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दुनिया की तीसरी सबसे बेहतर मेट्रो हैं हम

साल 2002 में आठ किलोमीटर की लंबाई से अपनी यात्रा शुरू करने वाली दिल्ली मेट्रो अब 213 किमी की दूरी रोज तय करती है। शुरुआती 30 हजार यात्रियों की संख्या अब 30 लाख हो चुकी है, पर मांग है कि कम ही नहीं...

दुनिया की तीसरी सबसे बेहतर मेट्रो हैं हम
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 24 Oct 2016 12:44 AM
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साल 2002 में आठ किलोमीटर की लंबाई से अपनी यात्रा शुरू करने वाली दिल्ली मेट्रो अब 213 किमी की दूरी रोज तय करती है। शुरुआती 30 हजार यात्रियों की संख्या अब 30 लाख हो चुकी है, पर मांग है कि कम ही नहीं होती। यात्री सुविधाओं व संतुष्टि के मामले में यह विश्व की तीसरे नंबर की मेट्रो है। मेट्रो की चुनौतियों व योजनाओं पर दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के चेयरमैन मंगू सिंह से बात की राजनीतिक संपादक निर्मल पाठक ने:

- दिल्ली में मेट्रो शुरू हुए डेढ़ दशक होने को है। दुनिया की दूसरी मेट्रो से तुलना में हम कहां हैं?
दुनिया के जितने भी मेट्रो नेटवर्क हैं, उनकी एक संस्था है- कॉमेट, यानी कम्युनिटी ऑफ मेट्रोज। वह हर साल एक सर्वे कराती है। यात्रियों की संतुष्टि के पैमाने पर, यात्री ढोने की क्षमता या समय के अनुपालन के पैमाने पर यह सर्वे होता है। इसके हिसाब से हम दुनिया की तीसरी सबसे बेहतर मेट्रो हैं। इसका एक कारण यह कि हम आधुनिक हैं। बाकी जगह मेट्रो कई वर्षों से चल रही हैं, उनकी तुलना में हम काफी नए हैं। लेकिन हमारे प्रतिद्वंद्वियों में सिंगापुर, चीन, हांगकांग की मेट्रो भी हैं, जो हमारी तरह मॉर्डन हैं। इस लिहाज से यह काफी संतुष्टि वाली बात है। बाकी नेटवर्क की लंबाई के लिहाज से हम अभी 11वें नंबर पर हैं... यात्रियों की संख्या में भी हम 10 या 11 पर हैं।  फेस 3 पूरा होने के बाद हम चौथे या पांचवें स्थान पर होंगे।

- पांच साल पहले जब आपने ई श्रीधरन से चार्ज लिया, तब तक वह और मेट्रो एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे। आपने किसी तरह का दबाव महसूस किया?
मैं तो सिस्टम के अंदर ही था। इसलिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा सिवाय इस एहसास के कि अब सभी फैसले मुझे लेने हैं... पहले कोई और भी ले सकता था। बस यही फर्क लगा। चूंकि मैं सिस्टम का ही भाग था और श्रीधरन जी के समय जो सिस्टम तैयार हुआ, उसमें मेरा भी योगदान था। मैंने कभी तुलना के बारे में सोचा ही नहीं।

- शुरुआत से अब तक की यात्रा कैसी रही है?
साल 2002 में जब मेट्रो शुरू हुई, तब आठ किलोमीटर की लाइन थी। आज 213 किमी है। तब 30 हजार यात्री थे, आज 30 लाख हैं। सौ गुना का फर्क आ गया है। जिस तरह से हमने काम किया है, वह सबके सामने है। राज्यों में जो काम हो रहा है, वह इससे अलग है। पिछले पांच साल में तो हमने अद्भुत प्रगति की है। अब एक तरह से हम अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवान हो गए हैं। पहले जिला स्तर के थे।

