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स्वतंत्रता की अमिट निशानी

स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में अगस्त में ‘शब्द’ के चारों रविवार के पन्ने स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हैं। पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत है ‘झांसी की रानी’ कविता की रचयिता...

स्वतंत्रता की अमिट निशानी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 06 Aug 2016 11:33 PM
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स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में अगस्त में ‘शब्द’ के चारों रविवार के पन्ने स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हैं। पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत है ‘झांसी की रानी’ कविता की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान (16 अगस्त 1904- 15 फरवरी 1948) पर एक आलेख, जिससे हम जान सकते हैं कि प्रतिष्ठित कवयित्री होने के साथ वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और मानवीय-सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं।

यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी/
उसके फूल यहां संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी/ सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी/ आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी।
(‘झांसी की रानी की समाधि पर’ कविता से)

सुभद्रा का जीवन निरंतर संघर्ष का जीवन रहा था। जीवन के ऊंचे-नीचे पड़ावों पर उन्हें ठोकरें लगी थीं, अभाव की पीड़ा ने सताया था, सहयात्रियों की अनुदारता ने उनको क्लेश पहुंचाया था और दुर्दिन की अंधियारी रात में दूर की टिमटिमाती रोशनी के छलावे ने मन को भरमाया भी था, पर उनकी आस्था की निर्झरिणी पता नहीं किस अतल स्रोत से निकली थी कि न तो आपदाएं मनुष्य के प्रति उनके विश्वास को डिगा पाईं और न उनकी जीवन-दृष्टि में ही कोई तिक्तता आ सकी।

गांधी जी के आग्रह पर सत्याग्रह करने के कारण सुभद्रा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। उन्हें एक महीने की सजा हुई।

1941 में जबलपुर सेंट्रल जेल में सुभद्रा अकेली स्त्री राजनीतिक बंदी थीं, इसलिए उन्हें महिला अस्पताल के एक कमरे में रखा गया। उन्हें दो स्त्री कैदी उनके कामकाज के लिए मिली थीं। एक दिन में उनके साथ रहती थी तो एक रात में। उन स्त्रियों से और अन्य अपराधी-बंदिनियों से सुभद्रा उनके सुख-दुख की बातें सुनती थीं। जेल में उनके साथ जैसा क्रूर और अमानुषिक व्यवहार होता था, उससे सुभद्रा के मन को बहुत क्लेश होता था। जितना कुछ वे कर सकती थीं, भरसक उन्होंने उन बंदिनियों के हित में करवाने का प्रयत्न किया। जेल में रहते हुए भी उनकी साहित्य-साधना जारी रही। एक महीने के जेल-प्रवास में उन्होंने करीब पंद्रह कहानियां लिख डालीं। उनकी सभी कहानियों की तरह जेल में लिखी हुई इन कहानियों में भी अधिकतर ऐसी हैं, जो लेखिका की कल्पना और उनकी अपनी मनोकथा, दोनों कगारों को छूती हुई चलती हैं।

जेल का प्रवास बहुत ही शांति का था। जेल की उन अपराधिनी-हत्यारिनी बंदिनियों में उन्हें असली मानवता के दर्शन हुए। उनमें आपस में सुविधाओं के लिए होड़ न होने के कारण वैसा कोई अकेलापन भी नहीं दिखाई पड़ता था, जैसा अच्छे-अच्छे सुशिक्षित संभ्रांत जननेताओं के यहां देखने को मिल जाता है।

20वीं सदी के पूर्वार्ध तक हिंदू समाज में विधवा-विवाह को मान्यता नहीं मिलती थी। फिर समाज यदि छोटा हो तो अधिक अनुशासित होने के कारण उसके कायदे-कानून ज्यादा कड़ाई से माने-मनवाए जाते हैं। जैन समाज में विधवा से विवाह करना बहुत बड़ा अपराध माना जाता था। साइकिल के पीछे कपड़े का गट्ठर बांध कर लाते थे टीकाराम विनोदी। बड़े ही सच्चे, ईमानदार आदमी थे। मेहनत करके अपनी रोजी-रोटी कमाते थे और बाकी समय कांग्रेस का काम करते थे। उनकी कथनी-करनी में भेद नहीं था। एक दिन उन्होंने सुभद्रा को बताया कि वे अपनी सजातीय विधवा स्त्री से विवाह करना चाहते हैं। उन्होंने पूरे मन से इस विवाह में सहयोग दिया। इस दंपती ने देश के लिए बड़ा त्याग किया।
राजनीतिक सभाओं को भंग करने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े जाते थे। सब लोग इन बातों के आदी हो गए थे और जानते थे कि नमक मिले पानी से आंखें धो लेने पर आंसू गैस का प्रभाव कम हो जाता है। जब भी पुलिस आंसू गैस छोड़ती, आसपास के घरों की स्त्रियां अपने-अपने दरवाजों पर नमक मिला पानी लिए खड़ी रहतीं कि जरूरतमंद को दे सकें। सुभद्रा को गिरफ्तार करने जब पुलिस आई तो किसी ने उनसे पूछा कि ‘आप भी जा रही हैं! बच्चे कहां रहेंगे?’ तो उन्होंने जवाब दिया, ‘यहीं रहेंगे और कहां जाएंगे! हम लोग बहुत जल्द वापस आएंगे। सरकार को झुकना पड़ेगा। देश बहुत जल्द आजाद होगा।’ और जाते-जाते अपनी बेटी से कहा, ‘बेटी, घबराना नहीं। हम लोग तीन महीने के भीतर ही छूट जाएंगे।’ फिर पुलिस की लॉरी में बैठ गईं। तब तक काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी और सुभद्रा को ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के गगनभेदी नारों के बीच विदा किया गया। घर पर छोटे-छोटे बच्चे बिलखते रह गए।

जेल में भी वे भूखे को भोजन कराना और प्यासे को पानी पिलाना अपना धर्म समझती थीं। जेल-डायरी में उन्होंने लिखा- ‘मैं भूखे को भोजन खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना अपना धर्म समझती हूं। ईश्वर के बनाए नियमों को मानती हूं। किसी भी मनुष्य को जबरन भूखा रखना मानवता के विरुद्ध है। फिर इस जेल में सब बहनें, चाहे ‘ए’ क्लास की हों, चाहे ‘बी’ या ‘सी’ की, हम सब एक ही पथ की पथिक हैं, हमारा एक ही उद्देश्य है। इस अवस्था में जब दस बहनें भूखी पड़ी हैं, वहीं हम खाना खाकर, निश्चिंत होकर कैसे अपने प्रतिदिन के कार्य में लग सकते हैं? कम-से-कम मैं तो नहीं देख सकती।’ सहज ममतामयी मां के लिए अपने बच्चों की चिंता का अंत नहीं था। उन्हें एक ही बार माफी मांग कर जेल से छूटने का भी प्रलोभन दिया गया, पर वे नहीं मानीं। उन्होंने असली क्षत्राणी का परिचय दिया था।

सन 42 के आंदोलन में सुभद्रा कुमारी करीब नौ महीने जेल में रहीं। जेल में उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी, उनको बाहर से होमियोपैथिक दवाई मंगाने की भी इजाजत नहीं थी। बहुत लिखा-पढ़ी के बाद जेल के ही एलोपैथ डॉक्टर से इलाज कराने की इजाजत मिली, लेकिन पेट का ‘ट्यूमर’ फिर से बढ़ गया। पर जेल अधिकारियों ने किसी और से इलाज नहीं करवाया। केवल एक बार उन्हें जेल से बाहर विक्टोरिया अस्पताल जांच के लिए ले जाया गया। वहां लोगों ने उन्हें पहचान लिया और भीड़ इकट्ठा होने लगी। भीड़ बढ़ती देख जेल अधिकारी फौरन उन्हें गाड़ी में बिठा ले गए। फिर भी उन्होंने एक झलक अपने बच्चों को देख ही लिया।

अस्पताल में कोई फायदा नहीं हुआ। उनकी तबीयत बिगड़ती ही चली गई। ‘ट्यूमर’ के साथ-साथ अब उन्हें ‘एनीमिया’ भी हो गया था, लेकिन दुबारा उनकी जांच नहीं करवाई गई। उनकी हालत बराबर गिरती ही गई। तब उन्हें मजबूर होकर पहली मई सन 1943 को जेल से बाहर लाकर सीधे विक्टोरिया अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। ऑपरेशन कराना एकदम जरूरी था, इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया। शायद सरकार को डर लगा होगा कि अगर कहीं जेल में रहते हुए ही ऑपरेशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गई तो बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। सरकार जनता के क्रोध से डरने लगी थी।

कवि सम्मेलनों में जाकर रुपए लेकर कविता-पाठ करना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। जिस भी कवि सम्मेलन से रुपया मिले, वहां जाना सुभद्रा को बहुत ग्लानिकर लगता था और वे उससे दुखी रहती थीं। एक बार उन्होंने कहा भी था कि ‘इस तरह से जाना तो ऐसा है, जैसे नाच-गाकर रुपया कमाना।’ 15 अगस्त 1947 को आजादी के उपलक्ष्य में लखनऊ के रेडियो कवि सम्मेलन में भी वे नहीं गईं।
दिन-भर लोग सुभद्रा के पास अपनी मुसीबतें लेकर आते थे। उनके पास भी सबकी बातें सुनने के लिए समय रहता था और फिर उनसे जितना कुछ हो सकता था, हर एक का कष्ट दूर करने का प्रयत्न करती थीं। पता नहीं कितनी तरह के काम लेकर लोग उनके पास आते थे और वे फौरन उनका काम करवाने को घर से निकल पड़ती थीं।

इतने परिश्रम और असंख्य चिंताओं से उनका रक्तचाप बढ़ गया। उनके सिर में भयंकर दर्द होता था। विधानसभा की सदस्य हो जाने के कारण आराम नहीं मिलता था। राजनीति की गुटबंदी उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। उन्होंने जब राजनीति में प्रवेश किया था, तब के जीवन-मूल्य कुछ और ही थे। उनके देश-प्रेम का आधार हृदय था, जो भावना में बहना जानता है, रुक कर, थम कर, आगा-पीछा सोच कर दांव-पेच चलाना नहीं जानता। राजनीति में वे अपने आपको बेमेल पाती थीं, तथापि विधानसभा में अपने विवेक के अनुसार कर्तव्य निर्वाह कर रही थीं। विधानसभा में उप-सभापति के लिए भी उनका नाम आया, पर वे पीछे हट गईं, एक अन्य स्त्री के पक्ष में।

हिंदू समाज में स्त्री कितनी असहाय होती है, इसके उदाहरण उन्हें आए दिन मिला करते थे। स्त्री ही स्त्री के अधिकार छीनती है, यह तथ्य उनसे छिपा न था- इसीलिए यदि कानून द्वारा उसे कुछ संरक्षण मिल जाए तो उसकी स्थिति जरूर बदलेगी- यही सोच कर विधानसभा में उन्होंने बहुपत्नीत्व के विरोध में और किन्हीं-किन्हीं परिस्थितियों में स्त्री को तलाक मिल सके, इसके पक्ष में एक बिल पेश किया था। 1940 में जबलपुर में हुए महिला सम्मेलन में उन्होंने विधवा-विवाह के समर्थन में प्रस्ताव रखा।
रिक्शे पर बैठ कर वे कभी पैसा तय नहीं करती थीं। जो भी रेट होता, उससे ज्यादा ही देती थीं। वे कहती थीं कि गरीब आदमी को दो-चार आना कम देने से कोई खास बचत नहीं होती, पर उसके लिए एक-दो आना ज्यादा मिल जाना बड़ी बात होती है।

उनकी पड़ोसन को पहला बच्चा हुआ- वो उसे गोद में रख कर मुश्किल से स्वेटर बुन पा रही थी। सुभद्रा ने देखा तो कहा कि ‘तुम ऊन मेरे पास छोड़ दो। मैं तुम्हें बुन कर दे दूंगी।’ और तीन-चार दिन बाद बुन कर दे भी आईं। कोई रूखा-सूखा खाता दिख जाए तो उसे वह दूध-दही देती थीं।
(सुभद्रा कुमारी चौहान, लेखक: राजेंद्र उपाध्याय, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत से साभार)

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