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जिंदगी की जीत में यकीन के संवाद

कोई भी मानवीय, उदार, स्‍नेही समाज आत्महत्या के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता। आत्‍महत्‍या जिंदगी की संभावना पर पूर्णविराम है। जीवन चलने का नाम है, रुकने का अर्थ ही है जीवन खत्म हो जाना। हमें...

जिंदगी की जीत में यकीन के संवाद
अनुराग अन्वेषीFri, 23 Jul 2021 02:19 PM
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कोई भी मानवीय, उदार, स्‍नेही समाज आत्महत्या के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता। आत्‍महत्‍या जिंदगी की संभावना पर पूर्णविराम है। जीवन चलने का नाम है, रुकने का अर्थ ही है जीवन खत्म हो जाना। हमें हर हाल में जीवन के पक्ष में होना है। मनुष्‍यता के साथ होना है। आत्‍महत्‍या, मनुष्‍यता के विरुद्ध है। प्रकृति के सिद्धांतों के खिलाफ है।

बीते साल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने 2019 के जो आंकड़े जारी किए, उसके अनुसार देश भर में 1.39 लाख से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की। NCRB की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में आत्महत्या की जितनी वारदात हुईं, उनमें 67% युवा वयस्क (18-45 आयुवर्ग) के थे। जाहिर है इन लोगों ने किसी न किसी निराशा, हताशा, दबाव में आकर आत्महत्या की। लेकिन किसी भी दबाव में आकर आत्महत्या करने का समर्थन नहीं किया जा सकता, न उनके पक्ष में खड़ा हुआ जा सकता है। सिर्फ संघर्ष के पक्ष को ही समर्थन दिया जा सकता है। ऐसा संघर्ष जो जीवन को लुभाता है, उसे बचाता है। जीवन जीने के लिए की गई हर कोशिश का समर्थन किया जा सकता है। ऐसे समय में एक किताब बरबस ध्‍यान खींचती है, जिसका नाम ही है - जीवन संवाद । ‘डिप्रेशन और आत्‍महत्‍या’ के विरुद्ध यह किताब हमें मनुष्‍यता, प्रेम और अनुराग के पक्ष में मानो हाथ खींचकर चलने को कहती है। जीवन के पक्ष में आवाज बुलंद करने को कहती है।


‘जीवन संवाद’ हमारे भीतर चल रहे उन छोटे-छोटे सवालों से संवाद करती है, जिनसे हम खुद बचते रहते हैं। किताब हमें अंतर्मन की यात्रा पर ले जाती है, उन सुखों की याद दिलाती है, जिन्हें हमने भुला दिया है। घर, परिवार, पति-पत्नी, मित्र, स्वयं को भी प्रेम, स्नेह और आत्मीतय से दूर करते गए। यही दूरी, उदासी, अवसाद से आत्महत्या तक ले जाती है।


यह किताब बच्चों की परवरिश पर संवाद करते हुए कहती है, बच्चे आपसे हैं, आपके लिए नहीं हैं, वे आपके बच्चे हैं, संपति नहीं। यह किताब बार-बार आग्रह करती है कि बदलने के लिए जिंदा रहना जरूरी है। आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि जिसे आपके जीने से फर्क नहीं पड़ता, उसे आपके मरने से भी की अंतर नहीं पड़ेगा। जीना जरूरी है।

