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हिन्दी दिवस 2018:अंग्रेजी वाले मानते हैं हिन्‍दी में अभिव्‍यक्ति आसान

12 सितम्बर 2017 को दोपहर 12:30 बजे का वक्त। गोरखपुर विश्वविद्यालय के कला संकाय की पहली मंजिल से सीढ़ियां उतरता अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थियों का एक समूह। ऊपर डिपार्टमेंट की एक क्लास के बाहर बीए...

हिन्दी दिवस 2018:अंग्रेजी वाले मानते हैं हिन्‍दी में अभिव्‍यक्ति आसान
अजय कुमार सिंह ,गोरखपुर Thu, 13 Sep 2018 06:51 PM
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12 सितम्बर 2017 को दोपहर 12:30 बजे का वक्त। गोरखपुर विश्वविद्यालय के कला संकाय की पहली मंजिल से सीढ़ियां उतरता अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थियों का एक समूह।

ऊपर डिपार्टमेंट की एक क्लास के बाहर बीए फर्स्ट इयर की ही सुष्मिता, प्रिया, नम्रता, संवेदना और शाम्भवी अगली क्लास शुरू होने का इंतजार कर रही हैं। अंग्रेजी साहित्य  के ये सारे विद्यार्थी हिन्दी माध्यम के स्कूलों से यहां पहुंचे हैं। उनके बीच संवाद का माध्यम हिन्दी ही है। थोड़ी देर की बातचीत में साफ हो जाता है कि सिर्फ संवाद ही नहीं सोचने की पूरी प्रक्रिया भी हिन्दी ही है।

साहित्य अंग्रेजी, लेकिन उसे समझने की पूरी प्रक्रिया हिन्दी। प्रिया के मुताबिक यही सहज, सरल है और स्वाभाविक भी। सुष्मिता कहती हैं, ‘बुक में अंग्रेजी के ढेर सारे ऐसे शब्द हैं जिन्हें हिन्दी में समझे बगैर आगे नहीं बढ़ सकते। पोएट्री के मामले में यह थोड़ा और मुश्किल होता है।’ बीए थर्ड इयर के सिद्धार्थ गौतम कहते हैं, ‘अंग्रेजी हमें अच्छी लगती है। यह समाज में प्रतिष्ठा दिलाती है लेकिन हिन्दी के बिना इसे पढ़ा नहीं जा सकता। इसलिए हिन्दी माध्यम से आये ज्यादातर विद्यार्थियों के बीच वही गाइड्स लोकप्रिय हैं जो हिन्दी के जरिये अंग्र्रेजी की जटिलता को आसान बना दें।’

अंग्रेजी के प्रोफेसर और कुछ साल पहले नेट क्लासेस के समन्वयक रहे प्रो.अजय शुक्ल बताते हैं, ‘हमारे यहां 70 प्रतिशत विद्यार्थी हिन्दी माध्यम के स्कूलों से हैं। क्लास में संवाद का माध्यम पूरी तरह अंग्रेजी हो तो वे सहज नहीं हो पाते। ऐसे विद्यार्थियों  को भाषा में सहज बनाने के लिए तरह-तरह से प्रेरित करने की जरूरत पड़ती है।’

2011 के पहले तक नेट में गोरखपुर-बस्ती मंडल से सफल होने वाले अंग्रेजी के विद्यार्थियों की संख्या बेहद कम थी लेकिन तीनों प्रश्नपत्रों के बहुविकल्पीय होने के बाद अच्छी तादाद में इस क्षेत्र के विद्यार्थी भी सफल होने लगे। प्रो.शुक्ल कहते हैं, ‘हमारे यहां मेधा की कोई कमी नहीं। दिक्कत सिर्फ भाषा के स्तर पर थी जो व्याख्यात्मक प्रश्नपत्र  होने पर अभिव्यक्ति और प्रस्तुतिकरण के मामले में बाधक बन जाती थी।’

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बढ़ रही है सहज-सरल हिन्दी

गोरखपुर विश्वविद्यालय के दूसरे कोने पर ‘हिन्दी एवं आधुनिक भाषा तथा पत्रकारिता विभाग’। 12 सितम्बर को पूर्वाह्न 11:30 बजे। प्रो.रामदरश राय के कमरे में हिन्दी दिवस के आयोजनों पर बात चल रही है। वहां मौजूद प्रो.अनिल राय का विचार है कि हिन्दी और अन्य मानविकी विषयों के शिक्षक इस बात का विरोध करें कि जब कम्प्यूटर में यूनिकोड के जरिए देवनागिरी लिपि को प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी है तो फिर विश्वविद्यालय अपने आवेदनों में द्विभाषीय सुविधा देने की बजाये सिर्फ अंग्रेजी की अनिवार्यता क्यों किये हुए है। वह कहते हैं कि सरकार और संस्थायें हिन्दी की परवाह नहीं कर रहीं। यह काम बाजार ने ज्यादा किया है। 

