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किताबों से बाहर आते शब्द

इंटरनेट पर हिंदी के पाठकों की संख्या बढ़ी है, तो सोशल मीडिया पर लेखकों की। 2016 का यह भी एक सच है। 2017 आते-आते साहित्य किताबों से निकल कर यूट्यूब तक जा पहुंचा, तो निराला की कविताएं रॉक की धुनों संग...

किताबों से बाहर आते शब्द
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 31 Dec 2016 09:21 PM
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इंटरनेट पर हिंदी के पाठकों की संख्या बढ़ी है, तो सोशल मीडिया पर लेखकों की। 2016 का यह भी एक सच है। 2017 आते-आते साहित्य किताबों से निकल कर यूट्यूब तक जा पहुंचा, तो निराला की कविताएं रॉक की धुनों संग जुगलबंदी करती दिखाई दीं। किंडल का हिंदी वर्जन बाजार में धूम मचा रहा है, तो छोटे-छोटे एप में बड़े-बड़े उपन्यास नए पाठकों के  बीच अपनी जगह बना रहे हैं। इस नए ट्रेंड की कई खासियतें हैं। नई संभावनाएं भी। कुछ कमियां भी हैं और चुनौतियां भी। इस बदलते परिदृश्य पर हमने तमाम रचनाकारों से बात की। एक आकलन प्रस्तुत कर रही हैं अरशाना अजमत

साल 2017 की शुरुआत और साहित्य। बहुत कुछ बदला दिख रहा है। हिंदी साहित्य के डिजिटलीकरण और सोशल साइट्स पर अभिव्यक्ति की जो बानगी पिछले कुछेक साल से दिख रही थी, साल 2016 में उसका बूम नजर आया। जाहिर है, नए साल में यह लहर और आगे बढ़ेगी। इस बदलाव के तहत किताबों का फॉर्मेट बदल गया और साहित्य की शैली भी। ‘चंद्रकांता’ जैसा विशालकाय उपन्यास कुछ एमबी की मोबाइल एप्लिकेशन में सिमट गया है, तो कविता के लिए अब व्याकरण की मात्राओं पर पूरा उतरना अनिवार्य शर्त नहीं रही। लेखकों को अब प्रकाशकों की उतनी जरूरत नहीं है, क्योंकि उनके पास लिखने के लिए फेसबुक और ट्विटर हैं। पाठक भी मुनाफे में हैं।

वरिष्ठ साहित्यकार उदय प्रकाश के शब्दो में, ‘महात्मा गांधी की जो आत्मकथा किताब के तौर पर 250 या 300 रुपये में मिलती है, इंटरनेट पर महज 12 रुपये में बिक रही है।’ शायद यही वजह है कि इंटरनेट पर पाठकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। रेख़्ता के फेसबुक पेज पर ही अकेले साढ़े चार लाख से ज्यादा पाठक हैं। साहित्य में आई यह ‘सोशल क्रांति’ सिर्फ पाठकों की संख्या नहीं बढ़ा रही, बल्कि लेखकों की नई जमात भी तैयार कर रही है। शुभम श्री, बाबुषा कोहली को पहली लोकप्रियता फेसबुक पर ही मिली, साहित्य जगत का हिस्सा वे बाद में बनीं। 

मोबाइल एप में हिंदी क्लासिक्स 
गूगल प्ले पर जाइए, हिंदी या उर्दू लिटरेचर टाइप कीजिए। सैकड़ों एप खुलेंगे। ‘मंटो के खत अंकल सैम के नाम’ हो या प्रेमचंद की कहानियां, गुरुदेव की ‘गोरा’ हो या इस्मत चुगताई की ‘लिहाफ’, इन्हें पढ़ने के लिए बस इनके नाम के एप डाउनलोड करने हैं। पढ़िए, मन हो तो रखिए, वरना एप डिलीट कर दीजिए। कविता कोश के संस्थापक ललित कुमार कहते हैं कि पाठक के लिए ये आदर्श स्थिति है कि बिना एक पैसा खर्च किए उसे हिंदी की नई-पुरानी तमाम किताबें मिल रही हैं। 

तेजी से बढ़ रहे ऑनलाइन रीडर
ललित कहते हैं कि कविता कोश के पाठक इस समय लाखों में हैं। यही हाल रेख़्ता का भी है। राजकमल प्रकाशन ने तो अपनी वेबसाइट पर नामचीन लेखकों के ब्लॉग बना रखे हैं। नासिरा शर्मा से लेकर अलका सरावगी और तमाम पुराने लेखकों से रोजाना हजारों पाठक ऑनलाइन रूबरू हो रहे हैं। 

