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आधुनिकता के महामना

महामना मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न दिये जाने पर पूरे देश के साथ बनारस खासा उत्साहित है। वही बनारस, जहां काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर महामना ने शिक्षा की अलख जगायी थी। नई सोच के साथ नये...

आधुनिकता के महामना
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 30 Mar 2015 08:32 PM
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महामना मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न दिये जाने पर पूरे देश के साथ बनारस खासा उत्साहित है। वही बनारस, जहां काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर महामना ने शिक्षा की अलख जगायी थी। नई सोच के साथ नये भारत की कल्पना करने वाले महामना की उस समय की सोच आज के भारत में भी उतनी ही प्रासंगिक है।


अपनी अत्याधुनिक सोच के साथ शिक्षा की अलख जगाने वाले महामना मदन मोहन मालवीय ने उस दौर में भी स्त्री के लिए शिक्षा के महत्व और राष्ट्रीयता के साथ-साथ रोजगारपरक शिक्षा की बार-बार वकालत की थी। धर्म को लेकर उनकी सोच अत्यंत आधुनिक और प्रगतिशील थी। शिक्षा और समाज की चिंताओं को लेकर भविष्यद्रष्टा महामना की यह सोच आज भी उतनी ही प्रासंगिक है..

स्त्री शिक्षा पर..
स्त्री शिक्षा को लेकर महामना अत्यंत मुखर थे। उन्होंने इसे सर्वाधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्री की शिक्षा का अधिक महत्व है,  क्योंकि वे ही भारत की भावी संतति की मां हैं। वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के पुरस्कर्ताओं की प्रथम शिक्षिका हैं। उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों पर विशेष रूप से पड़ेगा। महाभारत में कहा गया है- ‘माता के समान कोई शिक्षक नहीं है।’  वे नारी जाति का सर्वतोभावेन उत्थान और कल्याण चाहने वाले महामानव थे। वे छात्राओं के सर्वांगीण विकास के मुखर समर्थक थे। इसके लिए वे हमेशा जागरूक रहे। उनकी मान्यता थी कि लड़कियों को सारी शिक्षा सुलभ होनी चाहिए। उनकी धारणा थी, ‘ हमें स्त्रियों को साहित्य और संस्कृति के उत्तम ज्ञान के साथ शिक्षा देनी चाहिए। देश की स्त्रियों का किस प्रकार शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान किया जा सकता है, ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।’ नारी में ऐसे समृद्ध व्यक्तित्व की परिकल्पना उनके अंतर्मन में थी, जो प्राचीन तथा नवीन सभ्यता के सभी गुणों का समन्वय हो।

रोजगारपरक शिक्षा के पक्षधर
14 दिसम्बर 1929 को अपने दीक्षांत भाषण में शिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए मालवीय जी ने कहा- ‘विद्यार्थियों को प्रयोगात्मक ज्ञान के साथ विज्ञान, कला कौशल और व्यवसाय सम्बंधी ऐसी शिक्षा दी जाये, जिससे देशी व्यवसाय तथा घरेलू उद्योग-धंधों की उन्नति हो।’  भारत में प्रचलित शिक्षा प्रणाली की निर्थकता पर मालवीय जी ने कहा था- ‘हम लोग अंधविश्वासी की भांति एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का अनुकरण करते चले आ रहे हैं, जिसका निर्माण अन्य जातियों के लिए हुआ था और जिसका उन्हीं लोगों ने बहुत दिन हुए परित्याग कर दिया है, किन्तु हम उसकी अर्थी लिए हुए आज भी उसमें जीवन होने की आशा करते हैं।’  मालवीय जी का दृढ़ विश्वास था कि राष्ट्रीय शिक्षा का विस्तार केवल राष्ट्रीय सरकार द्वारा ही संभव है। 26 जनवरी 1920 को बीएचयू में दिए गए भाषण में महामना ने साफ कहा था - ‘हाईस्कूल स्तर की शिक्षा अन्य देशों की भांति तभी सफल मानी जा सकती है, जब वह विद्यार्थियों को अर्थाजर्न योग्य बनाने वाली हो.. अर्थाजर्न परक शिक्षा होने पर हाईस्कूल की शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होगी और उस अवस्था में उच्च शिक्षा पर व्यय किये गए धन का परिणाम भी अच्छा होगा.. शिक्षा के लिए युवकों को दूर न जाना पड़े और छात्र अर्थकारी शिक्षा कम व्यय में अपने समीप के विद्यालय में ही प्राप्त कर सकें, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।’ बेकारी का मुख्य कारण बताते हुए महामना ने कहा था- ‘आज बेकारी का मुख्य कारण यह है कि हमारे विश्वविद्यालय विभिन्न विषयों की अर्थकारी शिक्षा नहीं देते। कला तथा विज्ञान में उपाधि प्राप्त करने वाले व्यक्ति केवल एक शिक्षक या राज्य कर्मचारी के पद के योग्य ही बन पाते हैं, परन्तु स्कूल-कॉलेज और नौकरी में प्रतिवर्ष निकले हुए स्नातकों की अल्प संख्या में ही नियुक्ति हो पाती है।’

