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कश्मीरी पंडित: वापसी की जगी उम्मीदें

ढाई दशक पहले पुरखों की धरती छोड़ खानाबदोश जिंदगी जीने को मजबूर हुए हजारों कश्मीरी पंडितों की वापसी की बातें फिर उठ रही हैं। इस बार ये महज बातें नहीं हैं, उन्हें वहां बसाने की संजीदा कोशिशें भी दिख...

कश्मीरी पंडित: वापसी की जगी उम्मीदें
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 01 Jun 2016 10:12 PM
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ढाई दशक पहले पुरखों की धरती छोड़ खानाबदोश जिंदगी जीने को मजबूर हुए हजारों कश्मीरी पंडितों की वापसी की बातें फिर उठ रही हैं। इस बार ये महज बातें नहीं हैं, उन्हें वहां बसाने की संजीदा कोशिशें भी दिख रही हैं। इसे लेकर घाटी में समर्थन और विरोध, दोनों हो रहा है। कितना मुश्किल, कितना आसान है यह काम?    

देश क्या उस विडंबना से बाहर निकल पाने की स्थिति में पहुंच गया है, जब उसके मूल निवासी एक कोने से हट कर दूसरे कोने में विस्थापित जीवन व्यतीत करने को बाध्य हो रहे थे? पीढि़यों से कश्मीर में रहने वाले पंडितों को अपने जान-माल और जीवन-मूल्यों की सुरक्षा के लिए 1990 में घाटी छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा था। वर्तमान में 62,000 से अधिक कश्मीरी पंडितों के परिवार हैं, जो ढाई दशकों से घाटी से बाहर निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। लगभग 40,000 परिवार जम्मू और 20,000 दिल्ली में रह रहे हैं। कुछ देश के अन्य भागों में बसे हैं।

राज्य में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन की सरकार बनने के बाद कश्मीरी पंडितों की वापसी का सवाल 'यूटोपिया' से यथार्थ बनने लगा। इसका एक बड़ा कारण केंद्र की मोदी सरकार की प्राथमिकता सूची में इसका होना भी है। राज्य सरकार ने मिश्रित आवास योजना के तहत इन पंडितों को बसाने की बात कही है।

इसका अर्थ है कि किसी स्थान पर पूर्ण रूप से कश्मीरी पंडितों को न बसा कर उन्हें दूसरे धर्मों के लोगों के साथ बसाया जाए। कायदे से एक धर्मनिरपेक्ष समाज में पड़ोसी का धार्मिक विश्वास क्या है, यह मायने नहीं रखता। भारत के संदर्भ में यह उपयुक्त स्थिति है। साल 1911 की जनगणना रिपोर्ट में लिखा गया कि भारत में धार्मिक जनगणना करना इसलिए आसान है, क्योंकि लोगों को अपना धर्म बताने में हिचक नहीं होती। लोग पड़ोसी की आस्था को लेकर फिक्र नहीं करते। यदि फिक्र है तो वह पड़ोसी की सामाजिक स्थिति के बारे में है।

एक पंथनिरपेक्ष समाज में जाति या धर्म के आधार पर निवास-स्थान निर्धारित नहीं होने चाहिए। इसलिए इस प्रस्ताव में मूल रूप से कोई समस्या नहीं है। मगर कुछ बुनियादी मुद्दे हैं, जिन पर विचार किए बिना कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की समस्या का हल बेमानी होगा। पहला मसला तो यही है कि कश्मीरी पंडित स्वेच्छा से अपने जन्मस्थान को छोड़ कर नहीं आए थे। सितंबर, 1989 में टीका लाल टपलू की आतंकवादियों द्वारा हत्या और उसके बाद कश्मीरी पंडितों पर निरंतर संगठित हमलों ने उन्हें घाटी छोड़ने के लिए बाध्य किया था।

23 जून, 1989 को कश्मीर में 'हज्ब-ए-इस्लामी' संगठन द्वारा पर्चा बांटा गया था, जिसमें कश्मीरी पंडित समुदाय की महिलाओं को निर्देश दिया गया था कि अपनी पहचान के लिए वे अपने ललाट पर टीका लगाएं। 2 सितंबर 1989 को 300 साल पुराने बाबा रेशी के पवित्र स्थल को जला कर राख कर दिया गया। इस प्रकार कश्मीरी पंडितों की संस्कृति व उनके जीवन-मूल्यों को नष्ट करने और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को समाप्त करने का प्रयास किया गया था। वे आजीविका की खोज के लिए या स्वेच्छा से घाटी छोड़ कर बाहर नहीं गए। उन्होंने तीन बातों को लेकर घाटी छोड़ी थी। वे तीन बातें थीं- सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता। उनके घाटी छोड़ने के बाद भी वहां रह रहे कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाता रहा।

