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पंडित नैन सिंह रावत की डायरी राहुल सांकृत्यायन ने राष्ट्रपति से आग्रह कर राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखवाई

जिस महान सर्वेयर पंडित नैन सिंह रावत की जयंती पर गूगल ने आज अपना डूडल बनाया है। उनका शुरूआती जीवन बड़े अभावों और संघर्षों भरा रहा। उन्होंने चरवाहे से एक अंग्रेज के नौकर व शिक्षक के रूप में काम किया।...

पंडित नैन सिंह रावत की डायरी राहुल सांकृत्यायन ने राष्ट्रपति से आग्रह कर राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखवाई
जहांगीर राजू,हल्द्वानीSat, 21 Oct 2017 06:12 PM
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जिस महान सर्वेयर पंडित नैन सिंह रावत की जयंती पर गूगल ने आज अपना डूडल बनाया है। उनका शुरूआती जीवन बड़े अभावों और संघर्षों भरा रहा। उन्होंने चरवाहे से एक अंग्रेज के नौकर व शिक्षक के रूप में काम किया। राहुल सांकृत्यायन ने नैन सिंह की डायरी के महत्व को जानते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद से उनके संरक्षण का आग्रह किया था। जिसके बाद उन्हें राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली में रखा गया।

पंडित नैन सिंह रावत की डायरी पर विशेष अध्ययन करने वाले इतिहासकार डॉ.प्रयाग जोशी बताते हैं कि 21 अक्तूबर 1831 को पिथौरागढ़ जिले की मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में पैदा हुए नैन सिंह का शुरूआती जीवन बड़ा संघर्ष भरा रहा। उनका बचपन बड़ी गरीबी में पला। 28 वर्ष की उम्र तक उन्होंने हर रोज रोटी के लिए संघर्ष किया। जिसके बाद वह चमोली जिले के अंतिम गांव माणा चले गए। जहां अमरदेव की बेटी उमती से उनका विवाह हुआ। तीन साल तक माणा में रहने के बाद वह मुनस्यारी वापस लौट आए। जहां से फिर उनकी रोजी-रोटी का संघर्ष शुरू हुआ। दादा से 600 रुपये कर्ज लेकर उन्होंने तिब्बत जाकर जानवरों, व भेड़ों को बेचने का कारोबार शुरू किया,लेकिन तिब्बत से यहां पहुंचने तक अधिकांश जानवर मर गए। मुनस्यारी पहुंचने तक 6 जानवर ही बजे। जिससे वह अपने दादा का कर्ज तक नहीं चुका सके। जिसके बाद उन्होंने स्थानीय व्यापारियों के नौकर के रूप में तिब्बत व्यापार में हिस्सा लिया।

जर्मन सर्वेयर के साथ 8 माह तक किया काम:

एक दिन बागेश्वर से रामनगर आते वक्त उन्हें पता चला की जर्मन स्लोडन क्वाइट्स ब्रदर्स मैगनेटिक सर्वे करने के लिए भारत आ रहे हैं। जिसके बाद वह अपनी गांव के मानी कंपासी व डोलपा के साथ अंग्रेज शासक रैमजे से मिलने हल्द्वानी आ गए। रेमजे ने उन्हें 100 रुपये देकर शिमला भेज दिया। जहां जर्मन भाईयों ने इन तीनों लोगों के साथ मिलकर दो ग्रुप में अलग-अलग रास्तों से तिब्बत के सर्वे के लिए अभियान शुरू किया। 8 माह तक चले अभियान के बाद 1857 का गदर शुरू हो गया। जिसके बाद सर्वे को रोक दिया गया।

हेनरी स्टैची ने दिलाई शिक्षक की नौकरी:

1858 में नैन सिंह रावत ने कपकोट में अंग्रेज हेनरी स्टैची से मुलाकात की। जिसके बाद उन्होंने इस अंग्रेज के नौकर के रुप में उसे पिंडारी ग्लेशियर की सैर करायी। इस दौरान अल्मोड़ा में लौटते वक्त हेनरी की सिफारिश पर नैन सिंह को मिलम गांव में खुले प्रायमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई। दो साल तक इस स्कूल में नौकरी करने के बाद उनका दारमा घाटी के एक स्कूल में स्थानांतरण कर दिया गया। जहां तीन साल तक उन्होंने नौकरी की।

रैमजे ने सर्वे ऑफ इंडिया में दिलाई नौकरी:

1883 में अंग्रेस शासक रैमजे ने नैन सिंह रावत सर्वे ऑफ इंडिया में ट्रेनिंग करने के लिए हल्द्वानी बुला लिया। जिसके बाद उन्हें देहरादून भेज दिया गया। दून में रहकर उन्होंने सर्वे की वैज्ञानिक तकनीक को सीखा। सर्वे ऑफ इंडिया में 10 वर्षों तक रहते हुए उन्होंने 4 अभियानों में हिस्सा लिया।

चार सर्वे अभियानों से तिब्बत को नापा:

उनका पहला अभियान तिब्बत में सर्वे के लिए काठमांडू से लहासा तक चला। दूसरा अभियान लहासा से लेकर कैलास मानसरोवर तक चला। तीसरा अभियान थोक ज्यालूंग से लद्दाख चक चला। उनका चौथा व अंतिम सर्वे अभियान लेह लद्दाख से यामयूरू तक चला। तिब्बत में मौजूद सोने की खानों का पता लगाने के लिए अंग्रेजों ने यह सर्वे कराया था। चारों अभियान के दौरान नैन सिंह रावत ने वहां के नक्शे, रास्तों व मौसम का अध्ययन के साथ ही क्षेत्र की लंबाई तक को नाप डाला। उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए सर्वे आफ इंडिया के लंदन स्थित दफ्तर ने उन्हें सम्मानित किया। नैन सिंह की याद में सर्वे आफ इंडिया के देहरादून स्थित दफ्तर में सभागार भी बनाया गया है।

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