राष्ट्रीयता की शिक्षा
महामना के अनुसार, राष्ट्रीय जागरण के लिए राष्ट्रीय शिक्षा भी आवश्यक है। उनका तर्क था- ‘देश में उच्च शिक्षा के विकास के साथ राष्ट्रीयता की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए,  जिससे क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद तथा बहुधर्मवाद वाले भारत देश में सबसे ऊपर राष्ट्रीय चरित्र का विकास हो और देश में एकता स्थापित हो।’ जर्मनी, फ्रांस, जापान, अमेरिका आदि देशों ने अपने स्कूलों में देशभक्ति की शिक्षा देकर अपनी राष्ट्रीय शक्ति तथा दृढ़ता का निर्माण किया है।

धार्मिक सहिष्णुता
धार्मिक सहिष्णुता महामना का स्वगत वैशिष्टय था। उन्होंने ‘अभ्युदय’ के एक अग्रलेख में लिखा था- ‘यह केवल हिन्दुओं का देश नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे हिन्दुओं का प्यारा जन्म स्थान है, वैसे ही मुसलमानों का भी है। यह दोनों जातियां यहां बसती हैं और बसती रहेंगी। जितनी ही इन दोनों में परस्पर मेल और एकता बढ़ेगी, उतनी ही देश की उन्नति में हमारी शक्ति बढ़ेगी और इनमें जितना बैर या विरोध या अनेकता रहेगी, हम उतने ही दुर्बल होंगे। धर्म का देशभक्ति से अन्योन्याश्रित संबंध है। धर्म का परिष्कृत स्वरूप देशभक्ति में परिलक्षित होता है। यही देशभक्ति जन-जन में करुणा के रूप में परिप्लावित होती है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के अनुरोध पर मालवीय जी ने हिन्दू महासभा के गया सम्मेलन की अध्यक्षता की। अध्यक्षीय  भाषण में मालवीय जी की धर्म संबधी महत्वपूर्ण बातें थीं-

1.  हिन्दू जाति की दुर्दशा का कारण है उसका धर्म विमुख होना।
2.  हिन्दू धर्म किसी धर्म पर आक्रमण न कर उसका सम्मान करता है।
3.  आक्रांत होने पर वह सर्वस्व निछावर कर आत्म-रक्षा करता है।
4.  धर्म-पालन में ही हिन्दू-मुस्लिम एकता हो सकती है।
5.  दोनों समुदायों को एक ही धर्म के नाम पर क्रियाशील होकर गुंडों का मुकाबला करना चाहिए, और
6.  हिन्दू-मुसलमान होने से पहले सच्च भारतीय होना अनिवार्य है।
(डॉ. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी के लंबे आलेख से)



भारत रत्न पं. मदनमोहन मालवीय अपने जीवन काल में ही महामना बन चुके थे। उनके व्यक्तित्व में विद्वत्ता, शालीनता, विनम्रता की असाधारण छवि थी, इसलिए वे जन-जन के नायक थे। परिश्रम और लगन के साथ विलक्षण बुद्धि के बल पर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनसे जुड़े कुछ प्रसंग:

खाली हाथ क्या बताऊंगा बनारस को
महामना काशी में विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए धनसंग्रह करने हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे। निजाम ने साफ इनकार कर दिया। इत्तेफाक से उसी समय हैदराबाद के एक सेठ का निधन हो गया। शव यात्रा में घर वाले पैसों की वर्षा करते हुए चल रहे थे। मालवीय जी भी शवयात्रा में शामिल हो गए और पैसा बटोरने लगे। एक व्यक्ति ने पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं? महामना ने जवाब दिया- ‘भाई क्या करूं? तुम्हारे निजाम ने कुछ भी देने से इनकार कर दिया और जब खाली हाथ बनारस लौटूंगा तो लोगों के पूछने पर कि हैदराबाद से क्या लाए हो तो क्या यह जवाब दूंगा कि खाली हाथ लौट आया! भाई, दान निजाम का न सही, शव-विमान का ही सही।’ यह जानकारी होने पर निजाम बहुत शर्मिदा हुआ और उसने माफी मांगते हुए महामना को काफी सहायता दी।

