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कब बीतेंगे ये सूखे दिन

सूखे ने देश के कुछ हिस्सों का समाजशास्त्र ही बदल दिया है, फिर भी धरती की प्यास बुझ नहीं रही। वहीं पानी का दुरुपयोग भी जारी है। सूखे से पीडि़त महाराष्ट्र के देंगनमाल (भारत के सबसे अधिक सूखा पीडि़त...

कब बीतेंगे ये सूखे दिन
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 27 Apr 2016 10:01 PM
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सूखे ने देश के कुछ हिस्सों का समाजशास्त्र ही बदल दिया है, फिर भी धरती की प्यास बुझ नहीं रही। वहीं पानी का दुरुपयोग भी जारी है।
सूखे से पीडि़त महाराष्ट्र के देंगनमाल (भारत के सबसे अधिक सूखा पीडि़त इलाकों में से एक) पर अब समाजशास्त्रियों और सरकार की नजर पड़ी है। वजह है, यहां लगातार पानी की कमी या सूखे के कारण पड़ रहे दुष्प्रभाव। सबसे चौंकाने वाला दुष्प्रभाव है, ऐसे क्षेत्रों में पुरुषों का बहुविवाह प्रथा की ओर मुड़ना। इन इलाकों में एक पुरुष की तीन पत्नियां मिल कर पानी ढूंढ़ती हैं, क्योंकि एक पत्नी की सहायता से पानी ढूंढ निकालना कठिन काम हो गया है।

यहां थोड़ी-थोड़ी दूरी पर महिलाएं धातु के बर्तनों की मदद से कमर की लंबाई तक खुदाई करती दिखती हैं। पर अब तेज गरमी में तो उन्हें इस तरह की तीन से चार कोशिश करने के बाद पानी मिल पा रहा है, इसलिए जितनी अधिक पत्नियां, उतना ही अधिक मजदूरी का समान बंटवारा। इससे स्थानीय सेक्स अनुपात में गड़बड़ी आई है। शोधकर्ता इन्हें 'वॉटर-वाइव्स' का नाम दे रहे हैं।

दूसरी ओर सूखे से पीडि़त विदर्भ और मराठवाड़ा में कई बार फसल तबाह होने के कारण अब पत्नियां परिवार के भरण-पोषण के लिए आगे आने को मजबूर हैं। वे घर से निकलने पर पाबंदी, घूरती निगाहों और तानों को सहने के बाद पहली बार घर से निकल कर बाहर काम कर रही हैं। कई तो बच्चों की स्कूल की फीस देने के लिए घर-घर जाकर चूडि़यां बेच रही हैं। कई पशुओं को बेच रही हैं, जिससे दवाएं खरीद सकें।
पानी भारत के लिए ऐसा दुर्लभ स्त्रोत बन गया है, जो न केवल अर्थव्यवस्था पर प्रहार कर रहा है, बल्कि लोगों के लिए भी मुसीबत का पर्याय बन गया है। मानसून के सही तरीके से न आने के कारण एक के बाद एक पड़े सूखे से देश के बड़े हिस्से में पानी की भारी किल्लत हो गई है।

पश्चिम बंगाल के फरक्का (पूर्वी भारत का सबसे बड़े पावर प्लांट) में 13 मार्च को गंगा नदी में पानी का स्तर बेहद कम हो गया था, जिसके कारण उसे कुछ समय के लिए रोक देना पड़ा था।
लातूर तक रेल डिब्बों की मदद से पानी पहुंचाया जा रहा है। बुंदेलखंड (जिसमें 13 जिले हैं, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक फैला है) में तो जिला न्यायधीशों को आदेश दिए गए हैं कि वे इसे सुनिश्चित करें कि कोई भी पानी का इस्तेमाल पीने के अलावा किसी और काम के लिए ना करे।

हमारे पास राष्ट्रीय स्तर पर 91 बड़ी झीलें और तालाब हैं, जो बिजली, पीने के पानी और सिंचाई के मकसद से तैयार हैं, इसके बावजूद भी बड़े स्तर पर पानी की कमी हुई है।

