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जहां डाकू नेताओं को और नेता डाकुओं को पालते रहे हैं

चित्रकूट। मंदाकिनी और पयस्विनी के संगम पर एक पंडित ने सोमवार की दोपहर हमें यजमान समझकर आह्वान भरे अंदाज में कहा कि यहां पयस्विनी के साथ विलुप्त सरस्वती भी मां मंदाकिनी में मिलती हैं। सरस्वती? मन...

जहां डाकू नेताओं को और नेता डाकुओं को पालते रहे हैं
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 21 Feb 2017 12:30 AM
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चित्रकूट। मंदाकिनी और पयस्विनी के संगम पर एक पंडित ने सोमवार की दोपहर हमें यजमान समझकर आह्वान भरे अंदाज में कहा कि यहां पयस्विनी के साथ विलुप्त सरस्वती भी मां मंदाकिनी में मिलती हैं।

सरस्वती? मन में ख्याल उभरा कि उसका तो इलाहाबाद में गंगा-यमुना के संगम के साथ अंतर्धारा के तौर पर शामिल होना बताया जाता है, पर  सरस्वती का अस्तित्व कब था, कहां था, यह अभी तक विज्ञान सम्मत तरीके से ज्ञात नहीं हो सका है। विवाद भरा यह विषय उठाने की बजाय मैंने पूछा कि पयस्विनी कहां है? जवाब मिला, वह भी सूख गई है। आप चाहें तो उसे एक क्षीण नाले के तौर पर देख सकते हैं।

जिस तरह बुंदेलखंड की धार्मिक आस्थाओं को अदृश्य विलुप्त होती नदियां संचालित करती हैं, वैसे ही यहां की राजनीति को पहाड़ों और जंगलों में छिपे डाकू प्रभावित करते रहे हैं।

डाकुओं का महत्व यहां के जनमानस पर कितना है, आप इसका अंदाज इसी से लगा सकते हैं कि फतेहपुर जिले के कबराहा गांव में एक मंदिर बना हुआ है। उस मंदिर में 'दस्यु-सम्राट' ददुआ और उसकी पत्नी की मूर्तियां लगी हैं। वहां अन्य आराधना स्थलों की तरह पुजारी तैनात है। हर रोज वहां घंटा बजता है, पूजन होता है, आरती होती है। 

जिस देश में ईश्वर के अलावा किसी और की प्रतिमा मंदिर में लगाना निषिद्ध हो, वहां ददुआ को ईश्वरीय दर्जा देना अचंभित करता है। दुनिया भर में रॉबिनहुड की कथाएं पढ़कर लोग प्रभावित होते रहे हैं, क्या कोई चर्च उसकी मूर्ति लगाने की इजाजत देगा? वैसे, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पूरी दुनिया में सिर्फ नॉटिंघम में उसकी एक मूर्ति पाई जाती है।

इसके उलट उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के राजनेता जानते थे कि ताकतवर पटेल जाति के लोग ददुआ में अपना रॉबिनहुड खोजते हैं। ये मंदिर उसी का नतीजा है। ददुआ ने लगभग तीन दशक तक इस अंचल की राजनीति को प्रभावित किया। वह जिस पर हाथ रख देता, वह जीत जाता। उसके गिरोह की बंदूकें अपनी नाल के इशारे से मतदान का रुख मोड़ देतीं। राजनीतिज्ञ उसे संरक्षण देते थे, और वह राजनीतिज्ञों को। उसके प्रशंसक ठंडी सांस भरकर कहते हैं कि उसका एनकाउंटर भी राजनीतिज्ञों के इशारे पर हुआ था। ददुआ की मौत के बाद हुए ‘भंडारे’ में चार लाख के करीब लोग आए थे। आज भी उसके परिजन तमाम राजनीतिक पदों पर बैठे हैं। वह अगली पीढ़ी के डकैतों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

चार अगस्त 2008 को एनकाउंटर में मारा गया ठोकिया भी ददुआ की तरह राजनीति और राजनेताओं को हांकता था। इस समय बबुली कोल, गौरी यादव और गोप्पा यादव के गिरोह सक्रिय हैं। बबुली आदिवासी है और उसके सिर पर हुकूमत ने पांच लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा है। पुलिस के पास इस बात की जानकारी है कि वह भी रह-रहकर मतदान को प्रभावित करने की कोशिश करता है, पर जाति का 'बेस' छोटा होने के कारण उसकी हैसियत ददुआ या फिर उसके जूनियर ठोकिया की तरह नहीं हो पाई है।

दो प्रदेशों के दुर्गम जंगलों से घिरी सीमाएं और राजनेताओं की कमजोर इच्छाशक्ति इन डकैतों के फलने-फूलने का कारण बनती है। वे तेंदूपत्ता, सड़क और सरकारी ठेकेदारों से चौथ वसूलते हैं। इसके बदले में वे उनकी दमन और शोषण की नीतियों का पोषण करते हैं। झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र या आंध्र में इन्हीं के चलते नक्सलवाद है पर यहां के लोग डाकूवाद भोगने को अभिशप्त हैं।

चुनाव आते और जाते हैं, पर यहां के गरीबों और आदिवासियों के हालात कभी सुधरते नहीं। तेंदूपत्ता तोड़ने के अलावा उनके पास कोई रोजगार नहीं है। पानी खत्म हो रहा है। नदियां सूख रही हैं। जल के स्रोत छीज रहे हैं। साथ ही उनर्की जिंदगी हर रोज दुरूह होती जा रही है।

जैसे बुंदेलखंड में पानी का अभाव कोई गंभीर मुद्दा नहीं बनता, वैसे ही प्राकृतिक संसाधनों की लूट राजनेताओं की अनदेखी का शिकार बनती है। बुंदेलखंड कभी शक्तिशाली था। उसे कमजोर किया गया और अब उसे दरिद्र बनाने की साजिश हो रही है। यकीन न हो तो बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से के लिए केंद्र से जारी 3,506 करोड़ रुपये के पैकेज के हश्र पर नजर डालें, आंखें खुली की खुली रह जाएंगी।
(तीसरे चरण की यात्रा यहां समाप्त होती है)

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