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एक सदी के मुक्तिबोध

हिंदी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मशती वर्ष आज शुरू हो रहा है। प्रस्तुत है हिंदी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा में रहे कवि-कथाकार-समीक्षक...

एक सदी के मुक्तिबोध
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 12 Nov 2016 08:30 PM
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हिंदी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मशती वर्ष आज शुरू हो रहा है। प्रस्तुत है हिंदी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा में रहे कवि-कथाकार-समीक्षक मुक्तिबोध पर वरिष्ठ कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की टिप्पणी और साथ में मुक्तिबोध की दो कविताएं व कुछ अन्य सामग्री-

नामंजूर / उसको जिंदगी की शर्म की-सी शर्त / नामंजूर / हठ इनकार का सिर तान...खुद-मुखतार।
आज से 52 वर्ष पहले जब कई महीने अचेतावस्था में रहने के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध का दिल्ली के एक अस्पताल में देहावसान हुआ तो वे अपनी आयु के 47 वर्ष भी पूरे नहीं कर पाए थे। उनका पहला कविता संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ उनके जीते-जी प्रकाशित तक नहीं हो पाया था। पिछली अधसदी में हिन्दी कविता की बृहत्त्रयी में वे ही सबसे कम जिए : अज्ञेय और शमशेर बहादुर सिंह को लम्बा जीवन मिला। जिन्दगी तो मुक्तिबोध की आधी-अधूरी रही, लेकिन उनकी सृजनशीलता ने भरे-पूरेपन का एक नया प्रतिमान ही स्थापित कर दिया।

अपने समय और समाज की, आत्म और सचाई की उनकी समझ और पकड़ तब भी अनूठी थी और आज तक, यानी एक अधसदी बीत जाने के बाद भी, धूमिल या अपर्याप्त नहीं हुई है। यों तो हर बड़ा लेखक अपने समय में रहकर भी उसके पार जाता है। मुक्तिबोध उन बेहद बिरलों में से एक हैं, जिन्होंने जिस भयावह भारतीय यथार्थ को अपने समय में कुछ अतिरंजित ढंग से देखा था, वह हमारा आज का आतंककारी यथार्थ है। उन्होंने हमारे भविष्य को लगभग अपने वर्तमान की तरह निरूपित कर लिया था। ऐसा कम होता है और स्वयं हिन्दी में कम ही हुआ है कि कोई लेखक या कृति अपने से आधा सदी दूर यथार्थ को एक तरह की दूरदृष्टि से देख-पकड़-समझ ले। कई बार लगता है कि हम आज जिस अंधेरे में हैं, उसे मुक्तिबोध ने अपनी क्लैसिक कृति में, 60 के दशक में, पहचान लिया था: यह दुखद संयोग है कि हम मुक्तिबोध के समय से कहीं अधिक उनके ‘अंधेरे में’ हैं।

हालांकि मुक्तिबोध दृढ़ व्यक्तित्व के धनी थे, जो उनके जीवन और साहित्य दोनों में समान रूप से उपस्थित और सक्रिय था। उनका निम्न मध्यवर्गीय जीवन खासा बिखरा-बिखरा सा रहा। उनके बारे में सोच-विचार करते हुए कई युग्म सूझते हैं। उन्हें आयु तो थोड़ी मिली, पर उसी में उनकी कल्पना अनोखे रूप से महाकाव्यात्मक थी। उनकी दृष्टि में राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों के अलावा कॉस्मिक तत्व भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं। उनकी आलोचना में गहरा आत्मविश्वास प्रगट होता है, जबकि उनकी कविता में तीव्र आत्संशय है। उनकी आलोचना, कुल मिलाकर व्यवस्थित रूपाकार में है, जबकि उनकी कविता का शिल्प अनिवार्य रूप से ऊबड़-खाबड़ है। उनकी मातृभाषा तो मराठी थी, पर उन्होंने अपना विपुल साहित्य हिन्दी में लिखा। उनके लिखने की कुल अवधि 25 वर्षों से कुछ ही अधिक की है, लेकिन उन्होंने 2000 मुद्रित पृष्ठों से अधिक की सामग्री लिखी।

यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि मुक्तिबोध आधुनिक हिन्दी के सबसे प्रश्नवाचक कवियों में से एक हैं: यह प्रश्नवाची परम्परा जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी और अज्ञेय को मिलाकर बनी थी। पर उसमें मुक्तिबोध ने तीखापन, बेबाकी और अभिव्यक्ति के अनेक खतरे उठाकर जो प्रासंगिकता जोड़ी वह अचूक और अद्वितीय दोनों ही है। इसका एक आधार उनका यथार्थ को दूर रहकर देखना नहीं उसमें धंसकर, उसमें अपनी शिरकत को स्वीकार करते हुए, आत्माभियोग की हद तक जाकर चरितार्थ करना था : मुक्तिबोध और कई मामलों में उनके शिष्य श्रीकान्त वर्मा हिन्दी के लगभग पहले और सबसे उत्कट-बेचैन आत्माभियोगी कवि हैं।
इस ओर कम ध्यान गया है कि मुक्तिबोध की माक्र्सवाद में आस्था असंदिग्ध थी, पर उन पर अपनी तरुणाई के दिनों में गांधी का जो प्रभाव पड़ा था वह कभी धूमिल-शिथिल नहीं हुआ।

अपनी दृष्टि में उन्होंने अंत:करण की जो धारणा शामिल की थी वह निश्चय ही किसी न किसी रूप में गांधी से आयी थी। यह आकस्मिक नहीं है कि उनकी सबसे लम्बी कविता-कृति ‘अंधेरे में’ स्वयं गांधी और गांधी के वरैण्य ताल्यताय चरित्र हैं। मुक्तिबोध की कविता को छायावादेतर कविता की सुहानी लोकप्रियता, अपने कई समवयसी कवियों की आत्मग्रस्त चेतना, कविता के प्रचलित मॉडलों, प्रगतिशीलता की यांत्रिकता, नई कविता की ललित भाषा आदि के विरुद्ध या कम से कम बरक्स, एक सत्याग्रह के रूप में भी देखा-समझा जा सकता है। अपने साहित्य और विचारों के माध्यम से मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी दृष्टि को गांधीवादी अंत:करण से परिवर्धित करने की कविचेष्टा की।

हिन्दी आधुनिकता में सीधे इनकार की परम्परा रही है, भले उतनी तीखी और निरन्तर नहीं जितनी वह मुक्तिबोध के यहां हुई। उनका स्वीकार न करने का और इनकार करने का हठ एक तरह से ‘खुद-मुखतार’ हो जाता है। अस्वीकार ने हमारे यहां साहित्य में ऐसी स्वायत्तता कम ही अर्जित की है। मुक्तिबोध के यहां उम्मीद है, जनसंघर्ष आदि में विश्वास है, लेकिन उनकी कविता का असली स्वभाव प्रश्नवाचकता और इनकार का है और लगभग बेराहत है। उनकी माक्र्सवादी आस्था आज बहुत हद अपना आधार गंवा चुकी है, भले ही उनके लिए वह सच्ची और गहरी थी।

इसके बावजूद अगर उनकी कविता की आंच और चमक अगर कम नहीं हुई है तो इसका कारण उनकी आस्था नहीं, उनकी अपने समय के यथार्थ की आत्माभियोगी समझ-पकड़ ही है, वही हो सकती है। यह अकारण नहीं है कि जिसे अब हम मुक्तिबोध-कैनन कहते हैं उनके बनाने में उनकी भी भूमिका कमतर नहीं है, जो उनकी माक्र्सवादी दृष्टि से सहमत नहीं थे। इसे यों भी समझा जा सकता है कि उनकी कविता उनकी दृष्टि से कहीं आगे जाती है और उनके विचारों का अतिक्रमण करती है। यह सृजन का विचार से ऊपर उठने का क्षण है। उसे खारिज करने का नहीं, उसे पीछे छोड़ देने का।

मुक्तिबोध ने साहित्य की रचना-प्रक्रिया पर विस्तार से विचार किया था। उनकी अपेक्षा थी कि साहित्य का एक काम सभ्यता-समीक्षा का भी होता है। स्वयं उन्हें भारतीय लोकतंत्र की स्थापना के पहले लगभग 15 वर्ष के प्रखर समीक्षक के रूप में पहचाना जा सकता है। लोकतंत्र और षड्यंत्र की सिर्फ शाब्दिक तुक भर नहीं मिलती : लोकतंत्र में होनेवाले षड्यंत्र पर उनकी तीखी नजर थी। ‘अंधेरे में’ कविता इसका प्रमाण है। यह है तो 1960 के आसपास का चित्र, पर अपने छोटे-छोटे ब्यौरों तक में वह आज का बिलकुल प्रामाणिक चित्र लगता है।

