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अमानवीयता के खिलाफ शब्द

साहित्यकार अपने समय की हलचलों से एक संवेदनशील नागरिक की तरह जुड़ा होता है और साथ ही वह समकालीन घटनाओं के व्यापक मानवीय आयामों को भी देखता है। पिछले दिनों कथाकार गोविंद मिश्र को के. के. बिड़ला...

अमानवीयता के खिलाफ शब्द
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 04 Oct 2014 07:42 PM
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साहित्यकार अपने समय की हलचलों से एक संवेदनशील नागरिक की तरह जुड़ा होता है और साथ ही वह समकालीन घटनाओं के व्यापक मानवीय आयामों को भी देखता है। पिछले दिनों कथाकार गोविंद मिश्र को के. के. बिड़ला फाउंडेशन का ‘सरस्वती सम्मान’ दिया गया। प्रस्तुत है सम्मान समारोह में दिया गया उनका वक्तव्य।


के. के. बिड़ला फाउंडेशन को धन्यवाद कि उसने सरस्वती सम्मान के रूप में समाज का स्नेह मुझ तक पहुंचाया। भारतीय भाषाओं के विद्वान साहित्यकार जो इस चयन के विभिन्न स्तरों पर थे, जिन्होंने मेरे उपन्यास ‘धूल पौधों पर’ को इस सम्मान के लिए चुना, उन्हें भी.. लेकिन धन्यवाद थोड़ा छोटा शब्द लगता है यहां। अपने देश में कितनी भाषाएं और बोलियां हैं, पर उनमें जो संस्कार बोलते हैं, वे एक हैं, जो हमें सहज ही एक दूसरे से जोड़ देते हैं। उनके बीच होना, उनके मनीषियों द्वारा इस सम्मान के लिए चुना जाना बड़ी प्रीतिकर अनुभूति है.. और प्रेम के लिए धन्यवाद नहीं दिया जाता, उपकृत हुआ जाता है। इसे दम्भ न माना जाए, पर मुझे लगता है कि साहित्यकार होने से बड़ा कोई दूसरा वरदान देने के लिए ईश्वर के पास नहीं है। बेशक यहां दु:ख का अम्बार है, जिसमें बीच से गुजरना.. नहीं, उसमें रहना साहित्यकार की नियति है - अपना दु:ख, दूसरों के दु:ख, अपने देश और समय का दु:ख.. उन्हें अतिरिक्त संवेदनशील होने के कारण टूट जाने की हद तक वह भोगता है। लिखते हुए उन्हें जीवन में वापस लाता है, फिर भोगता है, बार-बार भोगता है। इस तरह अपनी हर रचना में साहित्यकार मरता है, एक जीवन में कितनी बार मरता है। अपने आसपास के यथार्थ के साथ-साथ, उसके पार जो समय है.. काल उससे उसकी मुठभेड़ रहती है, जो उसे सतत लहूलुहान करती है। तब जाकर कहीं साहित्य जन्मता है। जैसे मनुष्य के जीव के भीतर आत्मा है, ऐसे ही हर समाज की आत्मा होती है - और वह है उसका साहित्य.. पर जैसे मनुष्य वैसे ही समाज, अपनी आत्मा की आवाज अक्सर नहीं सुनता, उसकी कद्र नहीं करता।

इसलिए सतत उपेक्षित रहना भी साहित्यकार की नियति है.. फिर भी.. क्यों यह उसका धर्म-कर्म दोनों है, इसलिए आवाज तो उसे उठाना ही है, वह भी माइक की मोटी आवाज नहीं, साहित्य की महीन आवाज, खुद को भवभूति की तरह सांत्वना देते हुए कि आज न सही, भविष्य में जरूर कोई समानधर्मा - मेरे जैसा सोचने वाला - आएगा - ‘उत्पस्यते कोपि समानधर्मा, कालो हि निरवधि, विपुला च पृथ्वी..’ इतना धीरज रखना कि समय निस्सीम और पृथ्वी विपुल है, साहित्यकार होना फिर भी वरदान है.. इसलिए कि छोटे-से जीवन में वह अपने अलावा कितने दूसरों के जीवन में हिस्सेदारी कर सका; उसके पहले जो गए उन साहित्यकारों को - किसी भाषा या देश के - उन्हें अपने में बहता महसूस कर सका.. और अच्छाई जो अंशमात्र ही सही, हर युग, हर समाज में रहती है, जिसके बिना कोई समाज जीवित नहीं रह सकता.. उसे अपने साहित्य में सहेज सका, ताकि अगली पीढ़ी तक भी वह पहुंचे। बाहर से एक कोने में सिमटा बैठा, निष्क्रिय दिखता, उपेक्षित किया जाता साहित्यकार नाम का यह प्राणी किस विराटता को जी रहा है - दूर से इसकी कल्पना ही की जा सकती है, पास से देखना हो तो उसके साहित्य को पढ़ना होगा।

