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प्रश्नों को पार कर मिलती है श्रद्धा

आशंका और प्रश्नों में अश्रद्धा है ही नहीं। आशंका और प्रश्न श्रद्धा की तलाश हैं। बुद्धि बाधा नहीं बनती। बुद्धि तुम्हारा साथ दे रही है। बुद्धि कहती है- जल्दी श्रद्धा मत कर लेना, नहीं तो कच्ची होगी।...

प्रश्नों को पार कर मिलती है श्रद्धा
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 18 Aug 2014 09:51 PM
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आशंका और प्रश्नों में अश्रद्धा है ही नहीं। आशंका और प्रश्न श्रद्धा की तलाश हैं। बुद्धि बाधा नहीं बनती। बुद्धि तुम्हारा साथ दे रही है। बुद्धि कहती है- जल्दी श्रद्धा मत कर लेना, नहीं तो कच्ची होगी। बुद्धि कहती है- पहले ठीक से जांच-परख तो कर लो। तुम मिट्टी का घड़ा खरीदने बाजार जाते हो- दो पैसे का घड़ा- तो सब तरफ से ठोक-पीट कर लेते हो या नहीं! तुम यह तो नहीं कहते कि यह बुद्धि जो कह रही है, जरा घड़े को ठोक-पीट लो, यह दुश्मन है घड़े की। नहीं, घड़े की दुश्मन नहीं है। यह कह रही है, जब घड़ा लेने ही निकले हो तो घड़ा जैसा घड़ा लेना। पानी भर सको, ऐसा घड़ा लेना। श्रद्धा करने निकले हो तो ऐसी श्रद्धा लेना कि परमात्मा को भर सको। ऐसा टूटा-फूटा घड़ा मत ले आना। कच्चा घड़ा मत ले आना कि पहली बरसात हो और घड़ा बह जाए। पानी आए और रुके न। छिद्र वाला घड़ा मत ले लेना।

वे तुम्हारे सारे प्रश्न घड़े को ठोकने-पीटने के हैं। बुद्धि के दुश्मन मत बन जाओ। ऐसा मत सोच लो कि बुद्धि अनिवार्य रूप से श्रद्धा के विरोध में है। नहीं, जरा भी नहीं। सिर्फ बुद्धिमान ही श्रद्धालु हो सकता है। बुद्धिहीन श्रद्धालु नहीं होता, सिर्फ विश्वासी होता है। और विश्वास और श्रद्धा में बड़ा भेद है।

विश्वास तो इस बात का संकेत है केवल कि इस आदमी में सोच-विचार की क्षमता नहीं है। विश्वास तो अज्ञान का प्रतीक है। जो मिला, सो मान लिया। जिसने जो कह दिया, सो मान लिया। न मानने के लिए, प्रश्न उठाने के लिए तो थोड़ी बुद्धि चाहिए, प्रखर बुद्धि चाहिए।

बुद्धि सिर्फ तुमसे यह कह रही है- उठाओ प्रश्न, जिज्ञासाएं खड़ी करो। जब सारे प्रश्नों के उत्तर आ जाएं, और सारी शंकाएं-कुशंकाएं गिर जाएं, तब जो श्रद्धा का आविर्भाव होगा, वही सच है। निश्चित ही जब प्रश्न उठते हैं तो बेचैनी होती है, क्योंकि हर प्रश्न कांटा बन कर चुभ जाता है। और जब शंकाएं उठती हैं तो निश्चित ही सब समाधान खो जाते हैं, संताप पैदा होता है, भय पैदा होता है, पैर थरथराने लगते हैं, जमीन पैर के नीचे से खिसक जाती है। कोई फिक्र न करो, यही सही श्रद्धा को पाने का मार्ग है।

