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तलवारबाजी की महारथी भवानी की अनूठी कहानी

जब इरादे मजबूत होते हैं, तो सपनों को पूरा करना मुश्किल नहीं लगता। यह सिर्फ कहने-सुनने की बातें नहीं हैं, बल्कि सच्चाई है। युवा खिलाड़ी भवानी देवी एक ऐसी ही महिला हैं। वो न सिर्फ अपने आप में मिसाल बन...

तलवारबाजी की महारथी भवानी की अनूठी कहानी
हिन्दुस्तान फीचर टीम,नई दिल्लीWed, 04 Apr 2018 11:47 AM
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जब इरादे मजबूत होते हैं, तो सपनों को पूरा करना मुश्किल नहीं लगता। यह सिर्फ कहने-सुनने की बातें नहीं हैं, बल्कि सच्चाई है। युवा खिलाड़ी भवानी देवी एक ऐसी ही महिला हैं। वो न सिर्फ अपने आप में मिसाल बन चुकी हैं बल्कि लाखों युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत भी हैं। फेंसिंग के खेल में वह इस बात का प्रतीक हैं कि किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना महिलाओं के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शोर मचाने की जरूरत नहीं है, बल्कि अपने हुनर और हौसलों पर विश्वास रखने की जरूरत होती है।

स्कूल के दिनों से खेल की शुरुआत
चेन्नई के मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी भवानी के पिता एक पुजारी है और मां गृहिणी। भवानी ने 2003 में फेंसिंग में अपना करियर बनाना शुरू किया। स्कूली शिक्षा के दौरान ही फेंसिंग (तलवारबाजी) के प्रति उनका रुझान बढ़ने लगा था। दसवीं पास करने के बाद उन्होंने भारतीय फेंसिंग कोच सागर लागू से प्रशिक्षण लेना शुरू किया। यहां यह जानना दिलचस्प है कि फेंसिंग भारत में कोई बहुत प्रचलित खेल नहीं है। ऐसे में मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी भवानी के पास न तो कभी उचित संसाधन रहे और न ही इतना पैसा रहा कि वह ढंग की कोचिंग ले सकें। इस खेल में आगे बढ़ना उनके लिए लगभग असंभव सा था। भवानी हमेशा से ही पढ़ाई में औसत थी। अपने पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी भवानी के घर का गुजारा बड़ी मुश्किल से चल पाता था, लेकिन उनके माता-पिता हमेशा से चाहते थे कि उनके बच्चे अपनी जिंदगी में नाम कमाएं। यही वजह है कि आज इस मुकाम पर पहुंचने के बाद भवानी अपनी सफलता का सारा श्रेय अपने माता-पिता को देती हैं। 

संघर्ष भी किया खूब
सन 2008 में कोरिया में हुई सीनियर एशियन चैंपियनशिप में भाग लेने के लिए भवानी के पास पैसे नहीं थे, तब मुख्यमंत्री जयललिता ने खुद बुलाकर एक चेक भेंट किया और तब से आज तक भवानी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। तब से लेकर अब तक वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 12 से अधिक मेडल अपनी झोली में डाल चुकी हैं। अपने करियर के शुरुआती दौर में भवानी चेन्नई के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में डंडियों की मदद से बैडमिंटन कोर्ट में फेंसिंग की प्रैक्टिस किया करती थीं, क्योंकि तलवार (फेंसिंग) को टूर्नामेंट के लिए सुरक्षित रखना जरूरी था। वो आज भी प्रैक्टिस के लिए सस्ती तलवारों का प्रयोग करती हैं और अच्छी क्वालिटी की यूरोपियन तलवारें अपने मैचों के लिए सुरक्षित रखती हैं। 
यह भवानी की मेहनत का ही नतीजा है कि विश्व में फेंसिंग रैकिंग में वह 57 नंबर पर आती है। उनके संदर्भ में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि 14 साल की उम्र में उन्हें पहली बार तुर्की में हो रहे अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में हिस्सा लेने का मौका मिला, लेकिन 3 मिनट लेट हो जाने की वजह से उन्हें ब्लैक कार्ड दे दिया गया। इसके बाद 2009 से लेकर 2015 तक भवानी ने विभिन्न देशों जैसे मलेशिया, फिलिपीन्स, मंगोलिया, इटली और बेल्जियम में अलग-अलग स्तर की चैम्पियनशिप में भाग लिया और अपने खाते में कई कांस्य और रजत पदक डाले। लेकिन सफलता की गाथा यहीं खत्म नहीं हुई। 2015 में वो उन 15 टॉप एथलीट्स में शामिल हुईं, जिन्हें राहुल द्रविड़ एथलीट मेंटोरशिप प्रोग्राम के लिए चुना गया था। इसके बाद अपनी मेहनत के ही दम पर ही हाल ही में देश के नाम पहला गोल्ड मेडल जीता। 

महंगा खेल है यह
यहां यह जानना जरूरी है कि फेंसिंग एक बहुत महंगा खेल है। इसमें इस्तेमाल होने वाली खेल सामग्री और कोचिंग का खर्च सालाना लाखों रुपये है, जिसका वहन करना किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है। हालांकि फेंसिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया खिलाड़ियों के टूर्नामेंट के खर्चे उठाने की कोशिश करती है, लेकिन वह नाकाफी होता है। पर, इस तरह की बातों से भवानी के हौसले कभी कम नहीं हुए।

रोमांचक रहा है यह सफर
अपनी विदेश यात्रा का एक बेहद रोमांचक संस्मरण याद करते हुए वह बताती हैं, ‘साल 2010 की बात है। हमारा टूर्नामेंट मनीला में था, जहां हम एक बहुत बड़े होटल में ठहरे थे। मैं बहुत डरी हुई थी, क्योंकि मैं पहली बार देश से बाहर कहीं आयी थी और ऐसे माहौल की आदी नहीं थी। मैं अपने कमरे में अकेली थी और मुझे बहुत तेज भूख लग रही थी और मैं सिर्फ इस डर से अपने कमरे से बाहर नहीं निकली कि कहीं मैं खो न जाऊं। थोड़ी देर बाद जब मेरे बाकी साथी मुझसे आकर मिले, तो मैं उन्हें देख कर खुशी के मारे रो पड़ी। चूंकि मैंने हमेशा से ही दक्षिण भारतीय खाना खाया था, इसलिए जब पहली बार मेरे सामने पास्ता आया, तो मैं समझ ही नहीं पायी थी कि इसे खाते कैसे हैं। लेकिन वो तब की बात थी। अब तो मैं दुनिया के हर कोने में जा सकती हूं और कुछ भी खा सकती हूं।’
 

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