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बीएचयू के साथ बीता बचपन

विख्यात वैज्ञानिक डॉ. जयंत विष्णु नारलिकर को इस वर्ष मराठी में उनकी आत्मकथा ‘चार नगरातले माझे विश्व’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। ऐसा शायद पहली बार ही हुआ होगा कि इतने बड़े...

बीएचयू के साथ बीता बचपन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 17 Jan 2015 07:47 PM
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विख्यात वैज्ञानिक डॉ. जयंत विष्णु नारलिकर को इस वर्ष मराठी में उनकी आत्मकथा ‘चार नगरातले माझे विश्व’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। ऐसा शायद पहली बार ही हुआ होगा कि इतने बड़े वैज्ञानिक को साहित्य का पुरस्कार मिले। डॉ. नारलिकर ने अंग्रेजी,  मराठी और हिन्दी में लेख और विज्ञान कथाएं भी लिखी हैं। यहां प्रस्तुत हैं उनकी आत्मकथा के कुछ अंश.




मेरे पिता के पिता वासुदेव शास्त्री नारलिकर संस्कृत पंडित और प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन ज्ञान और रस से पूर्ण होते थे,  ऐसा बुजुर्ग लोगों से मैंने बचपन में सुना था। खुद पिता को उनके बारे में खास जानकारी नहीं थी,  क्योंकि मेरे दादा की मृत्यु के वक्त पिता सिर्फ दस साल के थे। मेरे दादा का जन्म सन 1848  में हुआ था,  यानी जब पिता (विष्णु नारलिकर)  का जन्म हुआ,  तब दादा साठ साल के थे। एक बार कुछ विदेशी दोस्तों के सामने मैं डींग हांक रहा था कि मेरे पूर्वजों का संबंध ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा हुआ था। मैंने बताया कि 1857  की क्रांति के वक्त मेरे दादा नौ साल के थे। यह सुनकर मेरे एक शिक्षक प्रोफेसर हरमन बॉन्डी ने कहा - मेरी नानी तो नेपोलियन के युद्धों के वक्त (यानी 1810-15 के दौरान)  पैदा हुई थी। कोल्हापुर में महाद्वार रोड पर नारलिकरों की हवेली किसी वक्त बहुत बड़ी थी,  लेकिन उसका अगला हिस्सा सड़क चौड़ी करने के दौरान तोड़ दिया गया,  ऐसा बुजुर्ग बताते हैं। मेरे पिता तीन भाइयों में सबसे छोटे और अत्यंत बुद्धिमान थे। उनका जन्म सन 1908 में हुआ था।

स्कूल में उनकी प्रतिभा का प्रभाव बचपन से ही पड़ता गया। पहले विद्यापीठ और फिर राजाराम हाई स्कूल में उन्हें प्रोत्साहित करने वाले प्रशिक्षक मिल गए,  इसलिए दादा की मृत्यु के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। मैट्रिक की परीक्षा में चौथा नंबर हासिल करके और वजीफा पाकर वे कॉलेज की पढ़ाई के लिए मुंबई में पहले एल्फिंस्टन कॉलेज और बाद में रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में भर्ती हुए। बीएससी परीक्षा में वे रिकॉर्ड नंबर हासिल करके प्रथम आए। उनका नाम रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के रोल ऑफ ऑनर में खुदा हुआ है। उसके बाद 1928 से 32 के दौरान वे उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज में गए। कैम्ब्रिज में पढ़ना उनके अच्छे अकादमिक रिकॉर्ड की वजह से ही संभव हो पाया। मेरे पिता को जे.एन. टाटा एंडॉमेंट वजीफा मिला और कोल्हापुर दरबार से कर्ज भी उपलब्ध हुआ।

जाहिर है उस कर्ज को चुकाने के लिए उन्हें कोल्हापुर संस्थान में नौकरी करना जरूरी था। गणित के ट्राइपॉस में स्टार रैंगलर की उपाधि हासिल करके रिसर्च में वे रैले प्राइज और आइजक न्यूटन स्टूडेंटशिप के हकदार हुए। वे भारत में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और गणित विभाग के अध्यक्ष के रूप में वापस आए,  सिर्फ 24 साल की उम्र में। मेरे पिता कैम्ब्रिज में पढ़ रहे थे,  तभी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय गोलमेज कॉन्फ्रेंस के लिए सन 1931 में इंग्लैंड गए थे। एक प्रतिभाशाली होनहार गणितज्ञ की तरह मेरे पिता की ख्याति उन तक पहुंची थी। अपने विश्वविद्यालय में श्रेष्ठ विद्वानों को शिक्षक की हैसियत से आकर्षित करने की नीति मालवीय जी लगातार अपना रहे थे।

