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आतिशबाजी नहीं यहां लकड़ी जलाकर अनोखे तरीके से मनाई जाती है दिवाली

दिवाली जिसे गढ़वाल में बग्वाल भी कहा जाता है। गढ़वाल हो या कुमाऊं दिवाली उत्सव उत्तराखंड में जमकर मनाया जाता है। एक नहीं, बल्कि तीन दिन उत्तराखंड में दिवाली मनाई जाती है। यही नहीं यहां पुराने जमाने...

आतिशबाजी नहीं यहां लकड़ी जलाकर अनोखे तरीके से मनाई जाती है दिवाली
हिन्दुस्तान टीम,देहरादूनWed, 18 Oct 2017 04:56 PM
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दिवाली जिसे गढ़वाल में बग्वाल भी कहा जाता है। गढ़वाल हो या कुमाऊं दिवाली उत्सव उत्तराखंड में जमकर मनाया जाता है। एक नहीं, बल्कि तीन दिन उत्तराखंड में दिवाली मनाई जाती है। यही नहीं यहां पुराने जमाने से भैलो खेलने की भी परंपरा है, जो आज भी कई गांवों में जिंदा है।

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में दीपावली को मनाने का अलग अंदाज है। यहां दिवाली का उत्सव तीन दिन मनाया जाता है। कनिष्ठ बग्वाल, ज्येष्ठ बग्वाल और मझिली बग्वाल यहां मनाई जाती है। बड़ी दिवाली से 11 दिन बाद देवोत्थान (देवउठनी) एकादशी के दिन एक दिवाली मनाई जाती है, जिसे कई जगह ‘इगास-बग्वाल’ के नाम से जाना जाता है। 

अातिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा

उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली और रुद्रप्रयाग जिले के कई गांवों में आज भी आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण है। बग्वाल वाले दिन भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। रस्सी में चीड़ की लकडिय़ां की छोटी-छोटी गांठ बांधी जाती है। चीड़ की इस तेजी से जलने वाली लकड़ी को छिल्ले कहते हैं। इसके बाद सभी लोग गांव के किसी ऊंचे स्थान पर पहुंचते हैं। जहां भैलो को आग लगाई जाती है। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के आरिष्टों का निवारण करती हैं। यह भी मान्यता है कि गांव की खुशहाली एवं सुख-समृद्धि के लिए भैलो को गांव की चारों ओर में घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के छिल्ले भी जलाई जाते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप है।

मवेशियों को पींडा देकर करते हैं पूजा

दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता की पूजा भी होती है। तीन दीपावली के दिन सुबह से ही घर में स्वाले और दाल के पकौड़े बनते हैं। गोशाला में जाकर पहले गोवंश के सींगों पर सरसों का तेल लगाते हैं और फिर उनका तिलक कर पींडो (विशेष तरह का पशुआहार) खिलाते हैं। दिन के वक्त कलेऊ (स्वाले-पकौड़े) गांवभर में बांटा जाता है। आपको यह भी बता दें कि दीपावली के दो दिन पहले जंगल जाकर छिल्ले (चीड़ की तेजी से जलने वाली लकड़ी) ग्रामीण लाते हैं। छोटी दीपावली के दिन छिल्लों को धूप में सूखाकर इनकी छोटी-छोटी गठरी बनाई जाती है, जिसे तार या रस्सी से बांधा जाता है।

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