फोटो गैलरी

Hindi Newsइंसानी दखल का नतीजा है ये

इंसानी दखल का नतीजा है ये

विज्ञान जगत में यह बहस पुरगर्म है कि हाल की प्राकृतिक आपदाओं का कारण सामान्य मौसमी चक्र है या जलवायु परिवर्तन। दिलचस्प तथ्य यह है कि जो मौसम और मानसून के सरकारी विशेषज्ञ हैं, वे भारत में जलवायु...

इंसानी दखल का नतीजा है ये
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 17 Sep 2014 07:28 PM
ऐप पर पढ़ें

विज्ञान जगत में यह बहस पुरगर्म है कि हाल की प्राकृतिक आपदाओं का कारण सामान्य मौसमी चक्र है या जलवायु परिवर्तन। दिलचस्प तथ्य यह है कि जो मौसम और मानसून के सरकारी विशेषज्ञ हैं, वे भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को खुलेआम स्वीकार नहीं करते। दूसरी तरफ, जो मौसमी प्रभावों और बदलावों का लगातार अध्ययन कर रहे हैं, वे मानते हैं कि भारत क्या, पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के दंश को झेल रही है। इन्हीं विषयों पर प्रवीण प्रभाकर ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के डिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिक डॉ. गोविंदसामी बाला
से बातचीत की।



मौसम के प्राकृतिक परिवर्तन और जलवायु परिवर्तन के बीच के अंतर को कैसे देखा जा सकता है?
यह ऐसा ही है, जैसे एक सामान्य दृष्टिकोण है और दूसरा वैज्ञानिक दृष्टिकोण। प्राकृतिक परिवर्तन सहज, सरल और कम विनाशकारी होता है, जबकि जलवायु परिवर्तन असहज और भयावह नतीजे वाला साबित होता है। प्रयोगशाला में इसे समझने के लिए क्लाइमेट मॉडल की जरूरत पड़ती है और उसमें सब कुछ वैज्ञानिक तरीकों से निर्धारित किया जाता है। फिर हम यह देखते हैं कि जिस मॉडल में इंसानी हस्तक्षेप और प्रभाव पड़ा है, उसके क्या नतीजे आए हैं।
हम यह भी देखते हैं कि जिस मॉडल में यह हस्तक्षेप और प्रभाव नहीं पड़ा और जहां सब कुछ कुदरत के अनुरूप है, वहां क्या नतीजे रहे। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। दोनों में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को देखा जाता है। इस तरह के अध्ययन से यह साफ हो जाता है कि मौसम और मानसून पर क्या इंसानी प्रभाव पड़ रहा है और अगर यह प्रभाव लंबे समय से है तो इससे जलवायु में क्या परिवर्तन आया है। फिर इस परिवर्तन का हम क्षेत्र विशेष के आधार पर आकलन करते हैं।  हालांकि भारत में मानसून पर वास्तविक हस्तक्षेप के किसी भी प्रकार पर गहन अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन दुनिया के स्तर पर ऐसे कई अध्ययन सामने आए हैं और आ रहे हैं। और ये अध्ययन बताते हैं कि भारत में जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है। दुनिया के अन्य क्षेत्रों में भी क्लाइमेट मॉडल में बदलाव स्पष्ट होता है, जैसे उत्तरी अटलांटिक में, हिंद महासागर में वगैरह-वगैरह।

यानी जलवायु परिवर्तन किसी खास तबके की कोरी कल्पना नहीं है?
जी हां, यह कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है और इसके प्रभाव के प्रति दुनिया भर के देशों को सचेत रहना होगा। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की साल 2013 की रिपोर्ट में इसके प्रभाव के बारे में विस्तृत अध्ययन और चर्चा की गई है, इसलिए इसे खारिज नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट में कई क्षेत्रीय बदलावों को गिनाया गया है। वैसे ये बदलाव किसी देश के स्तर पर नहीं गिनाए गए हैं, लेकिन महादेश के स्तर पर काफी कुछ कहा गया है। अटलांटिक महासागर, ऑस्ट्रेलियाई क्षेत्र व हिंद महासागर के बदलते तापमान पर गौर किया गया है। हिंद महासागर के आसपास का तापमान पहले की तुलना में गरम हुआ है।  उत्तराखंड त्रासदी से पहले सीएसई फेलोशिप के तहत मुझे हिमालयी राज्यों में जाने का मौका मिला, जहां ज्यादातर सरकारी वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन को मानने से इनकार किया था। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि हमारे पास हिमालयी क्षेत्रों का लॉन्ग टर्म रिकॉर्ड नहीं है और वहां कई दुर्गम क्षेत्र हैं, जहां मौसम से जुड़े आंकड़ों को इकट्ठा करना पहले व्यावहारिक भी नहीं था। उधर भारतीय मौसम विज्ञान विभाग तापमान के आंकड़े जारी करता है। आज हमारे पास कोई 10-15 वर्षों के ही आंकड़े हैं। इसलिए मूल समस्या यह है कि ग्लेशियर क्षेत्रों के लंबे समय के डाटा नहीं होने के कारण जलवायु परिवर्तन पर दावा नहीं किया जाता। कम से कम 20-25 साल का डाटा मौजूद हो, तभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। दूसरी तरफ समुद्री इलाकों में ब्रिटिश शासन के समय से ही तापमान मापा जाता था। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को सही-सही समझने के लिए जमीन के तापमान और बारिश के सौ साल के रिकॉर्ड होने चाहिए। पश्चिम जलवायु परिवर्तन को लेकर इसलिए अधिक चिंता जताता है, क्योंकि वहां ये रिकॉर्ड मौजूद हैं। निस्संदेह हमें हिमालयी क्षेत्रों में अधिक से अधिक और गहन मॉनिटरिंग की व्यवस्था करनी होगी।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें