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श्रद्धांजलि: ‘एकला चलो रे’ का नैतिक साहस

विजयमोहन सिंह के निधन से हिंदी साहित्य एक ऐसे आलोचक से वंचित हो गया है, जो लांछित होने की चिंता किए बगैर अपनी बेबाक राय रखता था। साहित्य और कलाओं में प्रचलित धारा से अलग हटकर पथ का संधान करना किसी...

श्रद्धांजलि:  ‘एकला चलो रे’ का नैतिक साहस
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 28 Mar 2015 07:42 PM
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विजयमोहन सिंह के निधन से हिंदी साहित्य एक ऐसे आलोचक से वंचित हो गया है, जो लांछित होने की चिंता किए बगैर अपनी बेबाक राय रखता था। साहित्य और कलाओं में प्रचलित धारा से अलग हटकर पथ का संधान करना किसी रचनाकार-कलाकार के लिए अपेक्षित होता है। इसके लिए पर्याप्त साहस और विवेक की जरूरत होती है, जो उनमें था। वह किसी रचना को सबसे पहले एक रचना होने की कसौटी पर ही कसा जाना जरूरी मानते थे, न कि विचारधारा आदि की कसौटी पर। यही वजह है कि चाहे प्रेमचंद का उपन्यास ‘गोदान’ हो या श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘राग दरबारी’, या नागार्जुन की कविताएं, इनके बारे में सिंह ने ऐसे विचार रखे जो बहुतेरों के लिए सहज-स्वीकार करने लायक नहीं थे। वास्तव में वह इन कृतियों पर अपने विचारों के जरिए उन लेखकों के रचनाकर्म के विविध पक्षों पर सवाल उठा रहे थे,  जिन्हें हिंदी साहित्य मूर्धन्य मानता है। लेकिन इस प्रसंग में सिंह पर आक्रमण करने वाले किंचित यह भूल गए कि इसी हिंदी में जयशंकर प्रसाद की कृति ‘कामायनी’ पर मुक्तिबोध की, या पंत की कृति लोकायत पर साही की समीक्षा या दिनकर की उर्वशी को लेकर उठे विवाद की तीव्रता कैसी रही थी।

आज जब सिंह नहीं हैं तब बरबस उनके ‘एकला चलो रे’ वाले आलोचकीय व्यक्तित्व का खयाल आता है। उनकी पुस्तक ‘बीसवीं सदी का हिंदी साहित्य’ के बारे में केदारनाथ सिंह ने लिखा है कि इसमें ‘कुछ अलक्षित अंतसूत्रों की निशानदेही मिलेगी और कई बार कुछ स्थापित मान्यताओं के बरअक्स कोई सर्वथा नया विचार और हां, वह नैतिक साहस भी जो किसी नए विचार की प्रस्तावना के लिए जरूरी होता है।’ वर्ष 1936 में बिहार के तत्कालीन शाहाबाद जिले में जन्मे विजयमोहन सिंह पेशे से अध्यापक और संपादक रहे, लेकिन उनकी आलोचना प्राय: प्राध्यापकीय सीमाबद्धता से दूर रही। वे एक समर्थ कथाकार भी थे। ‘टट्टू सवार’,‘एक बंगला बने न्यारा’ और ‘गमे हस्ती का हो किससे’ उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं। उनकी शुरुआती कहानियों में जहां सामंती अवशेषों के उत्खन्न की प्रवृत्ति प्रमुख है, वहीं बाद की कहानियां उससे आगे सामाजिक-राजनीतिक बदलावों पर गौर करती हैं। उन्होंने ‘कोई वीरानी-सी वीरानी है’ नामक एक उपन्यास भी लिखा है। लेकिन यह सच है कि उनकी समीक्षा और आलोचना की ज्यादा चर्चा हुई।

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