‘डिप्रेशन और आत्महत्या’ के विरुद्ध लगातार सक्रिय रहे दयाशंकर मिश्र मानते हैं, कि जीवन का कोई विकल्प नहीं । यह अविकल्‍पनीय है। जीवन को खत्म करने के फैसले का समर्थन किसी हाल में नहीं किया जा सकता। तभी तो उन्होंने उस वक्त भी सुशांत के फैसले के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखाई जब देश के अधिसंख्य लोग हतप्रभ होकर आत्महत्या के प्रति सहानुभूति दिखला रहे थे। ‘जीवन संवाद’ के अपने कॉलम में दयाशंकर ने लिखा – सुशांत के साथ कोई सहानुभूति नहीं! आत्महत्या चुनाव नहीं है। यह मनुष्यता की अवहेलना है। भूल गए करोड़ों मजदूरों को जो तरह - तरह के कष्ट सहते हुए, अटैची पर सोते बच्चे, पीठ और छाती से चिपके बच्चे लिए मुश्‍किल सफर पर हैं। श्रद्धा और सहानुभूति इनके साथ होनी चाहिए। जिनके भीतर संघर्ष का रस जिंदा है, उनके साथ खड़े होना है!
पेट की आग, भविष्य की अनिश्चितता लिए प्रवासी मजदूरों ने घुटने नहीं टेके हैं! सहा है! जीवन सहने से बनता है। धैर्य खोने से नहीं। अगर किसी को जीवन सीखना है तो उसे इन अप्रवासी मजदूरों की ओर देखना चाहिए। सुशांत की ओर नहीं।

दयाशंकर ने ‘डिप्रेशन और आत्महत्या’ के खिलाफ 2017 से अपना कॉलम ‘जीवन संवाद’ लिखना शुरू किया। इस कॉलम की सबसे बड़ी खूबी इसका हर दिन आना है। दयाशंकर आत्महत्या के खिलाफ लगातार खड़े हैं और जीवन के प्रति रुझान पैदा करने की उनकी कोशिशें असंदिग्ध हैं। उनकी टिप्पणियों का असर है कि उनके पास ऐसे लोगों के मेल लगातार आते हैं जो जीवन से निराश होने लगे हों। लोग अपनी समस्याएं भी उनसे साझा करते हैं और दयाशंकर पूरे धीरज के साथ ऐसे मेल का जवाब दिया करते हैं। जरूरत पड़ने पर फोन संपर्क भी बनाते हैं और निराशा के बादल छांटने की अनथक कोशिश करते हैं।

लॉकडाउन के इस दौर में जब कई लोगों के भीतर जीवन के प्रति अनाशक्ति और ऊब अपने चरम पर दिख रही है, दयाशंकर की बोलती टिप्पणियां उनमें जीवन का दूब बोने की कोशिश करती दिखती हैं।

वे अपने कॉलम में लॉकडाउन से उभरी समस्याओं पर लगातार लिख रहे हैं, जीवन जीने की कला सुझा रहे हैं, लोगों को उनकी वितृष्णा से उबार रहे हैं।

एक ऐसे दौर में जब राजनीतिक पार्टियां शांति की अपील भी हिंसक तरीके से कर रही हों, एक लेखक-पत्रकार बेहद शांत तरीके से जीवन से संवाद करने में लगा है। एक ऐसे समय में जब हिंसा को एक सामाजिक - राजनैतिक व्‍यवहार में सरलता से स्‍वीकार किया जाने लगा है। तब एक कलमकार दूसरों के जीवन में पैदा हुई निराशा दूर करने में जुटा है। यह वाकई मुश्किल काम है कि किसी के मन के अशांत और निराश हिस्से को आप अपनी बातों से शांत कर सकें, पर इस मुश्किल काम को दयाशंकर लगातार साधने की कोशिश में जुटे हैं।

पत्रकार-लेखक दयाशंकर की ऐसी ही कोशिशों का दस्तावेज है ‘जीवन संवाद’। पांच खंडों में सिमटे उनके इस संवाद-संग्रह को प्रकाशित किया है ‘संवाद प्रकाशन’ ने।

इस संग्रह में कुल 64 टिप्पणियां हैं। हर टिप्पणी के पहले चार से पांच पंक्तियों का एक इंट्रो है। हर इंट्रो को एक पन्ने की जगह दी गई है। मुमकिन है कि इन इंट्रो को पढ़ते हुए आपको लगे जैसे ये ‘आर्ष वचन’ या ‘आप्त वाक्य’ हैं। सच तो यह है कि जीवन का संदेश देने वाली ये प्रेरक पंक्तियां सूक्तियों की तरह लगती हैं। लेकिन जितनी सहज और सरल भाषा में ये पंक्तियां हैं, उनके लिए सूक्ति, आर्ष वचन या आप्त वाक्य जैसा विशेषण इस्तेमाल किए जाने से उनका स्वभाव दुरूह लगने लगेगा, उनकी भाषा क्लिष्ट होने का अंदेशा देगी।

