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मन को आत्मा के साथ जोड़ता है ज्ञान

ज्ञान क्या है? ज्ञान है बाहरी विषयों का आत्मसात। यह व्यक्ति को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है। अर्थात् जहां इस प्रकार की मानसिकता पाई जाती है, उसे ज्ञान कहा जा सकता है और जहां यह नहीं है, वहां...

मन को आत्मा के साथ जोड़ता है ज्ञान
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 22 Sep 2014 09:27 PM
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ज्ञान क्या है? ज्ञान है बाहरी विषयों का आत्मसात। यह व्यक्ति को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है। अर्थात् जहां इस प्रकार की मानसिकता पाई जाती है, उसे ज्ञान कहा जा सकता है और जहां यह नहीं है, वहां ज्ञान नहीं है। ज्ञान का आधार क्या है? जहां ज्ञान भौतिक है, वहां ज्ञान का आधार मन है। जहां वह पूरी तरह आध्यात्मिक है, वहां उसका आधार आत्मा है। ज्ञान, मन को आत्मा के साथ जोड़ने का काम करता है। यह ज्ञान की अपने आप में एक बड़ी विशेषता है। जो मन को आत्मा के साथ नहीं मिलाता है, वह ज्ञान नहीं है, बल्कि ज्ञान का भ्रम है। इसी कारण तथाकथित ज्ञान से मन में अहंकार पैदा होता है। यदि तुम एक अहंकारी व्यक्ति को देखते हो तो तुम्हे अवश्य समझना चाहिए कि उस व्यक्ति को ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है।

एक बार दो बड़े पंडितों में बहस छिड़ी, ‘पहले  ध्वनि पैदा होती है या पहले ताड़ गिरता है।’ वाद-विवाद महीनों चलता रहा, किन्तु किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका। तब उन लोगों ने निश्चय किया कि इसे एक रात पेड़ के नीचे बैठ कर ही व्यावहारिक रूप से देखा जाए कि पहले ताड़ गिरता है या पहले ध्वनि होती है। अगली सुबह पाया गया कि माथे पर ताड़ गिरने के कारण दोनों पंडित मरे पड़े हैं। अत: यह तथाकथित ज्ञान बिल्कुल ज्ञान नहीं है, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है, जो तुम निश्चय ही अर्जित करना नहीं चाहोगे।

प्रथम स्तर पर मन स्वयं ज्ञान का आधार है। मन क्या है? मानव संरचना बहुकोशीय है। मानव मन के तीन भाग हैं। प्रथम है सामूहिक एककोशीय मन, द्वितीय है सामूहिक बहुकोशीय मन और तृतीय है उसका अपना मन। इन तीनों को मिला कर मानव मन है। जिस प्राणी में बहुकोशीय मन जितना विकसित रहता है, वह प्राणी उतना ही विकसित होता है। मनुष्य का अपना मन, उसका एककोशीय मन और उसका बहुकोशीय मन मिल कर ही सम्पूर्ण मानव अस्तित्व है। तुम जानते हो कि कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध के समय कौरवों को युद्ध का परिणाम समझाने की बहुत कोशिश की गई। यहां तक कि युधिष्ठिर ने उन लोगों में परिवर्तन लाने के लिए भगवान से प्रार्थना की। वहां परमात्मा की अनुकम्पा भी थी, किन्तु जड़ भाव होने के कारण वे इसको समझ नहीं सके। हां, अर्जुन के गाण्डीव की टंकार से वे आसानी से समझ सके थे। इसलिए एककोशीय मन भौतिक शासन से ही शासित होता है, अन्य से नहीं।

सांसारिक ज्ञान अपने प्रथम स्तर पर भौतिक-मानसिक होता है और इसके बाद मानसिक। जब इस ज्ञान को भौतिक जगत में कार्यान्वित किया जाता है, तब यह मानसिक-भौतिक होता है। इस भौतिक-मानसिक ज्ञान का इस भौतिक जगत में बहुत कम मूल्य है, किन्तु इसका मूल्य बदलते रहता है। जो सिद्धांत आज पसंद किया जाता है, वह कल बदल जाता है। तब यथार्थ ज्ञान क्या है? यथार्थ ज्ञान उस सत्ता का ज्ञान है, जिसमें देश, काल और व्यक्ति में परिवर्तन से भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। इस जगत में सभी कुछ सकारण है, अर्थात कार्य, कारण का परिणाम होता है और कारण का परिणाम कार्य होता है। यह इसी तरह चलता रहा है। एक स्तर पर कार्य दूसरे स्तर पर कारण बन जाता है। जहां कार्य-कारण तत्त्व काम करता है, वहां अपूर्णता रहती है। इस ज्ञान से अथवा इस ज्ञान के आने वाले स्रोतों पर कोई अहंकार नहीं कर सकता। वेद में कहा गया है- ‘मैं कहता हूं कि मैं नहीं जानता हूं और न यह कहता हूं कि मैं जानता हूं, क्योंकि वह परमसत्ता सिर्फ उसी के द्वारा जानी जाती है, जो जानता है कि परमात्मा जानने और नहीं जानने के परे है।’ यह इसलिए कि जानना एक विशेष मानसिक धारा है। परमसत्ता देश, काल और व्यक्ति के परे है। जिस आध्यात्मिक-मानसिक ज्ञान का अंतिम बिन्दु आध्यात्मिक ज्ञान हो, वही एकमात्र ज्ञान है।
प्रस्तुति: आचार्य दिव्यचेतनानन्द

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