नताशा डिडी: पेट नहीं है पर, खाना ही इनकी पहचान है
मुंबई की नताशा डिडी को खाने-पीने का इतना शौक था कि उन्होंने खाने-पीने की दुनिया में ही अपना करियर बनाने का निर्णय लिया। होटल प्रबंधन की पढ़ाई कर 1995 में अपने करियर की शुरुआत की। शादी के बाद दिल्ली...
मुंबई की नताशा डिडी को खाने-पीने का इतना शौक था कि उन्होंने खाने-पीने की दुनिया में ही अपना करियर बनाने का निर्णय लिया। होटल प्रबंधन की पढ़ाई कर 1995 में अपने करियर की शुरुआत की। शादी के बाद दिल्ली आईं और यहां भी कई होटल और रेस्टोरेंट में काम किया। लेकिन दिल्ली में निजी जीवन में आए संघर्ष से सेहत बिगड़ गई। एक समय बाद उन्हें पेट की बीमारी की वजह से पेट गंवाना पड़ा।
संघर्ष से भरी शुरुआत
नताशा 1998 में पति के साथ दिल्ली आ गई। यहां भी नौकरी करने लगीं, लेकिन दिल्ली में जिंदगी ठीक नहीं चल रही थी। पति के साथ तालमेल ठीक से नहीं बैठ पा रहा था। संघर्ष काफी बढ़ गया था। बहुत सारी दिक्कतों के बाद अंतत: उन्हें अपने पति से अलग होने का निर्णय लेना पड़ा और 2005 में उनसे अलग हो गईं।
नए जीवनसाथी का साथ
उन दिनों वे स्वीडन दूतावास में काम कर रही थीं। वहीं स्वीडिश ट्रेड कमिशन था, जहां बेंक्त जोहान्सन कमिश्नर थे। नताशा बताती हैं, उनसे परिचय बढ़ा और फिर हमने शादी कर ली। 2012 में हम पुणे में आ गए क्योंकि बेंक्त ने पुणे में एक नई कंपनी ज्वाइन कर ली थी। दिल्ली में खाने-पीने में हुई लापरवाही ने मेरे पेट के लिए परेशानी पैदा कर दी थी। शादी के लगभग दो साल बाद ही तकलीफ शुरू हो गई, जिसके उपचार के लिए देश ही नहीं, विदेशों में भी काफी डॉक्टरों को दिखाया। लेकिन तकलीफ से राहत नहीं मिल पा रही थी। मेरा वजन 88 किलोग्राम था, जो बीमारी के बाद सिर्फ 38 किलोग्राम रह गया था, लेकिन बेंक्त ने खूब हौसला दिया।
मिला दूसरा जीवन
पुणे आने के बाद वे स्थानीय केईएम हॉस्पिटल में काम करने वाली एक आंटी के कहने पर उनके हॉस्पिटल गई। वहां उन्हें डॉ. सूर्यभान भालेराव मिले, जिन्होंने उनकी बीमारी पकड़ ली। बकौल नताशा,‘ मेरे पेट में दो-दो अल्सर और एक ट्यूमर था। उन्होंने मेरे मम्मी-पापा और पति को बताया कि इसे बचाने के लिए इसका पेट बाहर निकालना पड़ेगा। आठ घंटे के ऑपरेशन के बाद मेरा पेट बाहर निकाल दिया गया। नौ दिन बाद जब मेरे खाने-पीने का समय आया तो मुझे बताया गया कि मैं पहले की तरह नहीं खा सकती। मुझे एक बार में ब्रेड स्लाइस के आधे टुकड़े के बराबर खाना खाने की इजाजत थी। यानी 38 साल की उम्र में मुझे फिर से खाना सीखना था।’
जरूरी है परिवार का साथ
बुरे वक्त में कुछ कठोर निर्णय भी लेने पड़ते हैं, जिसके लिए परिवार का साथ भी जरूरी होता है। वे बताती हैं, मुझे इसके लिए कठिन निर्णय लेना पड़ा और नकारात्मक सोच वाले लोगों को अपनी जिंदगी से बाहर करना शुरू किया। मेरे मम्मी-पापा और पति पूरी तरह मेरे साथ थे, इस वजह से ऐसे लोगों की परवाह करने की मुझे कभी जरूरत महसूस नहीं हुई।
भारतीय खाने का महत्व
भारतीय खाने का महत्व बताने के लिए मैंने फूड ब्लॉलिंग का काम शुरू किया, ताकि पुणे जैसे छोटे शहर से भी अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचा पाऊं। फेसबुक पर ग्रुप बनाया, इंस्टाग्राम पर लोगों ने पसंद किया। खासकर खाने के शौकीन लोगों को यह बताने की कोशिश करती हूं कि कैसे अच्छे से खाएं, घर के खाने से शरीर के लिए बेहतर पोषण पाएं। इंस्टाग्राम पर नताशा का ३ँीॠ४३’ी२२ऋङ्मङ्म्िरी नाम से एकाउंट है, जहां उनके 46 हजार से ज्यादा फॉलोअर है।
दोबारा सीखना पड़ा खाना
‘मुझे डायबिटीज के रोगी की तरह खाना खाना पड़ता है और चीनी खाने की इजाजत नहीं है। खाने में कभी-कभी मनमानी करती हूं तो खिचड़ी खा लेती हूं, दाल-चावल खा लेती हूं। मैं शाकाहार ज्यादा खाती हूं और सूप, जूस आदि को अपने भोजन में शामिल करती हूं। खाने के बारे में शोध करते-करते मैंने यह सीखा है कि भारतीय खाना सबसे अच्छा है। इन खानों के साथ प्रयोग करते-करते और बिना पेट के पांच सालों से सेहतमंद तरीके से जीते हुए मैंने यह भी सीखा कि किसी भी मुश्किल में जीना नहीं छोड़ना चाहिए।’