ऑडियो-वीडियो में कन्वर्ट होता साहित्य 
बाबुषा कोहली, कवयित्री

कोई दो बरस पहले एनआरआई मनीष गुप्ता ने कविताओं को शूट करके दिलचस्प वीडियो में कन्वर्ट करने की पहल की। शुरुआत में कहा गया कि यह साहित्य को बेचने का काम है। धीरे-धीरे यूट्यूब पर मनीष की हिंदी कविता के दर्शक बढे़। आज यहां 250 से ज्यादा कविताएं वीडियो की शक्ल में हैं। इम्तियाज अली फैज को गा-गुनगुना रहे हैं, नसीरुद्दीन शाह गालिब को, मनोज बाजपेयी दिनकर को, सौरभ शुक्ला भवानी प्रसाद मिश्र को, तो स्वरा भास्कर पाश की कविताएं पढ़ रही हैं। मनीष की इस बात से असहमत होने का कोई कारण नहीं कि कविता और बॉलीवुड की मिक्सिंग का फायदा यह  हुआ कि आम युवा कविता से मुतास्सिर हुए। आज मुम्बई में रॉक बैंड निराला की कविताएं गा रहे हैं। कई शहरो में ‘क’ से ‘कविता’ नाम से आयोजन शुरू हो गए। मनीष का इरादा अब लोकगीतों और कहानियों को वीडियो में कन्वर्ट करने का है।

मुद्दों को राईटिंग फैक्टरी का कच्चा माल मत बनाइए 
बाबुषा कोहली पहले फेसबुक पर लोकप्रिय हुईं, फिर साहित्य की दुनिया का बड़ा नाम बनीं। लेकिन जैसे तमाम लेखकों को सोशल साइट के लेखन में कमियां दिखती हैं, वैसे ही बाबुषा भी इंस्टैंट राइटिंग वालों को चेताती हैं। कहती हैं, ‘कुछ भी होते ही सोशल मीडिया में बाढ़ आ जाती है - तो प्लीज आतंकवाद, किन्नर, स्त्री विमर्श इन सबको राइटिंग फैक्टरी का कच्चा माल तो मत बनाइए।’ बाबुषा की राय में जैसे नृत्य की एक शास्त्रीयता होती है, वैसे ही लिखते समय भी बेसिक क्राफ्ट का ध्यान रहना चहिए ,‘सोशल मीडिया राइटिंग को शादी डांस मत बनाइए’। फ्री स्टाइल की आड़ में बचने वालों से वह पूछती हैं कि छंदमुक्त की अवस्था तो छंद की समझ से  ही आएगी न। बाबुषा को सबसे ज़्यादा लोकप्रिय ‘ब्रेक अप’ सिरीज ने किया। वह बताती हैं कि इस कविता पर इतने खत आए कि लगा पूरे हिंदुस्तान का दिल ही टूटा हुआ है। नए विषयों पर वह कहती हैं- ‘जीने का ढंग बदला है। रिलेशनशिप में क्रांति हो रही है। सोशल मिडिया रुटीन का हिस्सा बन गया है। लिहाजा ये सब लेखन का हिस्सा भी बन रहा है।’

बड़ा सवाल, फटाफट रीडिंग में गंभीर पाठक कितने हैं
ममता, कालिया कथाकार

पिछले दिनों मेरी एक किताब एक वेबसाइट ने लॉन्च की। किताब को 20,000 पाठक मिले। ये अच्छी बात है, लेकिन मेरी चिंता यह है कि नेट पर तो एक क्लिक में रीडर काउंट हो जाता है। सवाल है कि 20 हजार में से कितने पाठकों ने वाकई  किताब पढ़ी, कितनों ने सिर्फ लाइक या क्लिक किया। हमें ये समझना होगा कि सोशल साइट्स या ई-बुक्स एक सामानांतर व्यवस्था तो हो सकते हैं, लेकिन किताबों का विकल्प नहीं। यह भी देखना होगा कि किताबों को लेकर इंटरनेट पर हाइप तो खूब है, लेकिन क्या इसमें उतनी ही गंभीरता भी है? ऐसा तो नहीं कि हम पाठक को फटाफट रीडिंग वाली संस्कृति में ले जा रहे हों और उसे गंभीर साहित्य से दूर कर रहे हों।