..उतना ही लगाव प्रत्येक ईंट से
मालवीय जी को बीएचयू के छात्रों से बेहद लगाव था। विश्वविद्यालय तो खैर उनका सपना था ही। उससे स्वाभाविक रूप से लगाव दिखता था। एक बार एक छात्रावास में उन्होंने देखा कि एक छात्र दीवार के कोने में कुछ लिख रहा है। मालवीय जी ने उसे समझाया- ‘मेरे दिल में तुम्हारे प्रति जितनी ममता और लगाव है, उतना ही लगाव मुझे विवि की प्रत्येक ईंट से है। मैं आशा करता हूं कि तुम भविष्य में ऐसी गलती फिर न करोगे’। इतना कहने के बाद मालवीय जी ने जेब से रुमाल निकाला और दीवार को साफ कर दिया। छात्र का सिर लज्जा से झुक गया।


महामना के हाथ स्वत: लिख देते थे क्षमा
बीएचयू की स्थापना के कुछ ही समय बाद की बात है। यदा-कदा अध्यापक उद्दंड छात्रों को उनकी गलतियों के लिए आर्थिक दंड दे दिया करते थे, मगर छात्र उस दंड को माफ कराने के लिए मालवीय जी के पास पहुंच जाते थे। महामना उन्हें माफ भी कर देते थे। यह बात शिक्षकों को अच्छी नहीं लगी। एक बार उन्होंने महामना से इस संबंध में शिकायत की- ‘महामना, आप उद्दंड छात्रों का अर्थ दंड माफ कर उनका मनोबल बढ़ा रहे हैं। आप अनुशासन बनाए रखने के लिए दंड माफ न करें।’ शिक्षकों की बात ध्यान से सुनने के बाद मालवीय जी बोले-‘मित्रों, जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था, तब एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का अर्थदंड लगाया गया था। जरा सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्र के पास दो पैसे साबुन के नहीं होते थे तो दंड भरने के लिए छह पैसे कहां से लाता? उस दंड की पूर्ति किस प्रकार की, यह याद करते हुए मेरे हाथ स्वत: छात्रों के प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं।’



मालवीय जी का अनुकरण न करने वाला अभागा
मैं जानता हूं कि मालवीय जी महाराज स्वयं किस तरह रहते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि उनके जीवन का कोई पहलू मुझसे छिपा नहीं है। उनकी सादगी, उनकी सरलता, उनकी पवित्रता और उनकी मुहब्बत से मैं भली-भांति परिचित हूं। उनके इन गुणों में से आप जितना कुछ ले सकें, जरूर लें। विद्यार्थियों के लिए उनके जीवन की बहुतेरी बातें सीखने लायक हैं, मगर मुझे डर है कि उन्हें जितना सीखना चाहिए, सीखा नहीं है। यह आपका और हमारा दुर्भाग्य है। धूप में रह कर भी कोई सूरज का तेज न पा सके तो उसमें सूरज बेचारे का क्या दोष? मालवीय जी महाराज के इतने निकट रह कर भी अगर आप उनके जीवन से सादगी, त्याग, देशभक्ति, उदारता और विश्वव्यापी प्रेम आदि सद्गुणों का अपने जीवन में अनुकरण न कर सकें तो कहिए, आपसे बढ़ कर अभागा और कौन होगा?
महात्मा गांधी (बीएचयू के रजत जयंती समारोह के अवसर पर)


महामना ने संस्थाएं ही नहीं,  मनुष्य भी बनाए
दुनिया के किसी भी गज से नापें, मालवीय जी को बहुत बड़ा पाएंगे। उनका ध्यान हमेशा बनाने की तरफ रहा। उनकी कोशिश यह होती थी कि जहां तक हो सके, सहूलियत से काम लिया जाए यानी बहुत तोड़फोड़ न हो, एक जमाने से दूसरे जमाने में। वह बढ़ते थे, बदलने की कोशिश करते थे। वह एक महान क्रांतिकारी थे, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन उनके सामने हमेशा बनाने की बात रहती थी। इस कोशिश में कुछ चीजें टूट भी जाती थीं और वे हटा दी जाती थीं। मालवीय जी इससे घबराते नहीं थे। उन्होंने केवल संस्थाएं नहीं बनाईं, बल्कि लोगों को भी बनाया। वे चाहते थे कि भारत के लोगों में हिम्मत पैदा हो, उनका सिर उन्नत हो, उन्हें अपने ऊपर भरोसा हो।
जवाहरलाल नेहरू (महामना की जन्मशती पर प्रयाग में)

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