- मेट्रो प्लान करते समय यात्रियों और नफे-नुकसान को लेकर किस तरह का अनुमान था?
मेट्रो प्लान करते वक्त अगले 30 साल की संभावनाओं को ध्यान में रखते हैं, लेकिन यात्रियों का अनुमान लगाना बहुत सी बातों पर निर्भर करता है। जैसे, अन्य बदलाव कैसे हो रहे हैं, शहर में कहां विकास हो रहा है, नई बसावट कहां है? ये बातें प्लानिंग के वक्त नहीं सोची जा सकतीं। इसलिए प्रोजेक्शन कई बार खरे नहीं उतरते।

- दिल्ली जैसे महानगरों में कैसा परिवहन व्यावहारिक है? क्या इंटीग्रेटेड सिस्टम होना चाहिए, जिसमें बस, रेल, फीडर सेवा, सब एक ही प्राधिकार के अधीन हों?
इस क्षेत्र में प्रयास हो रहे हैं। दिल्ली सरकार ने शहरी परिवहन के लिए राइट्स (रेल इंडिया टेक्निकल ऐंड इकोनॉमिक सर्विस लिमिटेड) से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करवाई है। मास्टर प्लान बनाया है कि कहां मेट्रो होनी चाहिए, कहां पर बीआरटी होना चाहिए और कहां एलआरटी वगैरह। उसी के हिसाब से हम चल रहे हैं। यह बात सही है कि मेट्रो के अलावा अन्य क्षेत्रों में प्रोग्रेस नहीं हुई।

- इतने विस्तार के बावजूद यात्रियों की परेशानियां कम नहीं हो रही हैं। भीड़ लगातार बढ़ रही है?
मेट्रो का नेटवर्क जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका पैटर्न भी बदलता है। फेस तीन आते ही यह पैटर्न बदलेगा। अभी कुछ जगह बहुत ज्यादा लोड है। जैसे सेंट्रल भाग है, लाइन तीन व चार में बहुत ज्यादा भीड़ है। सारा ट्रैफिक आता है राजीव चौक में इंटरचेंज करता है। फेस तीन के शुरू होते ही यह नजारा बदल जाएगा। हर यात्री को राजीव चौक आने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इंंटरचेंज बढ़ जाएंगे। जनकपुरी से गुड़गांव जाना है या द्वारका से गुड़गांव जाना है, तो यात्री को इधर आने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसे ही, नोएडा वालों को राजीव चौक नहीं आना पड़ेगा। अगले छह-सात महीने में पूरा नजारा बदलने वाला है। जैसे ही नेटवर्क पूरा होगा भीड़ की समस्या काफी सुलझ जाएगी।

- बड़े शहरों में खराब परिवहन, खराब प्लानिंग से प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है। इसका क्या समाधान है?
पब्लिक ट्रांसपोर्ट ही समाधान है। जब तक पब्लिक ट्रांसपोर्ट सुविधाजनक नहीं होगा, लोग अपनी प्राइवेट गाड़ियों से चलना बंद नहीं करेंगे। दिल्ली में फेस-तीन के बाद इसमें काफी सुधार आएगा। फेस-चार से नेटवर्क में और विस्तार होगा। इसके बाद मुझे उम्मीद है कि लोग अपने आप प्राइवेट गाड़ियां छोड़ पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करेंगे। लेकिन यह भी सही है कि मेट्रो केसाथ दूसरी और सुविधाएं भी बढ़नी चाहिए। अब हर जगह तो मेट्रो नहीं जा सकती। बस और फीडर सर्विस का अच्छा होना जरूरी है। मेट्रो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का एक बड़ा कंपोनेंट है। जो हाई कैपेसिटी कॉरीडोर हैं, वहां मेट्रो हो और बाकी जगह बस और फीडर सर्विस हो। दिल्ली मेट्रो अन्य राज्यों में इस सुविधा के विस्तार पर काम कर रही है। हमने मुंबई के लिए मेट्रो का मास्टर प्लान बनाया, उनकी डीपीआर तैयार की। एक लाइन उनके लिए बना भी रहे हैं। जयपुर में तो एक लाइन बनाकर दे चुके हैं। कोच्चि में एक लाइन बनाने का काम लगभग पूरा हो चुका है। आंध्र की नई राजधानी बनने जा रही विजयवाड़ा में अभी शुरू किया है। बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद की डीपीआर हमने बनाई थी। अब वे खुद निर्माण कर रहे हैं। लखनऊ की डीपीआर हमने बनाकर दी है। देश के बाहर ढाका में हम कन्सलटेंट हैं। इससे पहले जकार्ता मेट्रो में भी हमने योगदान किया है। राज्यों की परियोजनाओं में हम भागीदार नहीं हैं। मगर वे मदद मांगते हैं, तो हम उपलब्ध कराते हैं।

- आर्थिक तौर पर या राजस्व के हिसाब से दिल्ली मेट्रो की क्या स्थिति है?
दिल्ली मेट्रो का जो मॉडल है, उसमें दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार, दोनों का करीब-करीब 15 से 20 फीसदी का आर्थिक योगदान है। 50 से 55 फीसदी के आसपास लोन आता है। अभी जो हम अपनी आय से मेट्रो के संचालन का खर्च निकाल रहे हैं और जो बच रहा है, उससे लोन की किस्त दे रहे हैं। कुछ हम अतिआवश्यक कार्यों के लिए रिजर्व रखते हैं। जो रह जाता है, वह है दोनों सरकारों की इक्विटी, जिसका हमें अतिरिक्त फायदा मिलता है। हमने मेट्रो में विज्ञापन व स्टेशनों पर व्यावसायिक गतिविधियों के विकास के जरिये भी कमाई का रास्ता निकाला है। इससे भी हमें लगभग 250 से 300 करोड़ के बीच आमदनी हो रही है।

- लंबे समय से मेट्रो का किराया नहीं बढ़ा। इसका असर यात्री सुविधाओं पर नहीं पड़ रहा?
हमारी आय का मुख्य स्रोत तो किराया ही है, जिससे हम लोन चुका रहे हैं, अपना खर्च चला रहे हैं। अगर लंबे समय तक किराया नहीं बढ़ाया गया, तो फिर हमारा रिजर्व, जो कि हम आपातकाल के लिए रखते हैं, कम होगा। लेकिन अभी कोई चिंताजनक स्थिति नहीं है। किराया निर्धारण समिति ने अपनी सिफारिशें दी हैं, वे लागू हो जाएंगी, तो फिर कोई चिंता नहीं करनी पड़ेगी।

- अभी मेट्रो सुबह छह बजे से रात 11 बजे तक है। लोग रात में भी इसकी सुविधा चाहते हैं?
असल में हमारा काम सुबह पांच बजे से रात के साढ़े बारह बजे तक चलता है। 24 घंटे मेट्रो की सुविधा संभव नहीं है। एक तो यह आर्थिक तौर पर फायदेमंद नहीं है, और फिर तकनीकी समस्याएं भी हैं। हर कोच की जांच के बाद ही उसे पटरी पर उतारा जाता है। पूरे सिस्टम को दुरुस्त रखना पड़ता है। रात में तीन-चार घंटे का समय इसी में लगता है।

- मेट्रो में आने से पहले आपने भारतीय रेल में भी काम किया है, दोनों जगहों में क्या फर्क है?
किसी भी सिस्टम में, जो पहले से कार्य में है, नया बदलाव बहुत मुश्किल होता है। नए सिस्टम के साथ एक अच्छी बात यह होती है कि इसको आप अपनी इच्छानुसार बना सकते हैं, चला सकते हैं। मेट्रो को जब हम तैयार कर रहे थे, तब वह अवसर हमारे पास था कि हम इसे कैसा बनाएं? ऐसे सुधार किसी पुराने संस्थान में बहुत मुश्किल हैं।