बाहर से दोस्तोव्हस्की एक कमजोर आदमी, मिर्गी का रोगी और जुआरी था.. लेकिन किस विराटता को वह जी रहा था.. यह दिख जाता है, जैसे ही हम ‘ब्रदर्स करामाजोव’, ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ जैसी रचनाओं से गुजरते हैं। हमारे पूर्व मनीषी और साहित्यकार जो हमारे लिए लिखकर छोड़ गए.. उसे पढ़े बगैर हम संसार से गुजर गए, तो अपनी तमाम डिग्रियों के बावजूद अशिक्षित ही गए। इन दिनों सबसे अधिक जो चीज मुझे व्यथित करती है, वह है क्रूरता। प्रेमिका के अस्वीकार पर उसके चेहरे पर तेजाब फेंक आना.. वह भी तब जब वह मंडप में बैठी है, एक के द्वारा नहीं, कइयों द्वारा सामूहिक बलात्कार, लड़की फिर भी बच गई तो मार डालना, लाश को भी क्षत-विक्षत करना, खाप पंचायतों द्वारा प्रेमियों का वध, उन्होंने अपने मन से विवाह किया तो बाप बहकाकर बेटी को घर बुलाता है और मार डालता है, भाई अपनी बहन और उसके प्रेमी को मार डालता है। जंग पहले भी होती थीं.. बाकायदा घोषित होकर, आमने-सामने की। आज आपका दुश्मन कोई और है, आप मार किसी और को रहे हैं - दूर बैठे स्त्रियों, बच्चों को।

कुछ दिनों पहले अखबार में एक फोटो छपी थी- एक छह माह का बच्चा हवाई हमले में घायल, टोकरी में पड़े उसकी निरीह आंखें सामने देख रही थीं, कैसी उदासी थी उनमें.. वे आंखें लगातार मेरा पीछा करती हैं, जवाब मांगती हैं - उसका कुसूर? कोई आपके धर्म को नहीं मानता.. तो लड़कियों को बकरियों के झुंड की तरह हांक ले जाओगे, लोगों को मारकर उनकी लाशों पर बंदूक लिए नाचोगे। इक्कीसवीं सदी में शहर के बीचोंबीच गर्भवती स्त्री को पत्थर मार-मार कर मार डालते हो.. गिनाता चला जा सकता हूं.. एक से एक क्रूरताएं, जैसे आज आदमी यही सोचता, करता है कि कैसे कौन क्रूरता और क्रूर की जा सकती है। कहां से चली आ रही है यह क्रूरता? हमने अपने जीवन से धर्म के सत्व को और प्रेम को निष्कासित कर दिया है। हम अपने बच्चों को ऐसी तालीम नहीं दे रहे कि वे आदमी से ऊपर उठकर इनसान बनने की तरफ चलें, उल्टे हमारी तालीम उन्हें नीचे धकेल हैवान बना रही है। आप मुझे सिरफिरा करार दें, फिर भी मैं कहूंगा कि किसी भी समाज में सबसे अधिक वेतन स्कूल के अध्यापकों को मिलना चाहिए.. और विश्व साहित्य, उस समाज का श्रेष्ठ साहित्य उपयुक्त ढंग से विभिन्न स्तरों के लिए चुनकर पढ़ाया जाना चाहिए, शुरू से आखिर तक, प्रोफेशनल पढ़ाई में भी।

बेशक अध्यापकों और साहित्य- दोनों के चुनाव में उच्चतम स्तर की निष्पक्षता और इसलिए चुनने वालों में एक ही प्रतिबद्धता होगी - मानवता के प्रति। साहित्य की वकालत मैं इसलिए नहीं कर रहा कि मैं साहित्यकार हूं.. इसलिए कि किसी भी भाषा या समाज में किसी भी युग के उसके मान्य लेखकों के साहित्य को उठा लीजिए - वहां प्रेम और करुणा - सर्वोच्च मूल्य मिलेंगे, सतत धारा है वह। धर्म का सत्व श्रेष्ठ साहित्य में घुला होता है; वहां वह जमीन से, मनुष्यों से, अक्सर उनकी कमजोरियों के बीच से उठता है.. इसलिए पाठक के भीतर तक उतरता चला जाता है। साहित्य धर्म की तरह उच्चसन पर बैठ उपदेश नहीं देता, बल प्रयोग नहीं करता, हमसे सटकर बैठता है, मीठे से हमारे कान में फुसफुसाता है। फिलहाल मैं- एक कोने में बैठा, छोटा-सा आदमी - क्या कर सकता हूं। अपने समय, समाज को नहीं बदल सकता, पर इतना तो कर सकता हूं कि जो लोग मेरे पास या दूर.. पृथ्वी पर इस वक्त चल रहे हैं - मेरे सहयात्री, उनके दु:खों में हिस्सेदारी करता चलूं; वह लिखूं, जो मुझे और उन्हें यह समय, यह जीवन झेलने की ताकत दे.. कम से कम इतनी कि हमारा जीवन में, मनुष्य में विश्वास बना रहे!

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