सोशल मीडिया पर संपादक की परंपरा खत्म हो रही है
मैत्रेयी पुष्पा, कथाकार

मैंने अपने कई उपन्यासों के 10-11 ड्राफ्ट तैयार किए हैं, तब जाकर फाइनल कॉपी तैयार हुई। राजेंद्र यादव जी गजब का सुधार करवाते थे। सोशल मीडिया ने यह परम्परा और संपादक की भूमिका ही खत्म कर दी। जो समझदार लेखक हैं, उनकी बात अलग है, लेकिन कई ऐसे भी हैं, जो कुछ भी लिख कर पोस्ट कर देते हैं, फिर उनके साथी वाहवाही करने आ जाते हैं। मैं दिन भर देखती हूं, फेसबुक पर किसी के लिखे में कोई कमी नहीं निकाली जाती। शायद यही वजह है कि महान रचनाएं आनी बंद हो गई हैं। साहित्य तो चारों ओर बरस रहा है, लेकिन क्या कोई ऐसी रचना भी है, जिस पर आप बात करना चाहें। 


लेखकों की प्रकाशकों पर निर्भरता खत्म हुई
उदय प्रकाश, कथाकार 

वाल्टर बेंजामिन ने कोई सन 1970 के आसपास भविष्यवाणी की थी कि टेक्नोलॉजी कलात्मकता में मूल रूप से बदलाव लाएगी। यही हुआ भी है। लेखक और पाठक दोनों पर टेक्नोलॉजी का गहरा असर पड़ा है। मेरे हिसाब से इससे लेखक के लिए ज्यादा लोकतांत्रिक माहौल बना है। वह प्रकाशक से मुक्त हुआ है। उसकी रेंज भी बढ़ी है। नए और युवा लेखकों को अच्छी संख्या में फॉलोवर मिल रहे हैं। कितनी फिल्मे हैं, जो पहले यूट्यूब पर आ रही हैं, फिर पूरी दुनिया उनकी बात कर रही है। पाठक भी खुश हैं कि क्लासिक किताबें उनको बेहद कम दामों पर पढ़ने को मिल रही हैं। यह हम सबके लिए सुखद है।

ट्रेंड नया है, पर इसमें ठहराव आना अभी बाकी है
वीरेन्द्र यादव, आलोचक  

युवा पीढ़ी नए माध्यमों का इस्तेमाल अपनी कल्पनाशीलता के अनुसार  कर रही है, यह अच्छी शुरुआत है। लेकिन सच यह है कि अभी तक इसका कोई स्वरूप बनता नहीं दिख रहा।  दिशा नहीं दिख रही। सही है कि बदलते समय और नई तकनीक के चलते साहित्य का प्रचलित स्वरूप तो बदलेगा ही, लेकिन साहित्य को अंतत: साहित्य ही रहना होगा। इसके प्रचलित और नए बनते स्वरूपों के बीच संतुलन की जरूरत है। सच है और सुखद भी कि नए माध्यमों से साहित्य की पहुंच विस्तृत हुई है, लेकिन देखना होगा कि यह टिकाऊ भी हो। इसे तुरंता साहित्य, महज उपभोक्ता माल बनने से बचना होगा।

2017 की संभावनाएं
- यूट्यूब पर कहानियों के वीडियो 
- किंडल के हिंदी वर्जन से और ज्यादा उम्मीदें
- प्रतिलिपि, मूषक जैसी हिंदी साइट्स के साथ नए आयाम जुड़ेंगे
- कई प्रतिष्ठित हिंदी लेखकों के ई-कॉर्नर, जहां उनका पूरा साहित्य मिलेगा।
- सोशल साइट्स पर क्राउड मैनेजमेंट की पुख्ता व्यवस्था 

कुछ खास
- सबसे ज्यादा सर्च किए गए हिंदी लेखक: मानव कौल, ‘ठीक तुम्हारे पीछे’ के लिए
- कविता कोश में हमेशा पढ़े जाने वाले लेखक: गालिब, प्रसाद, फैज़, बच्चन, निराला
- 2016 में रेख़्ता के फेसबुक लाइक साढ़े चार लाख से ज्यादा 
- कविता कोश के फेसबुक लाइक एक लाख से ज्यादा 
- युवा कवयित्री, जिन्हें फेसबुक पर खूब पढ़ा जाता है: बाबुषा कोहली, शुभम श्री
- 1 दिसंबर से किंडल ने अपना हिंदी वर्जन लॉन्च किया, जिस पर बड़ी संख्या में किताबें बिकीं। 

साहित्य का दायरा बढ़ा
- कविता कोश की दस साल की सबसे बड़ी कामयाबी क्या है? 

