फोटो गैलरी

Hindi Newsवजू करूं अजमेर में काशी में स्नान

वजू करूं अजमेर में काशी में स्नान

बेकल उत्साही उन चंद शख्सीयतों में हैं, जिन्हें सही मायने में गंगा-जमुनी तहजीब के लिए याद किया जाएगा। यह बेकल उत्साही ही थे, जिन्होंने उस दौर में उर्दू के मंच पर हिन्दी की धाक जमाई, जब वहां हिन्दी के...

वजू करूं अजमेर में काशी में स्नान
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 03 Dec 2016 09:22 PM
ऐप पर पढ़ें

बेकल उत्साही उन चंद शख्सीयतों में हैं, जिन्हें सही मायने में गंगा-जमुनी तहजीब के लिए याद किया जाएगा। यह बेकल उत्साही ही थे, जिन्होंने उस दौर में उर्दू के मंच पर हिन्दी की धाक जमाई, जब वहां हिन्दी के लिए नाक-भौंह सिकोड़ी जाती थी। यह उनके गीतों और शायरी की धार ही थी कि बहुत जल्दी ही उनकी आलोचना तारीफ में बदल गई। हिन्दी, उर्दू और अवधी के इस अजीम शायर को याद कर रहे हैं उनके साथ कितने ही मुशायरों के गवाह रहे वरिष्ठ शायर वसीम बरेलवी

आज सुबह घर से लखनऊ  महोत्सव में शामिल होने के लिए निकला ही था कि बेकल उत्साही के दुनिया में न रहने की मनहूस खबर मिली। कुछ देर को सन्न रह गया। अपने ही कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था। दिल ने कहा, नहीं ...यह नहीं हो सकता। बेकल जैसे भाई मेरा और हिन्दी-उर्दू के अदब का साथ छोड़ कर इतनी जल्दी कैसे जा सकते हैं। जिस दौर में उर्दू के मंच पर हिन्दी पसंद नहीं की जाती थी, पुराने लोग नाक-भौंह सिकोड़ते थे, ऐसे वक्त में बेकल ने उर्दू के मंच पर हिन्दी की धाक जमाई थी। उनका न रहना साहित्य और साहित्यकारों को बेहद खलेगा। खासतौर पर मेरे जैसे लोगों को, जिनका उनसे बड़े भाई जैसा नाता था, अब मंच पर कान बेकल साहब की आवाज को तरसेंगे और निगाहें रह-रह कर उन्हें खोजती रहेंगी। यह जानते हुए भी कि मेरा इंतजार अंतहीन होगा।

मैं उस दौर की बात कर रहा हूं जब उर्दू के मंच पर हिन्दी को सही स्थान नहीं मिलता था, उस दौर में बेकल ने हिन्दी गीतों और शायरी के जरिए उर्दू के मंच पर धाक जमाई थी। शुरुआत में लोग उनकी शायरी और गीतों से नाक-भौंह सिकोड़ते थे, मगर आहिस्ता-आहिस्ता मंच पर उनकी जगह पुख्ता होती चली गई। यह उनकी शायरी की ही धार थी कि आलोचक ही उनके सबसे बड़े प्रशंसक बन गए। उनके गीतों-शायरी में शहरी जनजीवन के साथ-साथ गांवों का जीवन भी झलकता था। उन्होंने अपने गीतों-शायरी में हिन्दी के साथ-साथ अवधी और तमाम क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल करके गांव-गांव तक अपनी शायरी पहुंचाई। गंगा-जमुनी तहजीब के वे सबसे बड़े वाहक थे।

जब से बेकल साहब के निधन का दुखद समाचार मिला है, तब से मैं काफी दुखी हूं। उनके साथ इतनी यादें जुड़ी हैं कि विस्तार से कहें तो एक किताब लिख जाएगी। ऐसा शख्स हमारे बीच से चला गया, जिसने हमेशा मोहब्बत की सीख दी, इंसान को इंसान से जोड़ने की बात की और कलम की बुनियादी जिम्मेदारी निभाई। उनके निधन से शायरी और इंसानियत का बड़ा नुकसान हुआ है, जिसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती। ऐसे समय में मैं उनको खिराजे अकीदत पेश करता हूं।

