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1965 की जंग के महानायक

भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ी गई 1965 की जंग के पचास साल पूरे हुए। पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय जवानों ने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया था, आज उसके कई किस्से हम भूलने लगे हैं। 213 वीर सेनानियों (56...

1965 की जंग के महानायक
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 03 Sep 2015 03:27 PM
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भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ी गई 1965 की जंग के पचास साल पूरे हुए। पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय जवानों ने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया था, आज उसके कई किस्से हम भूलने लगे हैं। 213 वीर सेनानियों (56 मृत्युपरांत) को शौर्य-पदकों से सम्मानित किया गया था, जिनमें परमवीर चक्र, महावीर चक्र और वीर चक्र शामिल हैं। आज उनमें से कुछ ही योद्धा हमारे बीच हैं। असाधारण वीरता की कुछ गाथाएं -

कैप्टन अमरिंदर सिंह
दिसंबर, 1964 में पश्चिमी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह के सहायक सैन्य अधिकारी (एडीसी) के तौर पर मैं शामिल हुआ था। मुझे 1965 की लड़ाई को पाकिस्तान के ऑपरेशन जिब्राल्टर के समय से ही सबसे ऊंचे स्तर से देखने का मौका मिला था। इसी ऑपरेशन की मदद से पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठ की कोशिश की थी।

हम लोगों ने जब वहां पाकिस्तानी फौज को मात दी और ऑपरेशन जिब्राल्टर नाकाम हुआ, तब उन्होंने पंजाब पर चढ़ाई कर दी और खेमकरन को अपने कब्जे में लिया। हमें हर जगह से पाकिस्तानी फौज की लामबंदी की खबरें मिल रही थीं। माना जा रहा था कि पाकिस्तानी डिवीजन तीन तरफ से आक्रमण कर रहा है- एक टुकड़ी अमृतसर के दक्षिण की ओर बढ़ रही है, दूसरी जंडियाला की ओर बढ़ रही है और तीसरी ब्यास की ओर। नौ सितंबर की रात घड़ी की सुइयां जब 3:30 बजा रही थीं, तब मुझे फोन की घंटियां सुनाई दीं। जनरल हरबख्श सिंह ने कह रखा था कि मुझे थोड़ा सोने देना, क्योंकि वह खेमकरन से देर रात ही लौटे थे।

उधर फोन पर थल सेनाध्यक्ष जनरल जे एन चौधरी थे, जिन्होंने मुझे जनरल सिंह को जगाने के लिए कहा। मैंने जनरल सिंह को सोए हुए में हिलाया-डुलाया। जनरल चौधरी ने उन्हें पंजाब में भारतीय सैनिकों को वापस लेने को कहा, तिस पर जनरल सिंह ने जवाब दिया, 'आप लड़ाई के मैदान में हालात देखे बगैर सिर्फ आदेश नहीं दे सकते और मैं उनको मानता नहीं रह सकता। मैं थका हुआ हूं और सोने जा रहा हूं।'

अगले दिन मैं अंबाला आर्मी एयरपोर्ट पर जनरल  सिंह के साथ गया, वहां थल सेनाध्यक्ष आने वाले थे। जनरल जे एन चौधरी आक्रामक और बड़े उत्साहित दिख रहे थे, लेकिन उन्होंने पिछली रात के अपने आदेश के समर्थन में कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि तब तक असल उत्तर में लड़ाई थम चुकी थी और हालात हमारे पक्ष में आ चुके थे।

सचमुच, अगर उस समय हमारे पास एक कमजोर जनरल होता तो भारतीय सेना का मनोबल गिरता और हम पंजाब गंवा चुके होते।
प्रस्तुति: सुखदीप कौर

कर्नल संसार सिंह, 79
वीर चक्र
रेजिमेंट: 7 सिख, पुंछ

कर्नल संसार सिंह की तबीयत ठीक नहीं चल रही, पर जब वह 7 सिख रेजिमेंट की बहादुरी के किस्से सुनाने लगते हैं तो उनके चेहरे पर बीमारी की शिकन नहीं दिखती। 7 सिख रेजिमेंट जम्मू एवं कश्मीर के पुंछ सेक्टर में पाकिस्तानी सैनिकों से भिड़ी थी। कर्नल, ओपी हिल की लड़ाई में शामिल हुए थे। उन्होंने उस कंपनी की अगुवाई की थी, जिसने इस पहाड़ी पर कब्जा जमाया। उस लड़ाई में 80 जवान, जिनमें 18 उनकी कंपनी के थे, शहीद हुए। लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने इसे सबसे कठिन मुकाबला बताया था। 

वीरता का काम: रात आठ बजे हमने अरदास पूरी की और अचानक ही भारी गोलाबारी की चपेट में आ गए। उनके पास छह से भी अधिक स्वचालित मशीन गनें थीं। हम लोगों ने अपने आपसे कहा: अभी या कभी नहीं। हमने जवाब देना शुरू किया, जबकि हम जानते थे कि हमसे पहले वाली कंपनियों को ज्यादा सफलता नहीं मिली थी। सुबह आठ बजे तक ओपी हिल पर हमारा कब्जा हो चुका था।

कैप्टन रीत मोहिंदर पाल सिंह, 72 वीर चक्र, 8वीं लाइट केवेलरी, लाहौर-फिरोजपुर
जिन्होंने मौत को भी मात दी