हमने करीब एक लाख पन्नों का ऑनलाइन कोश तैयार किया है, यह अपने आप में बड़ी कामयाबी है। एक स्वयंसेवी संस्था के तौर पर लंबे समय तक काम करना भी एक बड़ी बात है। फिर हमने हिंदी से इतर राजस्थानी, हरियाणवी, भोजपुरी जैसी भाषाओं का साहित्य भी समेटा है। अनुवाद के स्तर पर भी लंबा काम किया है। तमाम भाषाओं- नॉर्थ ईस्ट , विदेशी कविताओं के अनुवाद पाठकों तक पहुंचाए हैं। 

- साल 2017 के लिए क्या एजेंडा है? 
साल 2017 तो बहुत छोटा है। समेटने और सहेजने के लिए इतना साहित्य है कि कम से कम सौ साल चाहिए।  

- लिटरेचर के ऑनलाइन आने से सबसे बड़ा फायदा क्या हुआ? 
इसकी रेंज बढ़ी है और पाठक संख्या भी। अकेले कविता कोश के कई लाख पाठक हैं। आप देखिए न, आज महानगरों में ट्रैवल में कितना समय खर्च होता है। इस समय में लोग मोबाइल में कुछ पढ़ लेते हैं। बड़े-बड़े लेखकों की रचनाएं आपको एक क्लिक पर फ्री में पढ़ने को मिल जाती हैं। 

- कई परंपरावादी लोग इसके खिलाफ हैं कि इससे किताबों का बाजार कम हो रहा है।
किताबों का सिर्फ स्वरूप बदला है। आप देखिए, गोस्वामी तुलसीदास ने पहली रामायण शायद पत्तों पर लिखी थी। इसका यह मतलब तो नहीं कि तब से अब तक पत्तों पर ही लिखा जाता रहे। 
ललित कुमार, कविता कोश के संस्थापक 


साहित्य लोगों तक पहुंच रहा है, अच्छी बात है 
सबसे अच्छी बात तो यही है कि साहित्य लोगों तक पहुंच रहा है। लेकिन इससे किताबों की अपनी दुनिया को किसी किस्म का खतरा नहीं है। सिर्फ उनका स्वरूप बदला है। पहले जब टीवी आया, तब भी लोगों ने सवाल उठाए कि अब किताबें कौन पढ़ेगा, लेकिन हुआ उल्टा। नए-नए लेखक सामने आए और पाठकों की संख्या लगातार बढ़ती गई। एक बड़ा सच यह है कि युवा आज भी बड़ी संख्या में किताबें खरीद रहे हैं।
अशोक माहेश्वरी, राजकमल प्रकाशन 

पाठकों की संख्या का पता लगाना मुश्किल 
इंटरनेट पर डाटा बैंक बनाना मुश्किल है। आप कह नहीं सकते कि कितने लोगों ने किताब पढ़ी। कितनों ने सिर्फ डाउनलोड करके छोड़ दी। कितनों ने सिर्फ क्लिक किया और आगे बढ़ गए। दूसरा, किताबों से हमारा चार-पांच सौ साल पुराना रिश्ता है, जबकि ई-बुक अभी आज की चीज है। ज्यादा से ज्यादा 10 साल पुरानी। इसलिए अभी इसके व्यापक असर पर बात करना मुनासिब नहीं लगता। हां, साहित्य का दायरा अगर बढ़ रहा है तो यह अच्छी बात है।
शैलेश भारतवासी, हिन्द युग्म  

साहित्य को किसी बैसाखी की जरूरत नहीं 
साहित्य लोगों तक पहुंचे, यह अच्छी बात है। माध्यम या क्राफ्ट कोई भी हो, इस लिहाज से हो रहे तमाम प्रयोग अच्छे हैं। पर यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रयोग करके आप कोई महान काम या किसी पर एहसान नहीं कर रहे। साहित्य कोई विकलांग बच्चा नहीं है, जिसे किसी बैसाखी की जरूरत है।  एक और बात, जो पढ़ना चाहते हैं, उन पर फोकस करें, जो डिस्को में या कहीं और वक्त गुजारना चाहते हैं, उन्हें क्यों डिस्टर्ब करें। 
मानव कौल, नाटककार

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