बहरहाल, पहले खंड ‘जीने की राह’ में कुल 13 टिप्पणियां हैं। हर टिप्पणी जीवन के प्रति उम्मीद जगाती है। इस पहले खंड में सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ की भी चर्चा है। डाकू खड्गसिंह के धोखे की याद कुछ देर के लिए याद आती है, पर भरोसा बनाए रखने की बाबा भारती की कोशिश जेहन पर ज्यादा देर तारी रहती है। इस खंड से गुजरते हुए यह बात समझ में आती है कि हालात कितने भी बुरे हों, रास्ते कभी बंद नहीं होते। बस, जरूरत है खुद पर भरोसा रखने की। शैलेंद्र की पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर...’।

इसी पहले खंड में लेखक हमारा ध्यान हमारे उस दुख और तकलीफ की ओर खींचते हैं जो हमारा ही सृजित किया हुआ है। वह अपनी टिप्पणी ‘अतीत के धागे!’ में हमें खुद से सवाल करने को प्रेरित कर जवाब तलाशने को कहते हैं। सच तो यह है कि जबतक हम जवाब तलाशें, दयाशंकर का जवाब हमें रास्ता सुझाने लगता है। अपनी इस टिप्पणी में वे लिखते हैं - ‘हम किस बात से सबसे अधिक दुविधा, असहज, उलझे रहते हैं। खुद को सजगता से टटोलने पर उत्तर मिलता है, अतीत! अपने वर्तमान से तनिक भी असंतुष्ट होते ही हम अतीत के गलियारे में टहलने लगते हैं। अतीत के धागे कई बार मन से ऐसे उलझ जाते हैं कि जिंदगी की सुगंध, मुस्कान फीकी पड़ने लगती है। इसलिए अतीत को सजगता से संभालने की जरूरत है। अतीत की जुगाली से हम केवल अपनी पीड़ा को ही पुनर्जीवित करते रहते हैं। पुराने घाव को बार-बार सहलाने से हमें लगता है, वह ठीक हो रहा है, जबकि ऐसा न होकर वह हरा ही बना रहता है। उल्टे हम पुराने घाव से वर्तमान को घायल करते रहते हैं। इसलिए, हमें अपने अतीत का ठीक तरह से प्रबंधन जरूरी है। आइए, समझते हैं कि इसे कैसे किया जाए।

दयाशंकर लिखते हैं, हमें अतीत की उस पाइपलाइन को वर्तमान से पूरी तरह काटने की जरूर है, जो आज के जीवन में बाधा उत्पन्न कर रही है। यह आसान नहीं है, लेकिन थोड़े अभ्यास के साथ इसे हासिल किया जा सकता है। अतीत के पन्नों से जो अक्सर हवा के झोंकों से पलट कर वर्तमान में दखलअंदाजी करने लगते हैं, दृढ़ता से जीवन से दूर करने की जरूरत होती है। खुद के प्रति ईमानदारी, दृढ़ता और अपने बनाए हुए मूल्य पर टिके रहने से इसे सरलता से हासिल किया जा सकता है।

हमें अतीत से केवल उजाला भविष्‍य के आंगन में लेकर आना है। अंधेरा नहीं। दुख नहीं। थोड़ी सजगता से देखने पर आप पाएंगे कि ऐसा संभव ही नहीं कि सुख का एक पल अतीत में न हो। भले ही वह कितना ही छोटा टुकड़ा क्‍यों न हो। हमें अतीत से प्रेम और अनुराग लेकर वर्तमान को आनंदित करना होगा। हम अक्सर दूसरों के प्रति निर्मम, अपने प्रति उदार होते हैं। जबकि व्यक्तित्व निर्माण से लेकर मनुष्य बनने की प्रक्रिया तक इस नियम को पलटने की जरूरत है। अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार होने की दरकार है। जिन संबंधों में प्रेम और आत्मीयता की सघनता रही हो, उनसे अतीत की मुक्ति बहुत मुश्किल होती है। जैसे लहरों के भंवर में अच्छे-अच्छे नाविक घबराने लगते हैं, वैसे ही ऐसे संबंधों में अतीत बार-बार हमारे उजले वर्तमान पर अमावस्या का अंधेरा फेंकने में जुटा रहता है।’

