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अटल से मोदी युग का सफर

राजनीति के 35 वसंत पार कर चुकी भाजपा के लिए यह दौर दो अर्थों में महत्वपूर्ण है। पहला यह कि अभूतपूर्व सफलता के साथ वह केंद्र की सत्ता में है। दूसरा यह कि भाजपा आज दुनिया की सबसे अधिक सदस्यों वाली...

अटल से मोदी युग का सफर
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 08 Apr 2015 09:22 PM
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राजनीति के 35 वसंत पार कर चुकी भाजपा के लिए यह दौर दो अर्थों में महत्वपूर्ण है। पहला यह कि अभूतपूर्व सफलता के साथ वह केंद्र की सत्ता में है। दूसरा यह कि भाजपा आज दुनिया की सबसे अधिक सदस्यों वाली पार्टी बन चुकी है। दावा किया जा रहा है कि उसके सदस्यों की संख्या करीब नौ करोड़ पहुंच चुकी है। ऐसे में यह लगता है कि सत्ता और संगठन, दोनों स्तर पर भाजपा कामयाबी की नई इबारत लिख रही है। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक कल्याणी शंकर की टिप्पणी

परंपरागत राजनीति में किसी राजनीतिक दल के लिए 35 साल अधिक नहीं होते, खास कर तब, जब सामने करीब 130 साल पुरानी पार्टी हो और जो देश की आजादी के बाद कई दशकों तक सत्ता में रह चुकी हो। वहीं लोकप्रियता और सत्ता के शिखर पर पहुंचने की आवश्यक शर्त यह भी नहीं कि पार्टी उम्रदराज हो। हाल ही में दिल्ली विधानसभा चुनाव में वैकल्पिक राजनीति के नाम पर नई तरह की राजनीति सफल हुई है।
राजनीति के 35 साल के सफर का यह दौर भाजपा  के लिए दो अर्थों में अहम है। पहला, इस अवसर पर यह पार्टी अभूतपूर्व सफलता के साथ केंद्र में है। पार्टी के गठन के बाद 1984 में भाजपा को भयंकर हार का सामना करना पड़ा था, 543 लोकसभा सीटों में से वह सिर्फ दो पर विजयी रही थी, लेकिन आज गठबंधन सरकार होने के बावजूद वह अपने बूते बहुमत के जादुई आंकड़े से आगे है। जहां 1984 में उसका मत-प्रतिशत 7.4 था, वहीं अब 30 से ऊपर है। दूसरा, भाजपा आज दुनिया की सबसे अधिक सदस्यों वाली पार्टी बन चुकी है। उसके सदस्य नौ करोड़ के आसपास हैं। इससे यह मालूम होता है कि सत्ता और संगठन, दोनों ही स्तर पर भाजपा सफलता की नई इबारत लिख रही है। 
राजनीतिक सफलताओं में सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों परिदृश्य होते हैं। भाजपा को भी इससे अलग नहीं देखा जाना चाहिए।

इन सबके बीच पार्टी के कुछ नेता और सरकार के कुछ मंत्री ‘घर वापसी’ जैसे मुद्दे उछालते हैं, हिंदुओं को अधिक संतानें पैदा करने की बात कहते हैं, गिरजाघरों को चेतावनी दी जाती है वगैरह-वगैरह। हालांकि ऐसी घटनाओं के बाद सरकार और पार्टी इन मुद्दों से खुद को किनारे कर लेती है। राजनीति में इसे ‘कैफेटेरिया एप्रोच’ कहते हैं यानी जिसे जो चाहिए, उसे वह दो।

बहरहाल आर्थिक और विदेशी मोर्चे पर मोदी सरकार ने जो पहल की है, उससे यह जाहिर होता है कि पार्टी बड़े मुद्दों पर सरकार चलाने की कला सीख चुकी है। 1998-99 में स्वदेशी का मुद्दा उठा करता था। यह स्थिति अटल सरकार के लिए सहज नहीं थी, लेकिन इस बार वैश्विक अर्थव्यवस्था से कदमताल करने की बात हो रही है, जो सरकार के लिए मुफीद है। वहीं विदेश नीति में भी अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रति रुझान दिखता है।

खूबियां
अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में पार्टी ने पहले 13 दिन की सरकार बनाई, इसके बाद 13 महीने तक सरकार चली। फिर एक ऐसा वक्त आया, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा किया। वह सबसे लंबे समय तक गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे।