उदाहरण के लिए मार्च, 2003 में नादीमार्ग गांव में 24 कश्मीरी पंडितों की जघन्य हत्या कर दी गई। इससे पांच साल पूर्व जनवरी 1998 में महिलाओं और बच्चों सहित 23 कश्मीरी पंडितों की बर्बर हत्या वनधामा गांव में कर दी गई थी। अत: अब जब उनकी वापसी की बात हो रही है तो सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता के साथ एक चौथा विषय भी जुड़ गया है, जो है- भविष्य को लेकर आशंका। इन चार मुद्दों का समाधान सिर्फ राजनीतिक निर्णयों से नहीं हो सकता। इस निर्णय प्रक्रिया में निर्वासित कश्मीरी पंडितों को शामिल किया जाना चाहिए और उनकी राय को अहमियत दी जानी चाहिए।

क्या यह संभव नहीं है कि कुछ लोग अपने मूल गांव में लौटना चाहें तो कुछ लोग शहर में नियोजित तरीके से रहने की इच्छा व्यक्त करें और कुछ अपनी सुरक्षा की दृष्टि से किसी अन्य प्रस्ताव के साथ सामने आएं!  इन बातों को नजरअंदाज करके कोई निर्णय सफल नहीं हो सकता। मिश्रित निवास स्थान के निर्णय को पंथनिरपेक्ष सिद्धांतों के मापदंड पर खरा उतरने के बावजूद  व्यावहारिकता की अग्नि-परीक्षा से गुजरना पडे़गा। अत: पूरी प्रक्रिया को अंतिम स्वरूप देने में राज्य, केंद्र सरकार, कश्मीरी पंडितों के साथ घाटी के गैर-राज्य अभिकर्ताओं की भूमिका भी स्वीकार करनी चाहिए।

मिश्रित निवास स्थान के पीछे कश्मीरीयत की बात कही जा रही है। कश्मीरीयत पर प्रहार और इसका विखंडन कश्मीरी पंडितों ने नहीं, बल्कि वहां के आतंकवादियों और उनका समर्थन करने वालों ने किया था। अत: कश्मीरीयत को पुनर्जीवित करने में जो पीडि़त समुदाय है, उसकी भावना, आशंका व भविष्य की संभावनाओं को पहले संबोधित किया जाना चाहिए। इस विडंबना से जम्मू-कश्मीर  जितनी जल्दी निकलेगा, उतनी जल्दी देश के माथे से कलंक मिटेगा और कश्मीर अपने मौलिक स्वरूप को प्राप्त कर पाएगा।
राकेश सिन्हा, मानद निदेशक, भारत नीति प्रतिष्ठान

कॉलोनी से आगे सोचना होगा
कश्मीरी पंडितों के लिए कॉलोनी बनाने की बात चल रही है, मगर यह अपने-आप में पूर्ण समाधान नहीं है। एक कॉलोनी में तय दिशा-निर्देशों के साथ भला कोई कितने दिन तक रह सकता है? मगर हां, यह एक शुरुआत जरूर है। इससे पंडितों का अपने घर लौटने का रास्ता खुलेगा।

कश्मीरी पंडितों के लिए अलग कॉलोनी बसाने से पहले कुछ चीजें साफ हो जानी चाहिए। पहली बात तो यही कि कश्मीरी पंडित किस रूप में वापस लौटें, यह उनका अधिकार होगा। पंडितों की वापसी को लेकर जिस शब्द का प्रयोग होता है, वह है 'गेटो'। गेटो यानी शहर का वह हिस्सा, खासतौर पर मलिन बस्ती, जहां अल्पसंख्यक तबका रहता है। कश्मीरी अलगाववादी इसी शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।

घाटी का बहुसंख्यक तबका भी अपनी राय जाहिर कर रहा है। राजनीतिक दलों के विचार भी सामने आ रहे हैं। मगर जिन्हें वापस लौटना है, उनसे कोई क्यों नहीं पूछ रहा? आखिर पंडित किस दशा में वापस लौटना चाहते हैं, यह तो उन्हीं पर निर्भर होना चाहिए न! अगर वे खुद को एक कॉलोनी में सुरक्षित कर रहे हैं, जो सुरक्षा बलों की निगरानी में रहेगा तो भला इस पर किसी को क्या आपत्ति है?