- बुलेट ट्रेन लाने की बातें हो रही हैं। उस पर काम आगे भी बढ़ा है। आप इसे कितना व्यावहारिक मानते हैं?
यह मेरा क्षेत्र नहीं है। मैं बुलेट ट्रेन में बैठा जरूर हूं और काफी अच्छा भी लगा। इस पर मेरा कमेंट करना ठीक नहीं होगा।

- आप अपनी मेट्रो में कितना बैठते हैं?
मुझे कार चलानी नहीं आती। जब मेरे पास ड्राइवर नहीं होता, मैं मेट्रो ही इस्तेमाल करता हूं। और काफी करता हूं। इसलिए मुझे पता है कि कहां भीड़ रहती है, कहां क्या हो रहा है?

- लोग मानते हैं कि मेट्रो ने ढर्रा बदल दिया। क्या आपको भी ऐसा लगता है?
यह देखकर सचमुच खुशी होती है कि दिल्ली में आम आदमी जब बाहर होता है, तब उसका व्यवहार अलग होता है और जब मेट्रो में होता है, तो एकदम अलग। लोग मेट्रो को अपना मानते हैं।  इस पर गर्व महसूस करते हैं। मेट्रो में सफर के दौरान मैं चुपचाप लोगों को बातें सुनता हूं। लोग मेट्रो में बैठे-बैठे अपना प्लान बनाते हैं। दिल्ली में मेरा खुद का अनुभव था कि आप दिन भर कहीं जा रहे हैं, तो एक से ज्यादा काम नहीं कर सकते थे। पर मेट्रो की वजह से अब दिल्ली वाले समय के पाबंद हो रहे हैं , समय की कीमत वसूल पा रहे हैं।  विदेश के लोग जब यहां आते हैं और हमारा स्तर देखते हैं, तो उससे खुश होते हैं। न्यूयॉर्क या लंदन की मेट्रो पुरानी हैं, वहां रह रहे भारतीय जब यहां आते हैं, तो उन्हें लगता है कि भारत में वहां से अच्छी मेट्रो है, यह  अलग ही अनुभूति है।

पीपीपी मॉडल के बारे में
पीपीपी के तहत मुंबई और हैदराबाद में मेट्रो चल रही है। मेरा मानना है कि पीपीपी इस तरह के प्रोजेक्ट में सफल नहीं है। मुंबई इसका उदाहरण है। वह (मेट्रो चला रही कंपनी) किराया निर्धारण समिति को यह यकीन दिलाने में सफल हो गई कि 10 रुपये प्रति किमी से कम के किराये पर मेट्रो चल ही नहीं सकती। यात्रियों के लिए यह बहुत ज्यादा है। अनुभव यह है कि निजी कंपनी मेट्रो बनाएगी, तो उसे यह बहुत महंगा पड़ेगा। हमें लोन मिलता है एक फीसदी ब्याज पर, उन्हें मिलेगा 15 फीसदी पर। अंतत: यात्रियों से वसूलेंगे। दिल्ली की एयरपोर्ट लाइन का अनुभव भी कुछ ऐसा ही रहा है।

लेवल-टू शहरों में मेट्रो पर
लेवल-टू के बहुत से शहर हैं, जैसे लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, पटना, जहां भीड़ बढ़ रही है। जगह कम हो रही है। प्रदूषण का स्तर बढ़ा है। इन शहरों के लिए अच्छा पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम होना चाहिए। मेट्रो उसका विकल्प है। सीआरआई से एक स्टडी कराई गई थी, जिसमें उसने इसके फायदे गिनाए हैं। जैसे प्रदूषण व दुर्घटनाओं का कम होना, समय व ईंधन की बचत आदि। वित्तीय तौर पर यह उतना व्यावहारिक नहीं हो सकता, क्योंकि निर्माण लागत बहुत आती है। पर मुझसे पूछेंगे, तो इसके अलावा इन राज्यों के पास विकल्प कोई नहीं है, वरना ये रहने लायक नहीं होंगे।

 

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