पूछो, दिल खोल कर पूछो; समग्रता से पूछो, कंजूसी मत करना। अगर जरा भी एकाध प्रश्न तुमने बचा लिया, पूछा नहीं तो वही प्रश्न तुम्हें डुबा देगा। वही तुम्हारी नाव में छेद रह जाएगा। और एक दफा सागर में उतर गए नाव लेकर- छेद वाली नाव- तो फिर बहुत पछताओगे। किनारे पर ही सारी तलाश कर लो। सब छेद खोद डालो, सारे छेद भर डालो और जब तुम पाओ कि सब तरफ से बुद्धि निश्चित हो गई- बुद्धि कहती है कि हां, ठीक; बुद्धि बताती है कि अब चल पड़ो- जब बुद्धि आशा दे दे, तभी श्रद्धा में जाना।

बुद्धि तुम्हें चैन न लेने देगी। ऐसी मुफ्त ओढ़ ली गई श्रद्धाएं बुद्धि उखाड़ कर फेंक देंगी। बुद्धि परमात्मा की सेवा में संलग्न है। तुम्हारी सेवा में संलग्न नहीं है। नहीं तो तुम तो किसी भी घूरे पर बैठ जाना चाहते हो आंख बंद करके और सोचना चाहते हो, यही महल है। आ गया महल- क्योंकि चलने से बचना है। अगर कहो कि महल नहीं आया तो चलना पड़ता है। अगर कहो कि यह सत्य नहीं है तो फिर सत्य खोजना पड़ता है। तुम तो किसी भी चीज को पकड़ लेना चाहते हो। कागज की नाव में ही बैठ जाते हो- नाव मिल गई, बस पर्याप्त है। बुद्धि कहती है जरा संभालो, जरा होश संभालो, यह कागज की नाव है, डुबकी खा जाओगे। उस किनारे पर पहुंचना हो तो कोई ठीक, सम्यक नाव खोजो। यह कागज की नावों से नहीं पहुंच पाओगे।

बुद्धि के मार्ग से जो श्रद्धा आती है, वही परिपक्व है। उसी से बुद्धों का जन्म होता है। जो श्रद्धा बुद्धि के विपरीत आती है, वह सिर्फ तुम्हें बुद्धू बनाती है, बुद्ध कभी भी नहीं बनाएगी। तो जल्दी क्या है? खोजो, खोज में पीड़ा है। खोज आग है, जो जलाती है, मगर निखारती भी है।

हर प्रश्न जो उठता है, वह सही है। उसका हल खोजो। दो ही होंगी संभावनाएं- या तो हल मिल जाएगा, प्रश्न शांत हो जाएगा। या खोजते-खोजते पता चलेगा कि यह प्रश्न, प्रश्न ही नहीं है। इसमें बुनियादी भूल है, इसका उत्तर नहीं हो सकता। जैसे कोई आदमी पूछे कि हरे रंग की सुगंध क्या है? प्रश्न जैसा लगता है, मगर है नहीं। अब रंग का सुगंध से क्या लेना-देना! हरे रंग में कोई भी सुगंध हो सकती है और निर्गंध भी हो सकता है। हरे रंग और सुगंध का कोई संयोग नहीं है। हरे रंग की सुगंध क्या है? भाषा में तो प्रश्न बिलकुल ही ठीक मालूम पड़ता है, लेकिन अस्तित्व में गलत है। मगर यह भी मैं कहूंगा- किसी पर भरोसा करके मत मान लेना, क्योंकि पता नहीं वह आदमी तुम्हें धोखा देना चाहता हो। यहां बहुत धोखेबाज हैं। या हो सकता है कि वह आदमी तुम्हें धोखा न देना चाहता हो, खुद धोखे में पड़ गया हो, क्योंकि यहां स्वयं को धोखा देने वाले लोग भी हैं।

खोजो। जिन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे, वे प्रश्न गिर गए। और जिन प्रश्नों के उत्तर अंत तक न मिलेंगे, उनमें भी खोजते-खोजते तुम्हें यह अनुभव समझ में आ जाएगा कि यह प्रश्न, प्रश्न ही नहीं हैं। जो प्रश्न, प्रश्न है, उसका उत्तर निश्चित मिलेगा। दोनों हालतों में प्रश्न से तुम निर्भार होते जाओगे। एक ऐसी घड़ी आती है चेतना की, जब कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उस निष्प्रश्न दशा में श्रद्धा का जन्म है।

 

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