इसी तरह कुछ ऐसे 'हमदर्द' भी हैं, जो कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों को वहीं लौटना चाहिए, जहां वे 1990 से पहले रह रहे थे। इस तरह के बयान देने वाले कश्मीरी पंडितों के हितैषी नहीं हैं। एक जनवरी, 1990 को घाटी में 75,343 कश्मीरी पंडितों के परिवार थे। अब न के बराबर परिवार वहां हैं। वहां से निकले लोगों में से मुट्ठी भर ऐसे हैं, जिनके मकान वहां सुरक्षित हैं। जब मकान ही नहीं तो उन्हें मूल स्थान पर कैसे भेज सकते हैं?

सवाल न्यायिक प्रक्रिया का भी है। बिना किसी न्याय के कश्मीरी पंडितों से कैसे अपेक्षा रखी जा सकती है कि वे उन्हीं जगहों पर वापस जाएं, जहां से वे जान बचा कर भागे थे? मिसाल के तौर पर, टेलीकॉम इंजीनियर पी के गंजू की हत्या। मार्च 1990 में जब डाउनटाउन श्रीनगर (पुराने श्रीनगर) में दो आतंकी गंजू को मारने आए तो वह चावल के एक ड्रम में छिप गए थे। आतंकी हार कर वापस लौट रहे थे, लेकिन पड़ोसी महिला ने उन्हें बता दिया कि गंजू कहां हैं? आतंकियों ने वापस जाकर न सिर्फ उसी ड्रम में गंजू की हत्या की, बल्कि खून से सने चावल उनकी पत्नी को जबरन खिलाए।

अब गंजू की विधवा से उसी गली-मोहल्ले में लौटने की बात कहना भला कितना न्यायोचित है? ऐसा सिर्फ एक मामला नहीं है। घाटी में 1990 के आसपास 700 से ज्यादा पंडित मारे गए थे, मगर एक भी मामला  न्यायिक प्रक्रिया में अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सका। खैर, कश्मीरी पंडितों को वहां फिर बसाने के लिए अलग कॉलोनी बसाने के साथ लंबी अवधि की योजना चाहिए, और वह तब तक सफल नहीं होगी, जब तक कि वहां के हालात दुरुस्त नहीं किए जाएंगे। दिक्कत नई दिल्ली से भी है। 'सॉफ्ट सेपरेटिज्म' यानी उदार अलगाववाद हमारी सरकार की बड़ी कमजोरी रही है। मोदी सरकार के पास इस 'सॉफ्ट सेपरेटिज्म' को खत्म करने का बड़ा अवसर है।
राहुल पंडिता
चर्चित लेखक और पत्रकार

पंडितों का दर्द
विस्थापित पंडित जम्मू में करीब 20 साल तक कैंप में रहे। करीब 4-5 साल तक ये टैंट में रहने को मजबूर थे। इसके बाद इन्हें एक कमरे वाले घरों में शिफ्ट कर दिया गया। जम्मू के अलावा पूरे देश में कश्मीरी पंडित विस्थापित होकर पहुंचे थे।

घर और संपत्ति पीछे छूट जाने के कारण इनके पास जीवनयापन के लिए अपनी संपत्ति को बेचने का विकल्प शेष था। कईयों ने इस दौरान कश्मीर में अपनी संपत्ति बेच भी डाली। कई रिपोर्ट बताती हैं कि पिछले 23 सालों में पंडितों की जनसंख्या भी तेजी से कम हो गई है।

अलग बस्ती बसाने के विरोध में तर्क
अलग बस्ती बसाने से वह पुरानी स्थिति नहीं लौट सकेगी, जिसमें दोनों समुदाय शांति और सामंजस्य से रहते थे। इससे शहरों और कस्बों का धार्मिक आधार पर भौगोलिक ध्रुवीकरण होगा, जो तनाव पैदा करता रहेगा। कुछ इलाके हमेशा संवेदनशील बने रहेंगे।

हुर्रियत की नजर में यह संघ परिवार की घाटी में घुसने की एक चाल है।
प्रस्तावित कॉलोनी की सुरक्षा के नाम पर स्थाई सैन्य जमावड़े की आशंका।

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