जाहिर है हमारा अतीत हम पर कई बार इतना हावी हो जाता है कि वर्तमान हाशिये पर चला जाता है। जिन पलों में हमें जीना है, अगर उनसे ही हम किनारा कर लें, तो फिर जीवन, जीवन नहीं रह जाएगा, यातना बन जाएगा। और हमसब जानते हैं कि ऐसी यातना का अंत कभी भी सुखद नहीं होता। इसीलिए दयाशंकर हमें प्रेरित करते हैं कि ऐसे हर अतीत से खुद को काटो जो तुम्हारे वर्तमान को लील रहा हो, चाहे वह दुख भरा अतीत हो या खुशियों से लबरेज।  

दूसरे खंड ‘स्नेह’ में उन परिस्थितियों और वितृष्णाओं की चर्चा है जो अपनत्व की कमी के कारण पैदा होती हैं। इस खंड की पहली टिप्पणी में ही उन्होंने एक ऐसे माता-पिता की चर्चा की है, जिनके दोनों बेटे विदेश में रहते हैं। बीमार मां अपने बेटों की राह ताकते-ताकते देह त्याग देती हैं, पर मां की मौत के बाद भी बड़ा बेटा नहीं आ पाता। दूसरे बेटे से हुई बातचीत के बाद पिता को इतनी वितृष्णा हुई कि उन्होंने अपनी सारी संपत्ति अनाथालय को दे दी। ऐसी कई घटनाएं दर्ज हैं दयाशंकर की इन टिप्पणियों में, पर वह इन घटनाओं को महज घटना के तौर पर नहीं लेते, उनका विश्लेषण भी करते चलते हैं और एक नतीजे तक पाठकों को ले जाते हैं। राह सुझाते हैं। इस खंड की अपनी दूसरी टिप्पणी उन्होंने एक ईमेल पर की है। उन्होंने बताया कि कोई ईमेल उनके पास आया जिसे भेजने वाले ने साफ तौर पर कहा कि वह जीवन से बहुत परेशान हैं और आत्महत्या जैसा ख्याल भी मन में आता है। इस ईमेल के जवाब में दयाशंकर ने उनसे कुछ बातें साझा कीं।

वे बातें उन्होंने अपनी टिप्पणियों के संग्रह ‘जीवन संवाद’ में भी पाठकों से साझा कीं। मुझे लगता है कि वे बातें इतनी महत्त्वपूर्ण हैं कि उसे यहां जस का तस आपके सामने भी रखना चाहिए। उन्होंने मेल के जवाब में लिखा –

1. जिसे आप जीवित रहकर नहीं बदल सकते, उसे जीवन देकर नहीं बदला जा सकता। आपके जीवित रहने से जिन्हें फर्क नहीं पड़ता, उन्हें मरने से भी अंतर नहीं पड़ेगा। इसलिए इन बातों पर 'मरना' स्थगित कीजिए।
2. किसी को भी खुद को दुखी करने की अनुमति नहीं देना। ऐसे लोग बड़ी संख्या में आपकी तरफ ऐसी चीजें उछालते रहते हैं, जिनसे आपके मन पर नकारात्मक असर पड़ता है। मन को इनकी छाया से बचाने के लिए अपने मन की दीवारों पर यह बोर्ड टांग दीजिए कि मुझे मेरी अनुमति के बिना कोई दुखी नहीं कर सकता। किसी को भी सुखी करने के मुकाबले दुख देना बहुत सरल है।

