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शिक्षा और शिक्षक

समाज की उन्नति में शिक्षकों की भूमिका अहम है, पर यह भी देखा जाता है कि समाज में शिक्षकों को प्राय: वह सम्मान नहीं मिलता, जिसके वे अधिकारी हो सकते हैं। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं कि कोई शिक्षक...

शिक्षा और शिक्षक
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 28 May 2016 09:17 PM
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समाज की उन्नति में शिक्षकों की भूमिका अहम है, पर यह भी देखा जाता है कि समाज में शिक्षकों को प्राय: वह सम्मान नहीं मिलता, जिसके वे अधिकारी हो सकते हैं। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं कि कोई शिक्षक कितनी निराशा का अनुभव करता होगा। इस संदर्भ में ‘उत्तराखंड : उम्मीद जगाते शिक्षक’ पुस्तक एक उल्लेखनीय प्रयास है। इसमें उत्तराखंड के कुछ शिक्षकों के बारे में बतलाया गया है, जो किसी पुरस्कार की आशा के बगैर अपने क्षेत्र में बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बेहतर बनाने का प्रयास कर रहे हैं। यह पुस्तक एक उदाहरण पेश करती है कि तमाम स्थानों में ऐसे शिक्षक हो सकते हैं, जिन्हें सहयोग और समर्थन देकर शिक्षा-जगत की दुश्वारियों को दूर करने की कोशिश की जा सकती है।
उत्तराखंड: उम्मीद जगाते शिक्षक-2, संपादक- कैलाशचंद्र कांडपाल, 
अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, देहरादून, मूल्य- उल्लेख नहीं।


कथा-समय
प्रतिष्ठित लघु प्रत्रिका ‘पल-प्रतिपल’ का सद्यप्रकाशित 79वां अंक ‘कथा का समकाल’ विशेषांक है। संपादक देश निर्मोही ने लिखा है कि हम उस दौर के साक्षी हैं, जो अपनी कहानी कह पाने में असमर्थ हो गया है। आखिर वह कहानी है क्या? निर्मोही सवाल करते हैं और खुद ही एक और सवाल से इसका जवाब देते हैं, क्या यह समकाल की कहानी है या कहानी के भीतर से झांकता समकाल, जो अपनी कहानी नहीं कह पा रहा है। वह इस चर्चा को परिणति तक ले जाते हैं कि इन दोनों ही स्थितियों में वास्तविक अंत कहने की इजाजत नहीं है। कहना न होगा कि सत्य को अभिव्यक्त करने की यह मुश्किल हमारे समय और समाज दोनों के लिए तकलीफदेह, मगर आवश्यक प्रश्न है। इस विशेषांक में एदुआर्दो गालेआनो और लातिन अमेरिकी अनुभवों के बहाने जहां इतिहास की कथा कही गई है, वहीं जुजे सरामागो के बहाने लेखक के अंतरजगत का उद्घाटन करने की कोशिश की गई है। नौ कथाकारों की एक-एक कहानी भी दी गई है।
पल प्रतिपल: कथा का समकाल-2, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), मूल्य- 100 रुपये।


कारपोरेट मीडिया
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। इस धारणा में उसकी जनपक्षधरता को रेखांकित करने का ही प्रयास किया गया है। इसी जनपक्षधरता से अर्जित शक्ति या इसके दायित्वबोध की प्रेरणा के कारण यह भी कहा जाता रहा है कि ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’ लेकिन गुजरे जमाने की ये सभी बातें आज की मुख्यधारा की मीडिया का वास्तविक निरूपण कर पाने में असमर्थ हो चुकी हैं। आज का मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा होने से इनकार नहीं करता, पर आज वह कारपोरेट बन चुका है, जिसका प्राथमिक लक्ष्य मुनाफा कमाना है। लेखक-पत्रकार दिलीप मंडल अपनी इस पुस्तक में मीडिया के इस चरित्र की पड़ताल करते हैं। इसमें वह पश्चिम के बरअक्स भारत की सामाजिक संरचना का विशेष रूप से जिक्र करते हैं, जिसके कारण भारतीय मीडिया पूंजी-केंद्रित होने के साथ-साथ जातिवादी भी बन जाता है।
चौथा खंभा प्राइवेट लिमिटेड, दिलीप मंडल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य-150 रुपये।


कला-विनोद
हिंदी पत्रकारिता और कला-साहित्य के बीच दुराव की बात आजकल अक्सर सुनने को मिलती हैं। परिवर्तित माहौल में निश्चय ही इन दोनों चीजों का संबंध वैसा नहीं रह गया है, जैसा अतीत में था या समझा जाता था। आज भी अखबारों का कला-साहित्य से नाता खत्म नहीं हुआ है। सुपरिचित लेखक-पत्रकार आलोक पराड़कर की यह पुस्तक इसकी पुष्टि करती है, जिसमें कला-संगीत और साहित्य से संबंधित लेख, समीक्षाएं और टिप्पणियां संकलित हैं। इस पुस्तक को पढ़ते हुए जहां अपनी कला-साहित्य की विरासत पर सुखद आश्चर्य होता है, वहीं इनकी साज-संभाल की चिंता भी होती है। इसमें नौटंकी कलाकार गुलाब बाई, गायिका बेगम अख्तर, कथक नर्तक अर्जुन मिश्र, लोकगायक बालेश्वर, शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खान समेत कई कलाकारों की दिलचस्प चर्चा है।
कला कलरव, आलोक पराड़कर, नाट्य वसुधा प्रकाशन, वाराणसी, मूल्य- 100 रुपये।
 

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