लंदन जाने पर वे मेरे पिता से मिले और उन्हें विश्वविद्यालय में गणित का प्राध्यापक बनने का न्योता दिया। उन्होंने कहा,  ‘आपकी शिक्षा और शोध पूरा हो जाने पर आप मुझे बनारस में मिलिए। हम आपकी नियुक्ति को पक्का कर देंगे।’  यह आश्वासन मालवीय जी ने पूरा किया,  क्योंकि सन 1932  में मेरे पिता छुट्टी में कैम्ब्रिज से भारत आए तो उन्हें आग्रहपूर्वक मालवीय जी बनारस ले गए और विश्वविद्यालय में उन्हें नियुक्त कर दिया। इसके बाद मेरे पिता ने कैम्ब्रिज लौटने का और एकाध साल अमेरिका में माउंट विल्सन वेधशाला में काम करने का अपना इरादा बदल दिया। इतना ही नहीं,  मेरे पिता विश्वविद्यालय में नौकरी कर पाएं,  इसलिए मालवीय जी ने कोल्हापुर सरकार का कर्ज भी विश्वविद्यालय की ओर से चुका दिया।

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पांच भाई और तीन बहनों में मेरी मां कृष्णा का नंबर दो था। मेरी मां को बचपन से ही स्कॉलर माना जाता था। जब वह बारह साल की थीं तो उन्हें वॉलर प्राइज मिला था। इनाम में मिला चांदी का वजनी गिलास अब भी हमारे पास है। शिक्षा में उनकी दिलचस्पी और तरक्की देखकर उनके पिता ने उन्हें एम.ए. तक पढ़ने की मंजूरी दी। 1930 के दशक में कम लड़कियां उच्च शिक्षा पाती थीं। कई बार मेरी मां क्लास में अकेली ही लड़की होती थीं। मेरे माता-पिता की शादी जब हुई तो कइयों ने ‘रत्नम समागच्छतु कांचनेन’  कहा,  क्योंकि दोनों का ही नाम शिक्षा के क्षेत्र में काफी जाना-माना था। 21 जून 1937  में नरसोबा चीवाड़ी में कल्लू रुक्के पुजारी ने दोनों की शादी करवाई थी। मेरा जन्म 19 जुलाई 1938  को कोल्हापुर में ढाबोलकर नर्सिंग होम में हुआ। मेरे पिता बनारस में स्थाई हो गए थे,  फिर भी मेरी मां प्रसूति के लिए कोल्हापुर आई थीं। जन्म के कुछ महीनों बाद वह मुझे लेकर बनारस आईं और विश्वविद्यालय के परिसर में मेरा बचपन बीता।

‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर,  यह सब विद्या की राजधानी’। यह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलगीत था। यह कुलगीत किसी वक्त बीएचयू में प्राध्यापक रहे प्रसिद्ध वैज्ञानिक शांति स्वरूप भटनागर ने लिखा था। जैसा कि कुलगीत में कहा गया है,  बीएचयू का कैम्पस व्यवस्थित,  हरा-भरा,  शांत और सुंदर है। कहा जाता है कि विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी ऑक्सफोर्ड-कैम्ब्रिज की वास्तुकला से प्रभावित थे और नया विश्वविद्यालय बनाते समय कुछ समय ऑक्सब्रिज का अनुसरण करने की उन्होंने कोशिश की थी। उन्होंने सोचा कि ऑक्सफोर्ड में आइसिस नदी और कैम्ब्रिज में ग्रांटा नदी बहती है। तो हमारा विश्वविद्यालय गंगा किनारे क्यों न हो। यह सोचकर उन्होंने गंगा के किनारे जमीन हासिल कर सन 1916  में विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया,  लेकिन गंगा के मुकाबले आइसिस और ग्रांटा तो छोटे-छोटे नाले ही हैं।