आजादी के बाद हिन्दी को पूर्णकालिक राजभाषा बनाने का लिया हुआ संकल्प भुला दिया गया। सरकार ने सारी जिम्मेदारी स्वयंसेवी संस्थाओं पर डाल दी। प्राथमिक से लेेकर उच्च शिक्षा तक हिन्दी की प्रतिष्ठा को धक्का लगाने वाली तमाम नीतियां हैं। इन पर प्रश्न खड़ा होना चाहिए। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं, ‘जो काम सरकार नहीं कर पाई वो बाजार ने कर दिया।

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हिन्दी में विश्व क्लासीकल निजी प्रकाशकों ने उपलब्ध कराया। ज्ञान-विज्ञान की जो सम्पदा अंग्रेजी में उपलब्ध है उसे हिन्दी में अनुवादित कराने तक का काम नहीं किया गया।  यह राजभाषा विज्ञान, हिन्दी संस्थान और हिन्दी अकादमी का काम था।’ इसके उलट बाजार, हिन्दी का विकास कर रहा है। आज धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले मल्टीनेशनल्स के प्रतिनिधियों के लिए वैसी ही अच्छी हिन्दी बोलना भारत में नौकरी की अनिवार्य शर्त है। हिन्दी विज्ञापनों और फिल्मों की सबसे लोकप्रिय भाषा है।’ 


प्रो.रामदरश राय कहते हैं, ‘हिन्दी से लगाव रखने वाली पुरानी पीढ़ी भी अपने नाती-पोतों को अंग्रेजी दा बनाना चाहती है। जबकि उदार हिन्दी अलग-अलग रूपों में विकसित होते हुए इंटरनेट, कम्प्यूटर की भाषा बन चुकी है। वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी पट्टी की पूछ बढ़ी है लेकिन इसे उसी रूप में महसूस कर भाषा की सीमाओं को तोड़ने के प्रयासों में तेजी लाई जानी चाहिए। धरती पर उपलब्ध सारा ज्ञान-विज्ञान हिन्दी में भी उपलब्ध हो, इसकी चिंता की जानी चाहिए। हिन्दी की सामर्थ्य और शब्दकोश की सम्पन्नता के लिहाज से इसमें कहीं कोई बाधा भी नहीं है। 

इसलिए सीखनी है अंग्रेजी

शहर में अंग्रेजी सिखाने वाले कम से कम दो दर्जन इंस्टीच्यूट्स हैं। ज्यादातर में तीन हजार से पांच हजार तक फीस है। 72 घंटे, कुछ हफ्ते से लेकर छह महीने-साल भर तक में फर्राटेदार अंग्रेजी सिखाने का दावा करने वाले इन इंस्टीच्यूट्स में बड़ी संख्या में छात्र-छात्रायें आते हैं। इन सबकी ख्वाहिशें अलग-अलग हैं। मसलन, हरिओमनगर के एक इंस्टीच्यूट की छात्रा रेनू सिंह ने समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और रक्षा अध्ययन से बीए करने के बाद अंग्रेजी बोलने की क्लास में दाखिला इसलिए लिया क्योंकि उन्हें अंग्रेजी बोलने वालों से बात करने में दिक्कत होती थी।

यही नहीं ज्यादातर ऑनलाइन-ऑफलाइन फार्म अंग्रेजी में होने के कारण उन्हें भरते वक्त वह कन्फ्यूज हो जाती थीं। इसी इंस्टीच्यूट में पढ़ने वाले प्रिंस कुमार यादव पालीटेक्निक के बाद जेई की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि अंग्रेजी की कमजोरी कॅरियर की बड़ी बाधा बन सकती है। सो, वक्त रहते इसे सीख लेना चाहिए। हालांकि इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे धर्मेन्द्र प्रजापति नेे कहा कि, ‘अंग्रेजी, एक स्टेट्स सिंबल भी है। अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले स्मार्ट और ज्ञानवान होंगे ही, समाज यह मानकर चलता है।’

हिन्दी की जिद से बदलवा दिया नैक का नियम

गोरखपुर के महराणा प्रताप पीजी कालेज जंगल धूसड़ ने तीन साल पहले हिन्दी की ऐसी जिद पकड़ी कि नैक (नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडेशन कौंसिल) को अपना नियम बदलना पड़ा। कालेज के प्राचार्य  डॉ.प्रदीप राव की हिन्दी में भेजी अर्जी को पहले तो नैकवालों ने यह कहकर ठुकरा दिया कि इसे अंग्रेजी में लिखकर भेजें लेकिन जब वह अड़ गये तो लम्बे चले पत्राचार के बाद यह रास्ता निकाला कि आवेदन हिन्दी में करें साथ में उसका अंग्रेजी अनुवाद भेज दें। बुधवार को डॉ.राव ने बताया कि अब अंग्रेजी अनुवाद भेजने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी गई है। नैक विशुद्ध हिन्दी में भेजे आवेदनों और रिपोर्टों को स्वीकार करने लगा है। 
 

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