हालांकि पानी की कमी का कारण खराब मानसून को ही माना जाता है, पर इस बार कारण और भी हैं। काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम उपलब्ध पानी का इस्तेमाल किस तरह से करते हैं।

हमारे देश में विश्व की आबादी की 16 प्रतिशत जनसंख्या है, जबकि विश्व के कुल पानी का चार प्रतिशत ही हमारे पास है। हमारे देश का सार्वजनिक पानी आपूर्ति सिस्टम चरमराया हुआ है। बड़े शहरों में ज्यादातर आपूर्ति अमीरों को दी जा रही है।  एक के बाद दूसरे खराब मानसून के कारण ग्रामीण क्षेत्र की आमदनी तेजी से गिर गई, सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम मनरेगा भी लड़खड़ा गया। धन की कमी की वजह से काम के ज्यादा अवसर पैदा करना या सूखाग्रस्त किसानों को वक्त पर भुगतान करना मुश्किल हो गया। ऐसे में धीरे-धीरे देश दशक के सबसे बुरे ग्रामीण संकट में फंसता चला गया। महाराष्ट्र के बीड में यह संकट बाल-विवाह की शक्ल ले रहा है। सिर्फ चीनी मिलों के पास काम है और अगर आप जोड़े में काम करते हैं तो ये कारखाने ज्यादा पैसे देते हैं। नतीजतन, महज 13 साल की बच्चियों की शादियां उनसे एक-दो साल बड़े लड़कों के साथ की जा रही हैं।     
बाल अधिकार कार्यकर्ता तत्वशिल कांबले के मुताबिक, 'पिछले तीन साल के दौरान बाल-विवाह में हमने 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी है।'

जब कभी सूखा पड़ता है, देश में सिंचाई की मांग जोर पकड़ने लगती है। हालांकि अपर्याप्त सिंचाई तंत्र के बावजूद भारत की कुल जल खपत का करीब 80 प्रतिशत कृषि कार्य में ही होता है। जल स्तर के गिरने की अकेली बड़ी वजह धान व गन्ने की खेती है।

बहरहाल अनियमित जलापूर्ति, बढ़ता जल-प्रदूषण और उपयोग लायक जलस्रोतों में गिरावट के मुकाबले बढ़ती मांग असली समस्या है। और जब मानसून लगातार धोखा दे तो ये सब मानवीय संकट में तब्दील हो सकते हैं। केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष घनश्याम झा कहते हैं, 'हमारे कृषि क्षेत्र की जल संबंधी मांग काफी बड़ी है। पेयजल के लिए तो दस फीसदी से भी कम खपत है। कृषि क्षेत्र की यह मांग चिंताजनक है।' झा की चिंता बेवजह नहीं है। मैकिन्से कन्सल्टिंग के वॉटर रिसोर्सेज ग्रुप के मुताबिक, साल 2030 तक भारत दुनिया के उन देशों में से एक होगा, जहां कृषि क्षेत्र में पानी की मांग सबसे अधिक होगी। अनुमान के मुताबिक, साल 2030 में यह 1,195 अरब क्यूबिक मीटर जल का दोहन करेगा और इसके लिए उसे अपने मौजूदा उपयोग लायक जल की मात्रा को दोगुना करना होगा।

सुकून की बात है कि इस बार मानसून के सामान्य रहने की भविष्यवाणी की गई है। मौजूदा सूखे की स्थिति तो मानसून आने के साथ शायद खत्म हो जाए, लेकिन लंबी अवधि की तस्वीर बहुत खुशहाली वाली नहीं है। विश्व बैंक व डब्ल्यूएचओ में कंसल्टेंट वसुधा देशमुख का कहना है, 'हालात की बेहतरी के लिए खेती के तरीके में बदलाव लाने, अमीरों से अधिक शुल्क वसूलने, बिजली उत्पादन के लिए अधिकाधिक रीन्यूएबल स्रोतों का इस्तेमाल करने और कृषि कार्य में पानी के इस्तेमाल को कम से कम करने वाले उपकरणों को अपनाने की जरूरत है।' 

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