही होंगे। दूसरा अर्थ है- दुविधा में था, किसके पैर लगूं? गुरु, गोविंद दोनों खड़े हैं। फिर मैंने गोविंद को छोड़ा, गुरु के ही पैर छुए; क्योंकि उसकी ही बलिहारी है, उसी ने गोविंद को बताया है। यही अर्थ ठीक होगा, क्योंकि आगे के सूत्र में कबीर कह रहे हैं- करता करै न करि सके, गुरु करै सो होय।। परमात्मा से ऊपर कबीर जब गुरु को रख रहे हैं तो दूसरा ही अर्थ संगत है। और होना भी वही चाहिए; क्योंकि इस आखिरी पड़ाव पर, जहां गुरु विदा होंगे, वहां से गोविंद की यात्र शुरू होगी, यही उचित है कि गुरु के ही पैर छुए जाएं। 

उस आखिरी पड़ाव पर.. वह विदाई का क्षण है। उसके बाद गुरु नहीं होगा, गोविंद ही होंगे। उस दिन बीच का सेतु हट जाएगा। उस दिन बीच से, जो अब तक हाथ पकड़ कर लाए थे, वह विदा हो जाएंगे। और यही बात आगे के सूत्र से भी स्पष्ट होती है- ह्यहरि रूठै गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।। हरि रूठ जाए तो उपाय है, क्योंकि हम गुरु के पास जा सकते हैं। किंतु गुरु रूठ जाए तो कोई उपाय नहीं, क्योंकि गुरु के बिना हरि के पास तो जा नहीं सकते।गुरु को सिर पर राखिएकबीर कहते हैं- गुरु को सिर पर राखिए, चलिए आज्ञा माहिं। कहै कबीर ता दास को, तीन लोक डर नाहिं।। गुरु को सिर पर रखिए, चलिए आज्ञा माहिं। क्या मतलब? गुरु को सिर पर रखना आसान, आज्ञा मान कर चलना कठिन। लेकिन आज्ञा मान कर चलना ही सिर पर रखने का अर्थ है। बहुत सुविधापूर्ण है कि गुरु के चरणों में सिर रख दिया। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। भीतर तो तुम झुकते ही नहीं, बाहर ही झुक जाते हो। भीतर तो तुम अकड़े ही रहते हो। एक घर में मैं मेहमान था और गृहिणी अपने बच्चे को डांट रही थी। वह काफी शोरगुल, उपद्रव मचा रहा था। आखिर उसने कहा कि अब बहुत हो गया, जाओ बैठ जाओ उस कुर्सी पर, इसी वक्त। तो वह जाकर कुर्सी पर बैठ गया। और वहां से घूर कर मां को देखता रहा। 

उसने कहा, अच्छा, कोई बात नहीं; बाहर-बाहर बैठे हैं, भीतर तो हम खड़े ही हैं। बाहर-बाहर झुकना बहुत आसान है। आज्ञा मान कर चलना बहुत कठिन है, क्योंकि वह भीतर झुकना है। गुरु जो कहे, आज्ञा मानने का अर्थ है कि उसमें तुम तर्क मत लगाना; क्योंकि तुमने तर्क लगाया, सोचा, फिर माना तो तुम अपनी आज्ञा मान रहे हो, गुरु की नहीं। जब तुम बुद्धि की ही सुनते जाओगे तो तुम सिर से नीचे न उतर सकोगे। हृदय तक तुम्हारी जड़ें न पहुंच पाएंगी। श्रद्धा ही सूत्र है। आज्ञा का अर्थ है, वह जो कहे, तुम्हारी बुद्धि को संगत लगे, असंगत लगे, तुम अपना हिसाब मत लगाना। तुम बुद्धि को कहना कि तू किनारे हट, गुरु की सुनूंगा। और जैसे ही गुरु को सुनने की क्षमता बढ़ेगी, वैसे ही वैसे गुरु के सामने झुकने की क्षमता बढ़ेगी। गुरु सिर पर हो जाएगा। जिस दिन तुम्हारी बुद्धि सिर से उतर जाएगी, गुरु तुम्हारी बुद्धि हो जाएगा। वह तुम्हारा विवेक बन जाएगा। ह्यगुरु को सिर पर राखिए, चलिए आज्ञा माहिं। कहे कबीर ता दास को, तीन लोक डर नाहिं।। का यही अर्थ है।    

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