शिलान्यास के वर्ष ही वर्षा ऋतु में गंगा में विशाल बाढ़ आई और विश्वविद्यालय की जगह पूरी पानी में डूब गई। तब गंगा माई को दूर से ही नमस्कार करके,  मील-डेढ़ मील दूर जाने का फैसला संस्थापकों ने लिया। इसलिए आज शिलान्यास की जगह गंगा के करीब,  और बीएचयू का परिसर गंगा से दूर दिखता है। फिर भी एकाध साल गंगा की बाढ़ विश्वविद्यालय परिसर तक आ जाती है। ऐसे वक्त यूनिवर्सिटी गेट के आसपास की जगह नाव से घूमने का अनुभव मैंने बचपन में प्राप्त किया है।

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मेरे बचपन में सन 1946  में मालवीय जी का देहांत हो गया। उसके वर्षों पहले ही स्वास्थ्य की वजह से उन्होंने विश्वविद्यालय का जिम्मा बतौर कुलगुरु डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को सौंप दिया था। डॉ. राधाकृष्णन जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति विश्वविद्यालय में आए,  यह सौभाग्य की बात थी। डॉ. राधाकृष्णन सन 1940 से 48  तक कुलपति रहे। दर्शन के क्षेत्र में उनकी ख्याति और गुणग्राही वृत्ति की वजह से भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान विश्वविद्यालय की ओर आकर्षित हुए और बीएचयू सचमुच सर्वविद्या की राजधानी बन गया। उस वक्त विश्वविद्यालय में एक छोटा सा भारत ही रहता था। देश के विभिन्न प्रांतों के,  विभिन्न जाति-धर्मों के और विभिन्न भाषाओं के विद्यार्थी और शिक्षक वहां थे। इन सबके लिए सांस्कृतिक मंच और संगठन बन गए,  साथ में हॉस्टल में विविध प्रांतों की मेसेस भी मौजूद थी। आंध्र मेस में आंध्र प्रदेशीय खाना,  महाराष्ट्रियन मेस में मराठी खाना और बंगाली मेस में बंगाली किस्म का खाना मिलता था। हर मेस उस प्रांत के लड़के ही चलाते थे।

अंग्रेजी राज के दौरान यह विश्वविद्यालय बना और भारतीय परंपरा पर उसका आग्रह था। ब्रिटिश सरकार की ओर से विश्वविद्यालय को कोई खास सहायता या प्रोत्साहन नहीं मिलता थी और निजी दान पर विश्वविद्यालय चलता था। इसलिए फिजूलखर्ची न हो और यथासंभव किफायत बरती जाए,  यह संस्थापकों का आग्रह था। मालवीय जी और राधाकृष्णन के आग्रह पर आए विद्वान उसी तरह समर्पित भाव से शिक्षा और शोध का काम करते थे। सन 1942  के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बीएचयू में आश्रय पाते थे। उस वजह से सरकार भी विश्वविद्यालय से नाराज थी। एक बार यूपी (यूनाइटेड प्रॉविंसेज)  सरकार ने विश्वविद्यालय में एक सैनिक दस्ता भेजने का फैसला किया। उस वक्त कुलपति डॉ. राधाकृष्णन ने विश्वविद्यालय परिसर में सेना या पुलिस के घुसने का विरोध किया। ‘हमारे परिसर में कानून और व्यवस्था बनी रहेगी,  इसकी मैं बतौर कुलपति गारंटी लेता हूं,  लेकिन बाहर से सेना हमारे यहां नहीं आएगी।’  जब उन्होंने दृढ़ता से यह कहा तो ब्रिटिश सरकार भी पीछे हट गई। असाधारण प्रतिष्ठा और गुणवत्ता का व्यक्ति अगर कुलपति हो तो सरकार भी उससे दब जाती है।

इस पृष्ठभूमि में आज की परिस्थिति हृदय विदारक है। कुछ साल पहले मैं बीएचयू में कुलपति से मिलने गया था, तब वे फोन पर बात कर रहे थे। बनारस के जिला न्यायाधीश से वे व्याकुलता से विनती कर रहे थे कि विश्वविद्यालय में तुरंत एक पुलिस का दस्ता भेजा जाए,  क्योंकि परीक्षा के वक्त विद्यार्थी कुछ गड़बड़ कर सकते हैं। जब मैं कुलपति के साथ दीक्षांत समारोह के लिए गया तब हमारी गाड़ी के आगे-पीछे जीपों में सशस्त्र पुलिसवाले थे। कालाय तस्मै नम:।

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