जब मैंने उर्दू शायरी में आंख खोली तब बेकल साहब स्टेज के स्थापित शायर बन चुके थे। उनका जलवा देखा है, उनके साथ खड़े होने में फख्र महसूस होता था। जब उर्दू स्टेज पर हिन्दी को स्थान नहीं मिलता था, ऐसे दौर में बेकल साहब उर्दू स्टेज से हिन्दी गीत और शायरी पढ़ते थे। बेकल साहब की आवाज इतनी खूबसूरत थी कि जब गीत पढ़ते तो पुराने लोग भी उनमें खो जाते। नापसंद करने वालों पर बेकल साहब ने गहरा असर डाला और उर्दू शायरी से ही दिलचस्पी रखने वालों को हिन्दी पसंद आई। धीरे-धीरे हिन्दी गीत और शायरी भी उर्दू मंच का हिस्सा बन गई। उनके गीतों में हिन्दी ही नहीं, अवधी की भोली-भाली खूबसूरतियां भी थीं। क्षेत्रीय भाषाओं के शामिल करने से हर अंचल का व्यक्ति उनसे जुड़ा था। उनके गीत हिन्दी-उर्दू भाषा के मिले-जुले गीत थे। वह जब मंच पर बोलते थे तो सबको अपने जैसे लगते थे। न कोई दिखावा न कोई छलावा। जो कुछ देखा उसे शब्दों में ढाला और सबके सामने रख दिया। बगैर यह सोचे कि आलोचक और प्रशंसक क्या सोचेंगे। बस इसी अंदाज ने उन्हें सबसे खास और सबसे अलग बना दिया।

जहां उर्दू एक ओर शहरियत के दायरे में सिमटी हुई थी तो बेकल साहब ने शहर के साथ-साथ गांव के माहौल, वहां के दुख-दर्द को ग्रामीण अंचल की भाषा के साथ शायरी और गीतों में जोड़ा। उन्होंने गीतों में नई-नई उपमाएं, ऐसे शब्द इस्तेमाल किए, जो उर्दू मंच से कभी पढ़े ही नहीं जा सकते थे। वे सीमांत लोगों का जीवन बखूबी समझते थे। उनका जीवन उनके गीतों, शायरी में झलकता था। मंच पर उनकी कविता ऐसे लोगों के जीवन के ताने-बाने को बयां करती तो सामने बैठे तमाम लोगों की आंखें नम हो जातीं। मैंने बेकल साहब की कविताओं में डूबने के बाद तमाम लोगों को अपने आंसू पोंछते देखा है। आम आदमी की जिंदगी को जितनी खूबसूरती से उन्होंने गीतों-शेरों में बयां किया है, शायद कोई दूसरा नहीं कर पाएगा।

बेकल साहब ने हमेशा डायस पर साहित्य की जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं। डायस से कभी उन्होंने कोई ऐसा जुमला नहीं बोला जो अमर्यादित होता, किसी को अखरता या किसी का दिल दुखाता। हां, सच को बयां करना वह कभी नहीं भूले। सच कभी बेहद मीठा होता है तो कभी नीम की तरह कड़वा। हजारों-लाखों की तादात में लोग उन्हें सांस रोककर सुना करते थे। उनकी हर पंक्ति पर कभी आह निकलती तो कभी वाह। अपनी जिंदगी को उन्होंने बेहद सादे अंदाज में जिया। किसी भी बात पर कभी खुद को नुमाया करने की कोशिश नहीं की, न ही किसी दूसरे को खुद के साथ ऐसा करने दिया। जिंदगी जीने की उनकी ईमानदारी का ही नतीजा था कि मालिक ने उनको हर सम्मान से नवाजा। पद्मश्री बेकल राज्यसभा के मेंबर रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने हिंदी को आगे बढ़ाने की पुरजोर पैरवी की। साहित्यिक मंचों के साथ संसद में भी हिंदी को नए मुकाम तक ले जाने के लिए लड़े। उन्होंने दुनियाबी राजनीति को भी अपने गीतों-शायरी के माध्यम से आईना दिखाया और हुक्मरानों को रास्ता दिखाया।