भाजपा के गठन से पहले देखें तो 1951 में भारतीय जनसंघ का नाम आता है। 1977 में इसका जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन यह प्रयोग अधिक समय तक नहीं चला। अप्रैल 1980 में भाजपा का निर्माण हुआ। जनता में यह संदेश गया कि यह सिंडिकेट पार्टी है, यह उत्तर भारतीयों की पार्टी है, यह हिंदुत्व विचारधारा की पार्टी है, पर ये तमाम धारणाएं टूटीं। आज यह पार्टी कश्मीर से कन्याकुमारी व गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक है। दक्षिण भारत में पहली बार इसने कर्नाटक में सरकार बनाई तो जम्मू-कश्मीर में आज यह गठबंधन सरकार चला रही है।
 
इतने वर्षों में और खास कर 1998 के बाद से भाजपा नेताओं के पहनावे में भी जबरदस्त बदलाव आया है। पहले इसके नेता और कार्यकर्ता सादे कपड़ों में दिखते थे, वहीं अब भाजपा दफ्तर में घुसने के बाद कई सफारी सूट और कोट-पैंट नजर आते हैं। कलाई पर ट्रैंडी घड़ियां और हाथों में स्मार्टफोन दिखते हैं।

भाजपा को एक बड़ा तबका ‘हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी’ मानता था, लेकिन 1998 में जहां इसने अपने ‘मुद्दे’ त्यागे, वहीं यह सहनशील पार्टी भी बनी। इसमें अटल दौर का खासा योगदान रहा। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुसलमान नेताओं से बात की और समुदाय को पूरे सहयोग का भरोसा दिलाया।

एक समय में इस पार्टी को ‘ब्राह्मण-बनिया पार्टी’ कहा जाता था, लेकिन अटल युग और अब नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में इसने अपने जनाधार को काफी बढ़ाया है। आम चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश की पिछड़ी, अन्य पिछड़ी और दलित जातियों ने भाजपा को वोट दिया। नेताओं के स्तर पर भी बदलाव आया है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अन्य पिछड़ी जाति से आते हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ओबीसी हैं।
भारतीय जनता पार्टी आज पीढ़ीगत परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की जगह उनसे पिछली कतार के नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह ले चुके हैं।

खामियां
पार्टी की सदस्य-संख्या में विशाल बढ़ोतरी जहां उसकी उपलब्धि है, वहीं कमजोरी भी है। जितने लोग पार्टी से जुड़ रहे हैं, जरूरी नहीं कि वे निस्वार्थ और सेवा भाव से जुड़े हों, बल्कि उनके अपने स्वार्थ भी होंगे। याद करें, 1998-99 में कांग्रेस और अन्य पार्टी छोड़ कर कई नेता भाजपा में आए थे, लेकिन पांच साल में उन्हें अपना फायदा नहीं दिखा तो वे अलग हो गए। इसी तरह, काफी लोगों को साथ जोड़ लेना एक मुद्दा है और सबको साथ लेकर चलना अलग मुद्दा।

भाजपा में पहले हाईकमान संस्कृति नहीं थी। अटल, आडवाणी और जोशी बड़े नेता तो थे, पर फैसले मिल-जुल कर ही किए जाते थे। किंतु अब यह लगता है कि कांग्रेस से इस पार्टी ने हाईकमान संस्कृति अपना ली है। यह शुभ संकेत नहीं है।

जिस तरह कांग्रेस ‘पर्सनेलिटी कल्ट’ के लिए जानी जाती है, वही चीज भाजपा में भी आ गई है। जीत का सेहरा एक के सिर बंधता है और हार के जिम्मेदार बाकी लोग होते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद यही दिखा। इस बार के आम चुनाव में भाजपा के कई नेता अपने बच्चों को राजनीति में लेकर आए। यह राजनीति में एक तरह से वंशवाद को बढ़ावा देना ही है। इस आधार पर यह और अन्य पार्टियां एक समान हो गई हैं। 

संगठन में अनुभवी और नए नेताओं के बीच तालमेल नहीं है। जहां एक तरफ आडवाणी और जोशी जैसे बड़े नेताओं को दरकिनार कर दिया गया है, वहीं दूसरी तरफ कई राज्यों में पार्टी के पास जनाधार वाले नेता नहीं हैं। दिल्ली में चुनाव से ऐन पहले किरण बेदी का सहारा लिया गया, नतीजा सामने है।

पार्टी 2004 से जनसंपर्क के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रही है। यह उसकी बड़ी खासियत बन सकती थी, पर  नेताओं ने इसे ‘वन-वे ट्रैफिक’ बना दिया है। नेता पत्रकारों से संवाद नहीं कर रहे, बल्कि ट्विटर, फेसबुक पर अपनी बात कह कर निकल जाते हैं।

 

 

 

 

 

 

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