मुक्तिबोध ने ‘सृजन के तीन क्षण’ की बात की है। उनके कृतित्व के भी तीन क्षण सोचे जा सकते हैं : पहला उनकी मृत्यु तक का सक्रिय सर्जना और विचार का क्षण, दूसरा उनकी मरणोत्तर कीर्ति का उनकी पूरी आयु से भी लम्बा पिछले 52 बरसों में फैला क्षण और तीसरा जो अब उनकी जन्मशती से शुरू हो रहा है और जिसमें उन पर पुनर्विचार होगा। वास्तव में आधी-अधूरी जिन्दगी अपनी सर्जनात्मकता की शक्ति और प्रासंगिकता से आधी सदी से अधिक के अरसे में भरी-पूरी होती रही है।


हरिशंकर परसाई की नजर में
जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अन्दाज कभी नहीं आया। वरना यहां ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आन्दोलन के कन्धे पर चढ़कर ‘नया पथ’ में फ्रंट पेजित भी होते थे, फिर पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ की राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं। इसे मानना चाहिए कि पुराने प्रगतिवादी आन्दोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया। बहुतों को दिया। कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे। न उनकी रचना में कहीं सुर्ख परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे। वे गहरे अंतद्र्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे।

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताएं
विचार आते हैं

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
बोझ ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चांद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में
विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
पत्थर ढोते वक्त
पीठ पर उठाते वक्त बोझ
साँप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की नेकर फचीटते वक्त
पत्थर पहाड़ बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता है।


मुझे कदम-कदम पर
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बांहें फैलाए!
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ,
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने
सब सच्चे लगते हैं,
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए!
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है,
पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूं,
इस तरह खुद को ही दिए-दिए
फिरता हूं,
अजीब है जिंदगी!
बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए 
फिरता हूँ,
और यह देख-देख बड़ा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ...
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत... स्वायत्त हुआ जाता है।
कहानियां लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहां जरा खडे़ होकर
बातें कुछ करता हूँ
-उपन्यास मिल जाते


बकलम खुद
नौ वर्ष की सरकारी नौकरी ने कुछ नहीं दिया, तोहमत दी, राजनैतिक और सामाजिक तोहमत। प्राइवेट कम्पनियों की नौकरी पर भी अब भरोसा नहीं रहा। माया मिली न राम! ऊपर से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चौपट हो गया। इसी पाश्र्वभूमि में आप मेरा राजनांदगांव जाना देखिए। वहां के लोगों ने-छोटे छोटे लोगों ने-मेरी नियुक्ति के लिए बड़े बड़े प्रयत्न किए। वहां की लेक्चररशिप छोटी ही सही, किन्तु अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण है। संघर्ष भी कम कपटपूर्ण होंगे। दूसरे, एक अर्से से लेक्चररशिप की मेरी इच्छा रही है, वह भी पूर्ण हो जाएगी। यह भी बिलकुल ठीक है कि राजनांदगांव में मैं अधिक दिनों टिक नहीं पाऊंगा।

मैं अभी कहे देता हूं। किसी काम से जल्दी उकता जाने का मेरा स्वभाव है। इसी भावना से जब मैं डूब रहा था कि आपका पत्र आया और उसने मेरी इस कमजोर जगह पर चोट कर दी और मैं दिल्ली की तरफ जाने का सपना देखने लगा। लेकिन, तजुर्बा दूसरी तरफ खींच रहा है। आज तक मैं अपनी क्षमता और सीमा का गलत अंदाजा लगाता रहा। यदि मैं दिल्ली के संघर्ष में फंस जाऊं तो मैं वहां नागपुर का वृहत्तर संस्करण हो जाऊंगा। ढाक के पत्ते तीन, चौथा कहां से उगे।
नेमिचंद्र जैन को लिखे पत्र (4 मार्च, 1958) से

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