झारखंड विधानसभा चुनाव : अतीत के झरोखे से : तब टिकट कटने के बाद भी पार्टी से बागी नहीं हुए थे अजमानी
पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा पहली और आखिरी बार रांची विधानसभा सीट से निर्वाचित होकर बिहार विधानसभा पहुंचे थे। आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आनेवाले यशवंत सिन्हा 1984 में जनता पार्टी के साथ जुड़...
पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा पहली और आखिरी बार रांची विधानसभा सीट से निर्वाचित होकर बिहार विधानसभा पहुंचे थे। आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आनेवाले यशवंत सिन्हा 1984 में जनता पार्टी के साथ जुड़ गए। 1988 में वह राज्यसभा सदस्य बनाए गए। 1990 से 91 तक वह केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे। लेकिन बाद में जनता दल छोड़कर भाजपा से जुड़ गए। 1995 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें रांची से लड़ाने का फैसला लिया था। उस समय रांची के र्सींटग विधायक गुलशन लाल अजमानी थे। जब उनका टिकट काटा गया तो शुरू में सहज ढंग से उन्होंने स्वीकार किया था। पार्टी के फैसले के आगे अपनी इच्छा को कभी आड़े नहीं आने दिया। यशवंत सिन्हा रांची से चुनाव जीते और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने। लेकिन यशवंत सिन्हा लंबे समय तक विधायक बनकर नहीं रहे। पार्टी को उनकी जरूरत देश की सबसे बड़ी पंचायत में थी। 1996 में वह राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। उनकी सीट फिर खाली हो गई। उन्होंने रांची विधायक पद से इस्तीफा दे दिया। 1996 में लोकसभा के साथ ही रांची विधानसभा का उपचुनाव भी हुआ। लोकसभा में भाजपा ने 14 में से इस क्षेत्र की 12 सीटें जीती और रांची विधानसभा सीट भी जीत गई।
यशवंत सिन्हा के इस्तीफा देकर राज्यसभा में जाने के बाद लोग मानकर चल रहे थे कि गुलशन अजमानी को दुबारा मौका मिलेगा। लेकिन भाजपा ने रांची जिला भाजपा के तत्कालीन महामंत्री सीपी सिंह को प्रत्याशी बनाया। रांची में भाजपा के कुछ लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। उस समय केएन गोविन्दाचार्य भाजपा के बिहार प्रदेश के प्रभारी थे। सीर्पी ंसह उनकी पसंद के उम्मीदवार थे। इसलिए विरोध करनेवालों ने सीर्पी ंसह पर कम, गोविन्दाचार्य पर ज्यादा निशाना साधा। गोविन्दाचार्य जब कभी रांची आते, विरोध के स्वर तेज हो जाते। लेकिन उन दिनों पार्टी का अनुशासन इतना सख्त था कि एक बार कोई शख्स पार्टी का अनुशासन तोड़ता था, तो उसे लंबे समय तक वनवास ही झेलना पड़ता था। उस दौरान भाजपा के कई नेता और कार्यकर्ताओं पर अनुशासन का सख्त डंडा चला।