अपनी इसी टिप्पणी के अंत में वह लिखते हैं – ‘मैं एक छोटी सी बात, अपने ही जीवन से साझा करता हूं। मेरे एक मित्र ने सोशल मीडिया पर कुछ ऐसा लिखा जिसकी अपेक्षा नहीं थी। पहले मुझे भी अच्छा नहीं लगा। लेकिन जब इस 'दुखी नहीं करने की अनुमति' वाले नियम से इसे समझा तो सब कुछ साफ हो गया। किसी दूसरे की मूर्खता, असहिष्णुता, नकारात्मकता को अपने जीवन से दूर रखना सरल नहीं है। मुश्किल है, लेकिन थोड़े अभ्यास, अनुशासन और आत्म चिंतन से दुख को संभालने की कला सीखी जा सकती है।’

इसी खंड में एक टिप्पणी है ‘मन की काई!’ अपनी इस टिप्पणी में दयाशंकर ने पूर्वग्रहों के बनने की प्रक्रिया और उसके असर की चर्चा की है। वे मानते हैं कि दूसरों की कही-सुनी बातों से किसी के बारे में कोई धारणा बना लेना आपके अपने लिए घातक होता है। वे लिखते हैं ‘हम अक्‍सर ही अनजाने में एक-दूसरे को लेकर अपनी राय बनाते रहते हैं। बिना मिले, जाने। छोटी सी मुलाकात के बाद। दूसरों के अनुभव को आधार बनाकर हम दिमाग में खास तरह की छवि का निर्माण करते रहते हैं। इससे व्‍यक्ति विशेष के लिए अंतर्मन में कटुता की काई जमती रहती है। काई वैसे तो खतरनाक नहीं होती, लेकिन अगर उस पर थोड़ी भी असावधानी से पैर पड़ जाए तो गंभीर चोट से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए, मन की सफाई करते रहना जरूरी है। ऐसा नहीं करने पर शरीर के साथ मन को गंभीर चोट लगने का खतरा बना रहता है।

हम जब भीतर ही भीतर कुछ बुनते रहते हैं, तो मन के भीतर काई जमना स्‍वाभाविक है। इसके सहज उदाहरण हमारे गली, मोहल्‍ले, घर, ऑफि‍स तक में मिल जाएंगे। हम लोगों को उनके गुण, व्‍यवहार के आधार पर नहीं चुनते, बल्कि अपनी पसंद के आधार पर उनका मूल्‍यांकन करते रहते हैं। इसका असर लोगों के लिए अपने मन में छवियां बना लेने के रूप में होता है। यह छवि निर्माण हमारे अंतर्मन के लिए हानिकारक है, क्‍योंकि जब हम ऐसे लोगों से मिलते हैं तो उनके सामने हम कुछ कहते नहीं। बल्कि बाहर तो हम उनकी सराहना करते दिखते हैं। दिखना चाहते हैं। जबकि मन में सबकुछ इसके उलट चल रहा है। इसलिए भीतर घुटन, गुबार बढ़ता जाता है, क्‍योंकि ऐसी बातें आप दूसरों से साझा नहीं करते। इनका कोई ठोस उत्‍तर आपके पास नहीं होता। यह मन के भीतर घटने वाली इतनी धीमी प्रक्रिया है कि सहज ही पकड़ में नहीं आती।’

जाहिर है इस धीमी प्रक्रिया को हमें पकड़ना ही होगा। किसी के बारे में कही-सुनी बातों से कोई राय बनाने से पहले हमें अपने मन को टटोलना होगा। कभी किसी के बारे में कही-सुनी बातों की कोई काई हमारे भीतर जमी है, कोई पूर्वग्रह बना है तो उसकी सफाई बेहद जरूरी है।    