कैप्टन रीत मोहिंदर पाल सिंह बड़े गर्व के साथ सुनाते हैं कि कैसे 22 साल की उम्र में उन्होंने जंग के मैदान में अदम्य साहस दिखाया, जिसमें उन्होंने अपनी एक आंख गंवा दी। फौज से हटने के बाद उन्होंने पटियाला में खेती-किसानी शुरू की और बाद में नाभा में उनके नाम पर एक गैस एजेंसी आवंटित हुई। उन्होंने अपने बच्चों को फौज में जाने के लिए प्रेरित किया।

वीरता का काम: 22 सितंबर, 1965 को सेकंड लेफ्टिनेंट रीत मोहिंदर पाल सिंह एक टैंक टुकड़ी की अगुवाई कर रहे थे, जिसे लाहौर सेक्टर में दुश्मन के ठिकाने को कब्जा करने के लिए कहा गया। 400 गज अंदर घुसने पर वह एक बारूदी सुरंग के ऊपर आ गए। गोलाबारी के बावजूद वह नीचे उतरे, ताकि टुकड़ी को कोई सुरक्षित जगह मिले। छाती और दाहिने हाथ में गोली लगने के बावजूद उन्होंने अपना मिशन पूरा किया। फिर एक धमाके ने उनके चेहरे को भी जख्मी कर दिया।

एयर मार्शल पीपी सिंह, 88, महा वीर चक्र, स्क्वॉड्रन नंबर 5, आगरा एयर बेस, आईएएफ
वायु सेना के हीरो

वह 1965 की लड़ाई के दौरान आईएएफ के नंबर पांच 'टस्कर्स' स्क्वॉड्रन का नेतृत्व कर रहे थे। कैनबरा बमवर्षक से स्क्वॉड्रन लैस था और उसे बम बरसाने, थल सेना को नजदीकी मदद देने और सशस्त्र गश्त लगाने की तीन जिम्मेदारियां दी गई थीं। उन्होंने इस लड़ाई में पाकिस्तानी वायु सेना को काफी नुकसान पहुंचाया। उन्हें महा वीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो देश का दूसरा सबसे बड़ा सैन्य सम्मान है। उन्हें 1972 में अति विशिष्ट सेवा पदक और 1985 में परम विशिष्ट सेवा पदक मिले।
वीरता का काम: छह से नौ सितंबर के बीच उन्होंने छह ऑपरेशन चलाए, जिसमें सरगोधा, डाब, अखवाल और मरुद हवाई पट्टी पर कामयाबियां मिलीं। पेशावर हवाई पट्टी को निशाना बनाया गया और पाकिस्तानी टुकडि़यों पर भी बमबारी हुई।  

ब्रिगेडियर संत सिंह, 95, सख लाइट इन्फेंटरी, मंढेर-पुंछ, महा वीर चक्र
कई युद्धों में दिखाया लोहा

ब्रिगेडियर संत सिंह दूसरे विश्व युद्ध, 1961 के चीन-युद्ध के अलावा पाकिस्तान के खिलाफ 1948, 1965 और 1971 की लड़ाई में शामिल हुए। 1965 व 1971 में, दोनों बार अपनी वीरता के लिए वह महावीर चक्र से सम्मानित हुए। 1973 में वह रिटायर हुए और अब 95 साल के हैं। 1965 की लड़ाई में वह लेफ्टिनेंट कर्नल थे और मेंढर में अपनी वीरता के प्रदर्शन के कारण उन्हें मेडल प्राप्त हुआ। वहां एक छावनी का नाम उनके सम्मान में रखा गया है।

वीरता का काम: युद्ध-विराम के बाद पाकिस्तान ने मेंढर में कालडोपी हिल पोस्ट पर चुपचाप कब्जा जमा लिया। दोबारा नियंत्रण के लिए जिस पैदल सेना ने हमला किया, वह नाकाम हुई। फिर डिविजनल  कमांडर लेफ्टिनेंट अमरीक सिंह ने लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह को रात में हमला करने की योजना बनाने को कहा, ताकि कम से कम नुकसान हो। छोटी टुकड़ी के बावजूद दो नवंबर, 1965 की रात को उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए।

हवलदार बुध सिंह, 71, वीर चक्र रेजिमेंट: 4 राजपूत, कारगिल माटी का बेटा
हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के हवलदार बुध सिंह का बचपन से ही सपना था कि फौज में शामिल होना है और देश के लिए लड़ना है। उनकी पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई, लेकिन अपने परिवार के दूसरे लोगों की तरह वह जैसे ही18 साल के हुए, भारतीय सेना से जुड़ गए। 4 राजपूत रेजिमेंट के इस जवान का सपना पूरा होने में ज्यादा देर नहीं लगी। उन्हें कारगिल में तब तैनात किया गया, जब पाकिस्तानी घुसपैठियों ने एक पोस्ट पर हमला बोल दिया। उनकी कोशिश को नाकाम करने के लिए वह बड़ी बहादुरी से लड़े। वह 1971 युद्ध में भी शामिल हुए। अब वह कठिन समय से गुजर रहे हैं।

वीरता का काम: 16 मई, 1965 को पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कारगिल में एक पोस्ट पर हमला किया। सिपाही बुध सिंह की बटालियन को घुसपैठियों को खदेड़ने और एक निर्णायक बढ़त हासिल करने का आदेश मिला। कंपनी के नेतृत्व दल के हिस्से के तौर पर उन्हें ग्रेनेड फेंकने व गोलियां चलाने की जिम्मेदारी मिली और लक्ष्य हासिल करने तक वह काम को अंजाम देते रहे।

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