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इतिहास से वर्तमान तक

यह पुस्तक बौद्ध इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ,  थेरीगाथा के सहारे वर्तमान के स्त्री-संसार के अंतर का उद्घाटन करती है। इस तरह इसमें अतीत से वर्तमान तक की एक निरंतरता निर्मित हो गई...

इतिहास से वर्तमान तक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 28 Feb 2015 08:41 PM
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यह पुस्तक बौद्ध इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ,  थेरीगाथा के सहारे वर्तमान के स्त्री-संसार के अंतर का उद्घाटन करती है। इस तरह इसमें अतीत से वर्तमान तक की एक निरंतरता निर्मित हो गई है,  जिसके केंद्र में स्त्रियां हैं। उनकी उपस्थिति एकांतिक नहीं है, न ही वे उस दुनिया को लेकर मौत धारण कर चुकी हैं, जिसमें उन्हें अनेकानेक विपर्ययों और दुखों का साक्षात्कार करना पड़ा है। उन्होंने दुख सहे हैं, उपेक्षा भोगी है, वे आहत हुई हैं, मगर वे हारी हुई नहीं हैं। शायद यही वजह है कि वे सिर्फ अभियोग पेश करने की बजाय अपना आख्यान करते हुए पाठक के साथ गहन संवाद में उतरती हैं। वह संघ में स्त्रियों को प्रवेश देने के इच्छुक नहीं थे। उन्होंने कहा था कि ऐसा हुआ तो संघ की आयु घट जाएगी। कवयित्री को थेरीयां बतलाती हैं कि बुद्ध को अविश्वास स्त्रियों पर नहीं था, पुरुषों के निग्रह पर था। इस आशय के साथ यह संग्रह एक नया विचार प्रस्थान रचता है।
टोकरी में दिगंत, थेरीगाथा: 2014, अनामिका, राजकमल प्र., नई दिल्ली, मू. 300 रु.

कलजुग में समाजसेवा

मोरवाल के ज्यादातर उपन्यास हाशिये के अलक्षित-उपेक्षित विषयों पर केंद्रित रहे हैं, जबकि यह उपन्यास भारत में तेजी से पांव पसार रही एनजीओ संस्कृति की सच्चाई को बयान करता है। यह समय उदारीकरण और मुक्त बाजार व्यवस्था की पैरोकारी का समय है, जिसमें किसी शासन व्यवस्था की परंपरागत कल्याणकारी भूमिका कम होती गई है, जबकि गैर सरकारी संगठनों की सार्वजनिक हित के कार्यों में भूमिका बढ़ती गई है। यह किसी से छिपा नहीं है कि एनजीओ तंत्र जिन मुद्दों को उछालता है, प्राय: उनका जनता की वास्तविक समस्याओं और प्राथमिकताओं के साथ मेल नहीं होता। यह ‘समाज सेवा’ ज्यादातर लोगों की गरीबी और अभाव को कुछेक लोगों के एशोआराम और अमीरी का जरिया बना देती है। उपन्यास दिखलाता है कि आज एनजीओ तंत्र ऐसे लोगों का अड्डा बन गया है, जो उपेक्षितों-वंचितों के सपनों का सौदा कर साम्राज्यवादियों के लिए चाकरों की फौज पैदा कर रहे हैं।
नरक मसीहा,  भगवानदास मोरवाल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य 550 रु.


सचिन बकलम खुद

सचिन तेंदुलकर के प्रशंसक उन्हें ‘क्रिकेट का भगवान’ कहते हैं। उन्हें भारत रत्न से नवाजा जा चुका है। उनकी योग्यता और शोहरत का ही नतीजा है कि विविध उत्पादों के विज्ञापन के लिए उन्हें सबसे उपयुक्त पात्र समझा जाता है। क्रिकेट में 24 वर्ष सक्रिय रहने के बाद वह 2013 में रिटायर हुए, जिसके बाद उन्होंने आत्मकथा लिखी। यह मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई, जिसमें खेल इतिहास के मशहूर ज्ञाता बोरिया मजूमदार ने भी सहयोग किया। इसमें सचिन ने 16 साल की उम्र में पहला टेस्ट खेलने से लेकर अपना सौवां अंतरराष्ट्रीय शतक बनाने तक और स्कूली दिनों से लेकर भारतीय बल्लेबाजी की बुनियाद बनने तक के अपने सफर को दर्ज किया है। अपनी सार्वजनिक उपलब्धियों के अलावा सचिन ने इसमें अपने पारिवारिक व व्यक्तिगत जीवन का ब्यौरा भी पेश किया है।
मेरी आत्मकथा, सचिन तेंदुलकर, अनु. डॉ. सुधीर दीक्षित, मंजुल प. हाउस, भोपाल, मू. 495 रु.

जैसा देखा वैसा लिखा

यह कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का पहला कहानी संग्रह है। इसमें बनाव से अधिक विविध जीवन स्थितियों में उपजे कहानीपने को ही प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। शीर्षक कहानी में लेखक ने लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी जाने वाली पत्रकारिता की अंदरूनी सच्चाइयों को उजागर किया है। अन्य कहानियों में भी लेखक ने मानो आत्मानुभव को ही उद्देश्यपूर्वक प्रस्तुत किया है। वस्तुत: इन कहानियों का स्वर काफी हद तक स्मृतिपरक है। संग्रह में कहानियों के साथ-साथ कुछेक व्यंग्य-कथाएं भी हैं, जिनमें समसामयिक स्थितियों पर जबरदस्त कटाक्ष है।
गालिब की मां, राधेश्याम तिवारी, संजना प्रकाशन, दिल्ली-94, मू. 250 रु.

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