इस संग्रह का तीसरा खंड है- रिश्ते। इस खंड से गुजरते हुए यह बात समझ में आती है कि अगर जीवन में रिश्ते निभाने हैं तो कुछ चीजों का हिसाब-किताब भूलना बहुत जरूरी है। दयाशंकर मानते हैं कि जीवन नदी की तरह होता है, वह बांध नहीं होता। इस जीवन में प्रेम की धारा बहती रहनी चाहिए, बांध के पानी की तरह स्थिर रहने से पानी कसैला हो जाएगा। नदी की तरह बहता रहेगा तो पानी स्वच्छ रहेगा। जीवन में प्रेम बना और बचा रहेगा। इस स्नेह की बारीकी इस बात से समझी जा सकती है कि कुछ लोग जीवन होते हैं, यह अलग बात है कि हमारे जीवन में नहीं होते। इसी तरह की बात दयाशंकर की टिप्पणियों में नजर आती है कि हमारे रिश्तों के बीच कई ऐसे तत्त्व होते हैं, जिनकी भूमिका हमारे प्रेम में महत्त्वपूर्ण होती है, यह अलग बात है कि वे तत्त्व सामने नहीं होते, हमारे जीवन में नहीं होते। रिश्ते संवारना एक कला है। इस कला के लिए त्याग की दरकार होती है। बुरे को भूल जाने का संयम भी जरूरी है। धीरज तो खैर अनिवार्य है ही। दयाशंकर की टिप्पणियों से एक खास बात यह उभरती है कि प्रेम बचाए और बनाए रखने के लिए संवाद बने रहना चाहिए। वह मैनेजमेंट के एक पाठ की चर्चा करते हैं, जिसका सार-संक्षेप यह है कि जो लोग नजरों से दूर रहते हैं, उसे नजर से उतरने में भी वक्त नहीं लगता। मैनेजमेंट के इस पाठ के जरिए दयाशंकर जीवन में स्नेह के उस तत्त्व को पकड़ते नजर आते हैं, जिससे वह हर हाल में बचा रहे। वह लिखते हैं – ‘…अब परिवार छोटी-छोटी इकाइयों में बंटकर देश-दुनिया में फैल गए हैं। परिवार के प्राथमिक सदस्य पति-पत्नी और बच्चे हैं। माता-पिता के साथ रहने का चलन घट रहा है। भाई-बहन तक के बीच संवाद की कमी से ‘स्नेह की नदी’ उथली होती जा रही है। क्योंकि हर परिवार अपने रोजमर्रा की चीजों को ही पूरा करने में जुटा है। ऐसे में संयुक्त परिवार की छोटी-छोटी यूनिटें एक होते हुए भी एक-दूसरे से दूर हैं। मैनेजमेंट की पाठशाला का जरूरी पाठ है, ‘जो नजरों से दूर रहता है, उसे ‘नजर’ से उतरने में अधिक वक्त नहीं लगता।’

हमें रिश्ते की याद अक्सर जरूरत के वक्त आती है। जाहिर है, ऐसे में आपको मदद की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि आपने उन रिश्तों को अनजाने में ‘कचरे की टोकरी’ में डाल दिया था।

हमसब वे सारे काम हर दिन करते हैं, जिनसे नौकरी, जिंदगी चलती है, लेकिन कुछ ऐसे छोटे-छोटे कदमों के लिए भी हमें हर दिन वक्त देना चाहिए, जो जीवन की आधारशिला हैं। इनसे जीवन का बगीचा हरा-भरा रहता है। कितने भी व्यस्त रहें, अपनी ‘नजर’ से दूर रहने वालों से किसी भी एक माध्यम से संपर्क में जरूर रहें।’

जाहिर है, दयाशंकर अपनी टिप्पणियों के माध्यम से हमें जीवन के कुछ ऐसे सूत्रों की याद दिलाते चलते हैं जिन्हें हमने अपनी नजर से ओझल हो जाने दिया है। उनकी टिप्पणियां हमसे अपने आंख और दिमाग के साथ-साथ दिल खोलने का भी आग्रह करती नजर आती हैं। वह बताना चाहते हैं कि हमें अपनी बात साझा करने से न तो संकोच होनी चाहिए, न शर्म। हमें रिश्तों के प्रति भरसक ईमानदार होने की जरूरत है। आज हम निजी हितों को साधने के लिए छोटे-छोटे लालच में उलझ कर रिश्तों की डोर उलाझा लेते हैं, इन डोरों को सुलझाने की जरूरत है। रिश्ते आपका मनोबल होते हैं, जीवन के प्रति आश्वस्त करते हैं, आपके भीतर जीवन का मोह बनाए रखते हैं।