राजनीति की अच्छी-बुरी चीजों को खुलकर बयां करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। उनके काम को न कभी उर्दू स्टेज और न कभी हिन्दी नजरअंदाज कर पाएगा। उनकी सोच के हवाले से हिन्दुस्तान की रचनात्मक हैसियत को बढ़ावा देने में उनकी कलम का रोल था, वह हमेशा याद किया जाएगा। वे खास शैली के साथ जिंदा रहे, अच्छा लिबास पहनते थे, अच्छी बातें करते थे, शायरी और उनके जीवन में विनम्रता झलकती थी, कभी भी उन्होंने बड़े दावे नहीं किए। आजकल कम उम्र के लोग बड़े दावे करते हैं, यह देख कर दुख होता है। इस दौर में जब दिखावा ही सब कुछ हो गया है। मैं और मेरे जैसे लोग बेकल साहब का साथ छूटने के बाद खुद को बेहद अकेला महसूस करेंगे।

बेकल साहब ने विदेशों में भी हिन्दी शायरी की धाक जमाई। वे शायरी, गजल, गीत की दुनिया में आए और छा गए। हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, इंग्लैंड और अमेरिका तक हिन्दी शायरी को ले जाने वाले वे पहले रचनाकार थे। जब लोग उर्दू शायरी को ही जानते थे, ऐसे में बड़े ही सशक्त तरीके से हिन्दी शायरी और गीतों को उर्दू के मंचों से विदेशों में पढ़ा तो लोग उनके गीतों में खो से गए। उनके साथ गुजारे जिंदगी के लम्हे हमेशा दिल में बसे रहेंगे। वह बहुत याद आएंगे।
(जैसा अखिलेश अवस्थी से बातचीत में कहा)

बकलम खुद
सुना है ‘मोमिन’ व ‘गालिब’ न ‘मीर’ जैसा था
हमारे गांव का शायर ‘नजीर’ जैसा था
छिड़ेगी दैरो हरम में ये बहस मेरे बाद
कहेंगे लोग कि ‘बेकल’ ‘कबीर’ जैसा था।


मो. शफी खान ऐसे बने बेकल उत्साही
‘वजू करूं अजमेर में, काशी में स्नान/धर्म मेरा इस्लाम है, भारत जन्मस्थान’... यह दोहा लिखने वाले बेकल उत्साही के नामकरण की कहानी काफी दिलचस्प है। 1 जून 1928 को बलरामपुर में जन्मे मो. शफी खान 1945 में देवा शरीफ की मजार पर जियारत करने गए थे, जहां हाफिज प्यारे मियां के मुंह से जुमला निकला- ‘बेदम गया बेकल आया’ ... और मो. शफी खान ने अपना नाम बदल कर बेकल वारसी कर लिया। वर्ष 1952 में जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम में शामिल होने गोंडा गए थे। वहां बेकल वारसी ने अपनी कविता ‘किसान भारत का’ का पाठ कुछ इस तरह किया जिससे पं. नेहरू काफी प्रभावित हुए और बोले- ये हमारा उत्साही शायर है... बस उसी वक्त बेकल वारसी ने अपना नाम बदल कर ‘बेकल उत्साही’ कर लिया। 1976 में बेकल उत्साही राज्यसभा के सदस्य नामित किए गए और वर्ष 1982 में उन्हें पद्मश्री का सम्मान भी मिला था। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘यशभारती’ से नवाजा था।
- संतोष वाल्मीकि

