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गीता का संदेश

रामायण और महाभारत नरेंद्र कोहली की लेखन की धुरी रहे हैं। उन्होंने इन दोनों ग्रंथों की गाथाओं पर आधारित कई उपन्यासों की रचना की है। प्रस्तुत उपन्यास भी इसी सिलसिले की नवीनतम कड़ी है। इसमें उन्होंने...

गीता का संदेश
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 09 Jan 2016 08:23 PM
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रामायण और महाभारत नरेंद्र कोहली की लेखन की धुरी रहे हैं। उन्होंने इन दोनों ग्रंथों की गाथाओं पर आधारित कई उपन्यासों की रचना की है। प्रस्तुत उपन्यास भी इसी सिलसिले की नवीनतम कड़ी है। इसमें उन्होंने गीता को आधार बना कर एक कथा रची है। कथा की पृष्ठभूमि महाभारत ही है, लेकिन उपन्यास का उद्देश्य गीता के सिद्धांतों को प्रस्तुत करना है। पौराणिक गाथाओं को लेकर कोहली ने पूर्व में जो उपन्यास रचे हैं, उनकी कथाभूमि प्राचीन होने पर भी, उनमें वर्णित प्रसंगों के जरिये आधुनिक समाज की समस्याओं का हल परम्परा के दायरे में खोजने का उनका प्रयत्न रहा है। 'शरणम्' में यही दृष्टि काम करती है। धृतराष्ट्र, गांधारी, संजय, विदुर, अर्जुन, कृष्ण आदि पात्रों को लेकर वह एक कथा रचते हैं, जो गीता के संदेश को अभिव्यक्त करती है।
शरणम्, नरेंद्र कोहली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य 395 रुपये।

कुछ अपनी कुछ जग की
वरिष्ठ लेखक नरेंद्र मोहन की आत्मकथा की दूसरी कड़ी है- क्या हाल सुनावां। पहली कड़ी थी 'कमबख्त निंदर', जिसमें उन्होंने अपने जन्म से 1977 तक वृत्तांत समेटा था। प्रस्तुत खंड में उन्होंने 1977 से अब तक की आपबीती दर्ज की है। इसमें जितना कुछ व्यक्तिगत उपस्थित हुआ है, उतना ही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वर्णित दौर का देश-काल उपस्थित है। इसमें आपातकाल और उसके बाद के हालात का जिक्र है। खासकर 1984 के दंगे, 1990 में कश्मीरी पंडितों का विस्थापन, 1992 में बाबरी मस्जिद का तोड़ा जाना और फिर 2002 के गुजरात के दंगों का जिक्र, जिनसे इस दौर की सूरत तय हुई। लेखक ने अपने लेखकीय व अध्यापकीय जीवन का भी दिलचस्प खाका खींचा है। इस क्रम में रमेश बक्षी और सुदर्शन चोपड़ा जैसे बिसर-से गए लेखकों का भी जिक्र है और खुद नरेंद्र मोहन के नाटककार रूप का भी। चित्रकला वगैरह के प्रति दिलचस्पी का भी उन्होंने बयान किया है। कविता की मौजूदगी इसमें जगह-जगह आती है। यह बेबाक है, मगर असंयमित नहीं।   
क्या हाल सुनावां, नरेंद्र मोहन, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य 390 रुपये।

कश्मीर का दर्द
जम्मू-कश्मीर के उलझे हुए हालात आजादी के बाद आज तक लगातार चर्चा का विषय रहे हैं, लेकिन हिंदी साहित्य में अग्निशेखर और चंद्रकांता जैसे कुछेक लोगों को छोड़ कर शायद ही किसी ने इस पर प्रमुखता से कुछ लिखा है। इस संदर्भ में पंजाबी लेखिका सुरिंदर नूर का यह उपन्यास उल्लेखनीय है, जिसमें कश्मीर को विषय बनाया गया है। पंजाबी से अनूदित यह कृति बेहद संवेदनशील तरीके से जम्मू व कश्मीर के पेचीदा वर्तमान पर रोशनी डालती है। पंजाबी के मशहूर आलोचक अमरजीत सिंह ग्रेवाल ने इसको कश्मीरी पंजाबियों के सांस्कृतिक-राजनीतिक जीवन की पुनर्कल्पना करने वाला बताया है। इसमें आतंकवाद के असर का जिक्र है तो इस प्रतिकूलता के बावजूद भाईचारेपन को बचाए रखने की कोशिशों का भी। कश्मीर के एक ग्रामीण परिवार की कहानी के बहाने यह उपन्यास हमारे समय के एक ज्वलंत यथार्थ को पेश करता है।              

शिकारगाह, सुरिंदर नीर, अनुवाद- सुभाष नीरव, मित्तल एंड संस, दिल्ली, मूल्य 550 रुपये।

उम्मीदों की रोशनी

सुपरिचित कवि-गीतकार यश मालवीय का नवीनतम गीत संग्रह है- 'रोशनी देती बीडियां'। कविता से अभिन्न होते हुए भी गीत की स्वतंत्र अस्मिता को मान लिया गया है और जो चुनिंदा रचनाकार गीत-लेखन में पूरी गंभीरता से लगे हुए हैं, यश उनमें अग्रणी हैं। उनके लिए गीत सिर्फ लय-तुक का मसला या कविता को गद्यात्मक होने से बचाने का प्रश्न नहीं है, बल्कि कविता की प्रत्यक्ष संवादपरकता को पुनस्थापित करने का प्रयास है। कबीर अपने हरेक पद के अंत में 'सुनो भाई साधो' कहते हैं, अर्थात् सीधे संवाद पर जोर देते हैं, उसी तरह यश लोगों से सीधे संवाद करते हैं। तभी वह कहते हैं- रामसजीवन पहल करो, परछाई से नहीं डरो। स्वभाविक ही उनका कवि मन सिर्फ अंधेरों के छंटने का सपना नहीं देखता, बल्कि अंधेरों को दूर करने के लिए सचेष्ट भी होता है- चलो चलें कुछ पढ़ें कबीरा..       
रोशनी देती बीडियां, यश मालवीय, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, मूल्य 50 रुपये।

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