इसी तरह चौथे और पांचवें खंड में आप पाएंगे कि लेखक के पास दूसरों को धैर्य से सुनने की कला है, साथ ही पत्रकार होने के नाते अपने वक्त की नब्ज पर पकड़ भी। इसी का नतीजा है कि वह क्रेडिट कार्ड से लेकर आर्थिक तौर-तरीकों पर भी समाज को सतर्क-सावधान करते चलते हैं। उन्होंने अपनी टिप्पणियों में कई लोगों के अनुभव भी शामिल किए हैं। रिश्ते बनाए और बचाए रखने के हरसंभव जतन सुझाए हैं। घर, परिवार और समाज के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत बताई है। उनकी बेशकीमती सलाह है कि हम सभी को अपने भीतर रिश्ते बचाए रखने चाहिए। अपनी संवेदनाओं को कुंद नहीं पड़ने देना चाहिए। हमें चाहिए कि हम किसी ‘पीयर प्रेशर’ में न रहें। अपने दोस्तों की उदासी और खुशी में शरीक रहे। अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें। आत्ममुग्ध होते जा रहे समाज से इनकी टिप्पणियां बार-बार टकराती हैं और आत्ममुग्धता की जंजीरों को तोड़ने की भरसक कोशिश करती हैं।

कहने को जीवन संग्रह टिप्पणियों का संग्रह है, पर इसकी भाषा में जो तरलता है, विषय में जो आत्मीयता है वह इन टिप्पणियों को कविताओं के करीब ले जाती है। इन्हें और पठनीय बनाती हैं। पर ऐसा नहीं कि भाषा की तरलता के चक्कर में कहन कमजोर पड़ा हो। दयाशंकर अपनी हर टिप्पणी में अपनी बात पुख्ता तरीके से रखते नजर आते हैं। जीवन के प्रति प्रेम जगाते नजर आते हैं और आत्महत्या जैसे अपराध के खिलाफ जिरह करते नजर आते हैं। वह मानते हैं कि आत्महत्या करना जीवन की हर संभावना का अंत कर देना है। आपका यह अंत आपको या आपके आसपास को कोई सुखद पल नहीं देता, किसी समस्या का समाधान नहीं करता।

संभव है अपनी सहज और सरल भाषा के कारण ही इस वेबसीरीज को इंटरनेट पर एक करोड़ से ज्यादा बार पढ़ा जा चुका है। सच है कि इसे पढ़ने के दौरान निधि सक्सेना की यह बहुचर्चित कविता बार-बार याद आती रही...

आ गए तुम!!
द्वार खुला है
अंदर आ जाओ..

पर तनिक ठहरो
ड्योढी पर पड़े पायदान पर
अपना अहं झाड़ आना..

मधुमालती लिपटी है मुंडेर से
अपनी नाराज़गी वहीँ उड़ेल आना ..

तुलसी के क्यारे में
मन की चटकन चढ़ा आना..

अपनी व्यस्तताएं बाहर खूँटी पर ही टाँग आना
जूतों संग हर नकारात्मकता उतार आना..

बाहर किलोलते बच्चों से
थोड़ी शरारत माँग लाना..

वो गुलाब के गमले में मुस्कान लगी है
तोड़ कर पहन आना..

लाओ अपनी उलझने मुझे थमा दो
तुम्हारी थकान पर मनुहारों का पँखा झल दूँ..

देखो शाम बिछाई है मैंने
सूरज क्षितिज पर बाँधा है
लाली छिड़की है नभ पर..

प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर चाय चढ़ाई है
घूँट घूँट पीना..

सुनो इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना....

संग्रह का नाम : जीवन संवाद
लेखक : दयाशंकर मिश्र
प्रकाशक : संवाद प्रकाशन
मूल्य : 300 रुपए
 

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