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आरोपित एकांत में चिंतन

यह पुस्तक अरुण माहेश्वरी की जेल डायरी है। दुनियाभर के कारागार आज भी वस्तुत: अकल्पनीय यातनागृह बने हुए हैं। अनेक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और विचारकों ने इस आरोपित एकांत में धकेले जाने के...

आरोपित एकांत में चिंतन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 16 Aug 2014 10:00 PM
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यह पुस्तक अरुण माहेश्वरी की जेल डायरी है। दुनियाभर के कारागार आज भी वस्तुत: अकल्पनीय यातनागृह बने हुए हैं। अनेक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और विचारकों ने इस आरोपित एकांत में धकेले जाने के बाद इसका सदुपयोग किया है। इटली के माक्र्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी (1891-1937) की जेल डायरी को आज श्रेष्ठ वैचारिक लेखन का उदाहरण माना जाता है। फासिस्टों के कारागार में रहते हुए उन्होंने अपने देश के इतिहास, संस्कृति, मॉर्क्सवाद, कम्युनिस्ट पार्टी आदि के बारे में गहन चिंतन-विवेचन किया था। माहेश्वरी ने एक प्रकरण के तहत जेल पहुंचने के बाद डायरी लिखनी शुरू की तो उसमें उन्होंने ग्राम्शी के लेखन-चिंतन की विवेचना की। उन्होंने भारत में वामपंथी आंदोलनों और सक्रिय दलों के बारे में भी विचार किया है, जो बहसतलब है। सिरहाने ग्राम्शी, अरुण माहेश्वरी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-2, मूल्य : 400 रु.

दृढ़ जीवन-स्वप्न
यह आर. अनुराधा का पहला कविता-संग्रह है। पूर्व में उनकी एक किताब, ‘इंद्रधनुष के पीछे पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी’ छपी थी, जो खासी चर्चित रही थी। इस किताब में उन्होंने कैंसर से जुड़े अपने अनुभवों को दर्ज किया था, जिसमें बीमारी से संघर्ष के अनथक जज्बे और जीवन के प्रति गहरे अनुराग को देखा जा सकता है। आज अनुराधा नहीं हैं, लेकिन उनकी इन कविताओं में भी वैसा ही जज्बा और अनुराग उपस्थित है। इन्हें उचित ही ‘जीवन के तूफानों से उपजी और आशाओं के अंतरीप बनाती’ कविताएं कहा गया है। इन कविताओं में बार-बार कैंसर का जिक्र है, किसी चुनौती, किसी अवरोध की तरह यह बीमारी बार-बार रास्ते में खड़ी मिलती है जिसे कवयित्री अपने दृढ़ जीवन-स्वप्न के बूते नकारती-हटाती चलती है। वास्तव में ये कविताएं नश्वरता के खिलाफ मानवीय प्रतिरोध की अभिव्यक्ति हैं। अधूरा कोई नहीं, आर. अनुराधा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली-2, मूल्य : 250 रु.

अनुभूतियों के शिखर
स्वाति मेलकानी का उत्तराखंड से रिश्ता रहा है और इस कविता संग्रह में इसकी छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। इनकी कविताओं में देवदार है, पहाड़ की औरतें हैं, पहाड़ की चटकती परतें, औरत के अंदर मौजूद पहाड़, बरसाती नदी है, पहाड़ में अजनबी आग है- मतलब कि श्वेता की कविता में पहाड़ एक आधार की तरह उपस्थित है। लेकिन वह प्राकृतिक सुषमा का वर्णन-चित्रण करने या क्षेत्र विशेष से जुड़े विषयों पर कविताएं रचकर उसके प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली भूमिका तक सीमित नहीं हैं। वह गतिमान यथार्थ से परे, चिर जड़त्व से शासित धुरी को आदि से पकड़ती हैं। प्रेम इन कविताओं में बार-बार ध्वनित होता है। सामाजिक विद्रूपताओं पर वह प्रहार करती हैं और स्त्री मन के तप्त अनुभव इन कविताओं में आते हैं। जब मैं जिंदा होती हूं, स्वाति मेलकानी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली -3, मूल्य: 170 रु.

आपबीती
नरेंद्र कोहली की ख्याति रामायण और महाभारत पर उनके विशाल उपन्यासों को लेकर रही है। अब उन्होंने अपनी कहानी पर कलम चलानी शुरू की है। यह उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी है। इसमें उन्होंने अपने जन्म से लेकर विवाह तक का वृत्तांत लिखा है। उनका जन्म स्यालकोट में हुआ था। विभाजन के बाद वे जमशेदपुर आ गए। स्वाभाविक ही आत्मस्वीकृति के शुरुआती हिस्से में इस दौर का मार्मिक वर्णन है। आगे कोहली ने अपनी साहित्यिक यात्रा का जिक्र किया है। अपनी रुचियों और परिवेश का। आत्म स्वीकृति, नरेंद्र कोहली, हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली-3, मूल्य : 250 रु.

 

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