आइए फिर पढ़ें रघुवीर सहाय को
रघुवीर सहाय ऐसे कवि हैं, जो हर समय, हर काल, हर संदर्भ में याद आते हैं। वे सिर्फ विडम्बनाओं के कवि नहीं हैं, खोजी कवि हैं। परिवर्तन के कवि हैं। उनकी कविताओं में समय को बदलने की बेचैनी है, इसीलिए वे...
रघुवीर सहाय ऐसे कवि हैं, जो हर समय, हर काल, हर संदर्भ में याद आते हैं। वे सिर्फ विडम्बनाओं के कवि नहीं हैं, खोजी कवि हैं। परिवर्तन के कवि हैं। उनकी कविताओं में समय को बदलने की बेचैनी है, इसीलिए वे बार-बार समय में हस्तक्षेप करते दिखाई देते हैं। रघुवीर सहाय 9 दिसंबर 1929 को लखनऊ में जन्मे और निधन 30 दिसंबर 1990 को दिल्ली में हुआ। प्रस्तुत है युवा कवि बद्री नारायण का आलेख और रघुवीर सहाय की कुछ कविताएं-
आइए रघुवीर सहाय की कविताएं फिर से पढ़ें। अगर पढ़ सकें तो जोर-जोर से पढ़ें। फिर से इसलिए भी पढ़ें, क्योंकि जीवन, सत्ता और समाज के जिन खतरों का एहसास एवं भविष्यवाणी उन्होंने की थी, वह ज्यादा मूर्त रूप में एवं साफ हो आज हमारे सामने आ गया है। भारतीय जनतंत्र के बनने, विकसित होने एवं विस्तारित होने के क्रम में उसी के भीतर उस जनतंत्र के लिए एक आत्मघाती खतरा भी सृजित हो रहा था। रघुवीर सहाय 1950 से लेकर लगभग 1985-90 तक फैले अपने रचना संसार में इस आसन्न खतरे का एहसास कर रहे थे।
वे 1970-75 में लिख रहे थे -
‘एक दिन इस तरह आएगा -रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी -रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय- रमेश
खतरा होगा, खतरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा -रमेश’
यह पढ़ते हुए लगता है कि वे 70 के दशक में बैठ 90 के बाद का भारत और विशेषकर 2014 के बाद के समय को देख रहे थे। वे सत्तावान, शक्तिवान, अभिजात्य वर्ग की चालाकियों, मक्कारियों को अपने तीक्ष्ण काव्यात्मक दांतों द्वारा काटते हुए अपने रचना समय को समझ रहे थे। वे सामाजिक स्पेस में बैठे राजनीतिक प्रक्रियाओं की गहरी आलोचना करने वाले एक राजनीतिक कवि हैं। यूं कहें कि वे अपनी सामाजिक जड़ें रखने वाले राजनीतिक चेतना के प्रखर दृष्टा व सृष्टा कवि थे। कोयले की खदानों के मजूरों की टोपी में लगी बत्ती की तरह जो उन्हें अंधेरा काटने में मदद करती है, उनकी कविताएं हमें आज के समय को समझने में मदद करती हैं।
रघुवीर सहाय 1929 में जन्मे और 1990 में विदा हो गए। उनका पहला कविता संकलन था- ‘सीढ़ियों पर धूप’, जिसमें 1950-59 के बाद की कविताएं संकलित हैं। अंतिम कविता संकलन ‘कुछ पत्ते, कुछ चिड़ियां’ 80 के दशक को रूपायित करता है। इनके बीच ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ आया, जिसमें 1957-60 तक की कविताएं हैं। ‘हंसो-हंसो जल्दी हंसो’ में 1970-75 के दशक की कविताएं हैं तो ‘लोग भूल गए हैं’ 1976-82 के समय से संवाद करती कविताओं का कोलाज है।
रघुवीर सहाय ‘भारतीय जनतंत्र के क्राइसिस’ के कवि हैं। उनकी कविताएं नेहरूवादी जनतंत्र के बनने एवं बिखरने, आपातकाल के ताप को झेलने, सम्पूर्ण क्रांति से पैदा हुए मोहभंग को जीते हुए विकसित हुई हैं। उनमें 70 के बाद नगरों में फैलते जा रहे निम्न मध्यमवर्गीय लोकेशन से अनेकों बार भारतीय समाज, राज्य, सत्ता एवं जनतंत्र की आलोचनात्मक अन्त:दृष्टि अभिव्यक्त होती है। 50 के दशक के जनतंत्र ने जिस ‘भाग्य विधाता’ को सृजित किया था, वे उसका हश्र स्पष्ट देख रहे थे-‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह / भारत भाग्य विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसका / गुन हरचरना गाता है / मखमल - टमटम/ बल्लम-तुरही / पगड़ी छत्र चंवर के साथ / तोप छुड़ा कर/ ढोल बजाकर / जय-जय कौन कराता है।’
जब जनतांत्रिक सत्ता मूल्यों के भीतर हौले-हौले अधिनायकवादी मूल्य विकसित होने लगते हैं तो राष्ट्र एवं धर्म जैसे प्रतीकों के अर्थ पर शक्तिवानों का कब्जा हो जाता है। सत्तावान ऐसे कब्जे के माध्यम से इन प्रतीकों के अर्थों को बदल कर उन्हें अपने में एप्रोप्रियेट कर लेते हैं। रघुवीर सहाय हमें ऐसे ही खतरों से अगाह करते हैं। हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल ने शायद रघुवीर सहाय को जनतंत्र के ऐसे ही खतरों को भांप लेने वाले एक ‘प्रोफेटिक विजन’ का कवि कहा है। उनकी कविताओं में हमें स्त्री की संवेदनाओं का विरल पाठ मिलता है। इनमें सीमांत पर रहने वाले गरीब, निम्न मध्यमवर्ग के जन का व्यापक सामाजिक वितान फैला हुआ है।
व्यंग्य, आलोचना, विद्रूपताओं का काव्यात्मक विस्तार, बने बनाए अर्थों एवं प्रतीकों की तोड़-फोड़, अर्थों एवं भावों का सबवर्जन जैसी काव्यात्मक कोशिशों से रघुवीर सहाय पूरे जीवन सफल कविताएं रचते रहे। वे व्यंग्य, विट एवं विद्रूप के कवि हैं। वे जन संवादों, कई जगह लोक संवादों को अत्यन्त चातुर्य से सबवर्ट कर हमें आश्चर्यचकित करने वाली कविता देते हैं। ‘पढ़िए गीता, बनिए सीता’ कविता फॉर्म के स्तर पर धार्मिक प्रवचनों के व्यासपाठ का एक सार्थक सबवर्जन है। लेकिन जो रघुवीर सहाय की कविताओं की शक्ति है, वहीं से उनकी सीमाएं भी उपजती हैं। जिस ‘जनतंत्र की क्राइसिस’ के आलोचनात्मक एक्सपोजर ने उनकी कविताओं में प्राण रचा है, वे ही यह मांग भी उठाती हैं कि उसी प्रोफेटिक विजन से इस क्राइसिस से लड़ने का रास्ता भी दिखना चाहिए। कैसे क्रोध विरोध में बदलेगा, गीता की मुक्ति का रास्ता क्या होगा जैसे विजन अगर उनके प्रोफेटिक विजन में शामिल होते तो शायद उन्हें भी ‘मुक्तिबोध’ जैसे अग्रगामी विजन की कविताएं रचने में मदद मिल पाती। उनकी कविताओं में व्यापक परिवर्तन का विजन विकसित होता। शहरी निम्न मध्यमवर्ग के साथ गांव, जो रघुबीर सहाय की कविताओं से बाहर रहा है, वह उनकी कविता संकलनों के पिछले पृष्ठ से घुसने की कोशिश करता रहा है। उस कोशिश को भी हमें पढ़ना चाहिए। कई बार ज्यादा अनुपस्थिति भी उपस्थिति की जरूरत सृजित करती है।
रघुवीर सहाय की कविताएं
हंसो हंसो जल्दी हंसो
हंसो तुम पर निगाह रखी जा रही है
हंसो अपने पर न हंसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हंसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे
हंसते हंसते किसी को जानने मत दो किस पर हंसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हंसी हंसते हो
जैसे सब हंसते हैं बोलने के बजाए
जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे,
उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूंज थमते थमते फिर हंसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के
जुर्म में फंसे
अंत में हंसे तो तुम पर सब हंसेंगे और तुम बच जाओगे
हंसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हंसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हंसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार
जहां कोई कुछ कर नहीं सकता
उस गरीब के सिवाय
और वह भी अकसर हंसता है
हंसो हंसो जल्दी हंसो
इसके पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए
नजरें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हंसो
कि तुम कल भी हंसे थे!
अधिनायक
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
पढ़िए गीता
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घरबार बसाइये।
होंय कंटीली
आंखें गीली
लकड़ी सीली, तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरकर भात पसाइये।
आपकी हंसी
निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हंसे
सब के सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हंसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हंसे
आने वाला खतरा
इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग
जो खुशामद आदतन नहीं करता
कहीं से ले आओ निर्धनता
जो अपने बदले में कुछ नहीं मांगती
और उसे एक बार आंख से आंख मिलाने दो
जल्दी कर डालो कि फलने फूलने वाले हैं लोग
औरतें पिएंगी आदमी खाएंगे- रमेश
एक दिन इसी तरह आएगा- रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी- रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय- रमेश
खतरा होगा खतरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा- रमेश
चांद की आदतें
चांद की कुछ आदतें हैं।
एक तो वह पूर्णिमा के दिन बड़ा-सा निकल आता है
बड़ा नकली (असल शायद वही हो)।
दूसरी यह, नीम की सूखी टहनियों से लटककर।
टंगा रहता है (अजब चिमगादड़ी आदत!)
तथा यह तीसरी भी बहुत उम्दा है
कि मस्जिद की मीनारों और गुम्बद की पिछाड़ी से
जरा मुड़िया उठाकर मुंह बिराता है हमें!
यह चांद! इसकी आदतें कब ठीक होंगी?
लुटेरा
कैसे उत्साह से
अपनी उन्नति की
खबर वह बताता है
बोलते बोलते, जैसे कि देश की
दरकी हुई धरती पर
कूदता कूदता
उससे कहीं बाहर
जान लेकर भाग जाता हो