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उनकी नजर में प्रेमचंद

इस हफ्ते दो मूर्धन्यों का पुण्य स्मरण। 8 अक्तूबर कथा सम्राट प्रेमचंद की पुण्यतिथि है और 10 अक्तूबर आलोचक-विचारक डॉ. रामविलास शर्मा का जन्मदिवस है। यहां प्रस्तुत हैं रामविलास जी की किताब 'प्रेमचंद और...

उनकी नजर में प्रेमचंद
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 03 Oct 2015 08:42 PM
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इस हफ्ते दो मूर्धन्यों का पुण्य स्मरण। 8 अक्तूबर कथा सम्राट प्रेमचंद की पुण्यतिथि है और 10 अक्तूबर आलोचक-विचारक डॉ. रामविलास शर्मा का जन्मदिवस है। यहां प्रस्तुत हैं रामविलास जी की किताब 'प्रेमचंद और उनका युग' की भूमिका के अंश, जो प्रेमचंद के साथ उनकी साहित्य दृष्टि को भी बताती है।
हंस के 'प्रेमचंद-स्मृति-अंक' में श्री चंद्रहासन ने लिखा था- 'प्रेमचंदजी का स्वर्गवास उत्तर के हिन्दी-भाषियों को उतना न खटका होगा, जितना कि दक्षिण के हिन्दी-प्रेमियों को।' इस बार की दक्षिण-यात्रा में इस सत्य का कुछ अनुभव मुझे भी हुआ। मद्रास में एक रात अपने घर की सीढ़ियों पर बैठे हुए एक तेलुगू-कवि-मित्र ने प्रेमचंद की एक कहानी के गद्य का रस लेते हुए लगभग एक पैराग्राफ सुना डाला। उन्हें प्रेमचंद के न जाने ऐसे कितने पैराग्राफ कंठस्थ थे। दक्षिण में जहां भी लोग हिन्दी जानते थे, प्रेमचंद को भी जानते थे। कहीं-कहीं जो लोग हिन्दी न भी जानते थे, वे अपनी भाषा के माध्यम से प्रेमचंद को जानते थे। तुलसीदास के बाद हिन्दी में यह पहला इतना बड़ा कलाकार पैदा हुआ था, जिसकी रचनाएं अपनी ही भाषा के क्षेत्र में नहीं, सुदूर दक्षिण के गांवों में भी पहुंच गई थीं। 'हंस' के उसी अंक में मद्रास के हिन्दी-प्रचारक श्री ब्रजनंदन शर्मा ने लिखा था- 'मैं यह नि:संकोच कह सकता हूं कि प्रेमचंदजी का उपयोग दक्षिण में ज्यादा हुआ है, पर हिन्दीभाषी जनता ने अभी तक प्रेमचंदजी से पूरा लाभ नहीं उठाया है।'

तेनकाशी के पास जब सुंदर झरनों के नजदीक एक हिन्दी-लेखक-बन्धु से साहित्य-चर्चा हो रही थी, तब यह सुनने को मिला कि प्रेमचंद ने विषय-वस्तु में जरूर ऊंची चीज दी है, लेकिन कला की दृष्टि से वह 'सेकेंड रेट' थे! ब्रजनंदनजी ने कुछ झूठ न लिखा था कि हिन्दी-भाषी जनता ने प्रेमचंदजी से पूरा लाभ नहीं उठाया, बल्कि जनता ने तो लाभ उठाया है, हिन्दी-लेखकों ने लाभ नहीं उठाया। लाभ उठाने का प्रमाण यह होना चाहिए कि हमने प्रेमचंद की स्वस्थ परम्परा का अनुसरण किया हो, उसे आगे बढ़ाया हो। लेकिन कितने लेखकों ने उस परम्परा को पहचाना है, उसे हिन्दी-साहित्य की मूल्यवान विरासत समझा है? हिन्दी के अनेक महान कथाकारों को चीर-हरण से फुरसत न मिली, वह अन्तस्तल की निगूढ़ भावनाओं का चित्रण करने में हिन्दुस्तान की जनता का दु:ख-दर्द भूल गए।

'प्रेमचंद-स्मृति-अंक' में एक हिन्दी-आलोचक ने लिखा था- 'रवि बाबू और शरत बाबू से तुलना करने में यदि प्रेमचंद कुछ हल्के उतरते हैं तो यह प्रेमचंद अथवा हिन्दी की कोई मान-हानि नहीं है। प्रेमचंद का क्षेत्र ग्रामीण जग और किसानों का हृदय है। यहां वे अद्वितीय हैं। किन्तु भावों की जिस गहराई में रवि बाबू अथवा शरत बाबू पैठते हैं, वह अभी प्रेमचंद की सीमा से बाहर थी।'
आश्चर्य की बात है कि किसान जीवन के अद्वितीय चित्रकार होते हुए भी प्रेमचंद में भावों की वह गहराई न आ पाई जो एक चोटी के कलाकार में मिलती है। लेकिन बच्चन और अज्ञेय को क्रांतिकारी कलाकार माननेवाले आलोचकों से यह आशा भी कैसे की जा सकती है कि प्रेमचंद के भावों की गहराई तक पैठेंगे।

एक दूसरे हिन्दी-आलोचक ने लिखा- 'जीवन की वे बुनियादी शक्तियां, जो पूंजीवाद को नष्ट करने और समाजवाद को स्थापित करने के लिए काम कर रही हैं, मौजूदा समाज के ह्रास और जन-क्रांति की अनिवार्यता की जड़ें जमानेवाली कोई संगठित योजना वे नहीं दे सके।' यह आलोचक उपन्यासकार भी हैं। उन्होंने संगठित योजनाओं और कामशास्त्र का अपूर्व समन्वय किया है।
एक दूसरे समालोचक उपन्यासकार ने लिखा है- 'प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में मनोविज्ञान को किंचित प्रश्रय देने का प्रयास अवश्य किया, पर अव्यक्त में जिस स्तर के मनोविज्ञान को वह प्रश्रय देना चाहते थे, वह यों भी अत्यंत छिछला और केवल ऊपरी सतह को छूनेवाला था, तिस पर वह ऊपरी सतह के मनोविज्ञान को भी ठीक से अपना नहीं पाए।' काश, इन महोदय ने कम-से-कम हिन्दी लिखना ही प्रेमचंद से सीख लिया होता!

'हंस' में कुछ साल पहले एक लेख निकला था, 'प्रेमचंद से पांच सौ कदम आगे' (मुमकिन है, हजार कदम रहे हों, ठीक याद नहीं), उसमें लेखकों की एक लम्बी पांत गिनाई गई थी, जो प्रेमचंद से आगे भागती चली जा रही थी। जहां तक याद है, उस पांत में उस लेख के लेखक और पत्र के (उस समय के) सम्पादक भी शामिल थे। प्रेमचंद से जिस चीज को हिन्दी के इन दिग्गज आलोचक और कलाकारों ने नहीं सीखा, वह यह है कि जनता कला का स्रोत है और उससे अलग रह कर महान साहित्य की रचना नहीं की जा सकती। जनता से अलग रह कर ये कलाकार महान उपन्यास लिखते रहे हैं और अगर जनता ने उन्हें प्रेमचंद की तरह सम्मानित नहीं किया तो इसमें कसूर जनता का है। प्रेमचंद के साहित्य की परख समालोचक की राजनीतिक सूझ-बूझ और उसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण की परख है। टिटिहरी समुद्र की गहराई नहीं नाप सकती। उसके लिए समुद्र क्या है? नीला-नीला पानी, जिसमें कहीं-कहीं लहरें उठती हैं, वरना समतल! प्रेमचंद का महत्व दिन-पर-दिन निखरेगा और उसको हम उतना ही ज्यादा समझेंगे, जितनी ज्यादा गहराई हिन्दुस्तान के स्वाधीनता आंदोलन में आएगी और उस आंदोलन से आलोचक का सम्बन्ध दृढ़ होगा।

सोवियत आलोचक ब्रेस्क्रोव्नी ने उचित गर्व से कहा है- 'यह बात बिल्कुल साफ है और उसका कारण भी सब जानते हैं कि इस भारतीय लेखक को बहुत दिनों तक उसका प्राप्य नहीं मिलेगा, जो कि उसे अपनी महान साहित्यिक परम्परा के लिए मिलना चाहिए। सिर्फ हमारे देश में, जो कि देशों के बीच सच्चे सहयोग और भाईचारे का देश है, जिसने लेनिन और स्तालिन की जातियों-सम्बन्धी नीति के फलस्वरूप एक खुशहाल जिन्दगी को हासिल कर लिया है, प्रेमचंद का सही गंभीर अध्ययन किया जा सकता है।' प्रेमचंद उन लेखकों में हैं, जिनकी रचनाओं से बाहर के साहित्य-प्रेमी हिन्दुस्तान को पहचानते हैं। उन्होंने हिन्दुस्तान के राष्ट्रीय सम्मान को बढ़ाया है, हमारे देश को अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में गौरव दिया है। प्रेमचंद पर सारा हिन्दुस्तान गर्व करता है, दुनिया की शांति-प्रेमी जनता गर्व करती है, सोवियत-संघ के आलोचक मुक्त कंठ से उनका महत्व घोषित करते हैं, हम हिन्दी-भाषी प्रदेश के लोग उन पर खास-तौर से गर्व करते हैं, क्योंकि वह सबसे पहले हमारे थे, जिन विशेषताओं को उन्होंने अपने कथा-साहित्य में झलकाया है, वे हमारी जनता की जातीय विशेषताएं थीं।

हिन्दी-साहित्य में आज जो समस्याएं उठ रही हैं, उन्हें हल करने में प्रेमचंद का अध्ययन बड़ी सहायता करता है। शांति-आन्दोलन में आज के साहित्यकार को वैसे ही सत्य के पक्ष का समर्थन करना है, वैसे ही साम्राज्यवादी झूठ का भंडाफोड़ करना है, अपने पड़ोसी देशों से भाईचारा कायम करना है, जैसे प्रेमचंद ने किया था। स्वाधीनता-आंदोलन के साथ आज के साहित्यकार को वैसे ही संबंध जोड़ना है, अपने साहित्य के उद्देश्य को वैसे ही घोषित करना है, उसके लिए वैसे ही कर्म-क्षेत्र में आगे बढ़ना है, जैसे प्रेमचंद बढ़े थे। साहित्यकार सामयिक समस्याओं पर लिखे या शाश्वत सत्य को अपनी विषय-वस्तु बनाए, इस मसले को आज के साहित्यकार को वैसे ही हल करना है, जैसे प्रेमचंद ने उसे 'प्रेमाश्रय' और 'रंगभूमि' में हल किया था। साहित्यकार किसी की तरफदारी करे या तटस्थ रहे, इस समस्या को आज का लेखक जनता की वैसी ही तरफदारी करके हल कर सकता है, जैसे 'कर्मभूमि' और 'गोदान' में प्रेमचंद ने जनता की तरफदारी करके उसे हल किया था।
(राजकमल प्रकाशन से साभार)

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