बेकल उत्साही
जन्म :    1 जून 1928, उतरौला, बलरामपुर 
मृत्यु :    3 दिसंबर 2016,  दिल्ली

खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं- गोपाल दास नीरज
बेकल उत्साही पुराने साथियों में से थे। राष्ट्र की भावनात्मक एकता के लिए जो काम उन्होंने किया वह सराहनीय है। उर्दू के वह पहले रचनाकार हैं, जिन्हें पद्मश्री दिया गया। मन बहुत दुखी है। बेकल के जाने के बाद खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं।

गंगा-जमुनी तहजीब का शायर
पद्मश्री बेकल उत्साही की शायरी उन्हें जन्म जन्मान्तर तक जिंदा रखेगी। शेरो शायरी में गंगा-जमुनी तहजीब का जैसे सूर्य अस्त हो गया। एक नई परम्परा के जन्मदाता पद्मश्री बेकल उत्साही ने उर्दू व हिन्दी भाषा को पूरा सम्मान दिया। अवधी के मिश्रण से उन्होंने गज़ल व शेरो शायरी में कई प्रयोग किए, जो श्रोताओं के सिर चढ़ कर बोला। पद्मश्री बेकल उत्साही का जन्म 1 जून 1928 को ग्राम रमवापुर, उतरौला में जमींदार पिता लोदी मोहम्मद शफी खान के यहां हुआ था। माता का नाम बिस्मिल्लाह बीबी था।

बेकल का असली नाम शफी खान है और गांव के लोग प्यार  से उन्हें भुल्लन भैया कहकर पुकारते थे।
गुलामी के दौर में बेकल अंग्रेज हुक्मरानों के खिलाफ जवानी में राजनीतिक नज्म व गीत लिखने लगे। अंग्रेजों को यह हरकत नागवार गुजरी और बेकल को कई बार जेल जाना पड़ा। जेल से ही उन्होंने नातिया शायरी की शुरुआत की। बेकल ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्म निरपेक्षता के लिए हिन्दी और उर्दू भाषा को आपस में मिलाकर एक नई शैली प्रदान की, जिसे बेकल शैली कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बेकल उत्साही पूरी तरह से अदबी माहौल में रहने लगे और मुशायरा, नातिया व मजहबी जलसों तथा कवि सम्मेलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। गजल में क्षेत्रीय भाषा का अक्स मिलाकर उसे नई राह दी। कोई भी देश अछूता नहीं था, जहां उनकी शायरी का लोहा न माना गया हो। उन्होंने इंग्लैंड, अफ्रीका, पाकिस्तान व अमेरिका जैसे देशों का दौरा कई बार किया।

उन्होंने 1952 में विजय बिगुल कौमी गीत, 1953 में बेकल रसिया लिखी। इसके बाद उन्होंने गोंडा हलचल प्रेस, नगमा व तरन्नुम, निशात-ए-जिन्दगी, नूरे यजदां, लहके बगिया महके गीत, पुरवईयां, कोमल मुखड़े बेकल गीत, अपनी धरती चांद का दर्पण, मिट्टी, रेत, चट्टान, मोती उगे धान के खेत जैसी कई किताबें लिखीं। उनके गंगा-जमुनी संस्कृति का मिश्रण एवं साहित्यिक सेवाओं में विशेष योगदान से प्रभावित होकर 1976 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया। बेकल उत्साही को कांग्रेस ने अपने कोटे से 1986 में राज्यसभा भेजा।
सचिन मदान

बेकल उत्साही के कुछ गीत, नज़्म और गज़लें

इक दिन ऐसा भी आएगा 
इक दिन ऐसा भी आएगा होंठ-होंठ पैमाने होंगे 
मंदिर-मस्जिद कुछ नहीं होंगे घर-घर में मय़खाने होंगे

जीवन के इतिहास में ऐसी एक किताब लिखी जाएगी 
जिसमें ह़की़कत औरत होगी मर्द सभी अ़फसाने होंगे

राजनीति व्यवसाय बनेगी संविधान एक नाविल होगा 
चोर उचक्के सब कुर्सी पर बैठ के मूंछें ताने होंगे

एक ही मुंसि़फ इंटरनेट पर दुनिया भर का न्याय करेगा
बहस मोबाइल खुद कर लेगा अधिवक्ता बे़गाने होंगे

ऐसी दवाएं चल जाएंगी भूख प्यास सब गायब होगी 
नये-नवेले बूढे़ होंगे, बच्चे सभी पुराने होंगे

लोकतंत्र का तंत्र न पूछो प्रतियाशी कम्प्यूटर होंगे 
और हुकूमत की कुर्सी पर काबिज़ चंद घराने होंगे

गांव-खेत में शहर दुकां में सभी मशीनें नौकर होंगी
बिन मुर्गी के अन्डे होंगे बिन फसलों के दाने होंगे 
 
छोटे-छोटे से कमरों में मानव सभी सिमट जाएंगे
दीवारें खुद फिल्में होंगी, दरवाज़े खुद गाने होंगे

आंख झपकते ही हर इंसा नील-गगन से लौट आएगा
इक-इक पल में सदियां होंगी, दिन में कई ज़माने होंगे

अफ़्सर सब मनमौजी होंगे, द़फ्तर में सन्नाटा होगा
जाली डिग्री सब कुछ होगी कालेज महज़ बहाने होंगे

बिन पैसे के कुछ नहीं होगा नीचे से ऊपर तक यारो
डालर ही किस्मत लिक्खेंगे रिश्वत के नज़राने होंगे

मैच किर्किट का जब भी होगा काम-काज सब ठप्प रहेंगे
शेयर में घरबार बिकेंगे मलिकुल-मौत सरहाने होंगे

होटल-होटल जुआ चलेगा अविलाओं के चीर खिचेंगे
फोम-वोम के सिक्के होंगे डिबियों बीच खज़ाने होंगे

शायर अपनी नज़्में लेकर मंचों पर आकर धमकेंगे
सुनने वाले मदऊ  होंगे संचालक बेमाने होंगे

बेकल इसको लिख लो तुम भी महिला-पुरुष में फर्क न होगा
रिश्ता-विश्ता कुछ नहीं होगा संबंधी अंजाने होंगे

फिर मुझको रसखान बना दे
मां मेरे गूंगे शब्दों को 
गीतों का अरमान बना दे।
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे।

देख सकें दुख-दर्द की टोली, 
सुन भी सकें फरियाद की बोली,
मां सारे नकली चेहरों पर 
आंख बना दे, कान बना दे।

मेरी धरती के खुदगर्जों ने 
टुकड़े-टुकड़े बांट लिये हैं,
इन टुकड़ों को जोड़ के मैया 
सुथरा हिन्दुस्तान बना दे। 

गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे।


वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे

रात तनहाइयों के आंगन में
चांद तारों से झांकता है मुझे

सुब्ह अ़खबार की हथेली पर
सु़र्खियों मे बिखेरता है मुझे

होने देता नहीं उदास कभी
क्या कहूं कितना चाहता है मुझे

मैं हूं बेकल मगर सुकून से हूं
उसका गम भी संवारता है मुझे

हम को यूं ही प्यासा छोड़ 
हम को यूं ही प्यासा छोड़
सामने चढ़ता दरिया छोड़
जीवन का क्या करना मोल
महंगा ले-ले, सस्ता छोड़
अपने बिखरे रूप समेट
अब टूटा आईना छोड़
चलने वाले रौंद न दें
पीछे डगर में रुकना छोड़
हो जाएगा छोटा कद
ऊंचाई पर चढ़ना छोड़
हमने चलना सीख लिया
यार, हमारा रस्ता छोड़
गज़लें सब आसेबी हैं
तनहाई में पढ़ना छोड़
दीवानों का हाल न पूछ
बाहर आजा परदा छोड़
बेकल अपने गांव में बैठ
शहरों-शहरों बिकना छोड़

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें