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अन्धकार से जूझना है!

दीपावली हम उस रात को मनाते हैं, जो वर्ष की सबसे अंधियारी रात होती है। यह अन्धकार के खिलाफ मनुष्य की जिजीविषा का प्रतीक है। प्रकाश के प्रति आस्था का प्रतीक है। इसीलिए इसे ज्योतिपर्व कहा गया। हमारे...

अन्धकार से जूझना है!
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 29 Oct 2016 08:29 PM
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दीपावली हम उस रात को मनाते हैं, जो वर्ष की सबसे अंधियारी रात होती है। यह अन्धकार के खिलाफ मनुष्य की जिजीविषा का प्रतीक है। प्रकाश के प्रति आस्था का प्रतीक है। इसीलिए इसे ज्योतिपर्व कहा गया। हमारे साहित्य में अतीत से लेकर अब तक यह ज्योतिपर्व अलग-अलग रूपों में दिखता रहा। कभी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध के रूप में तो कभी नज़ीर अकबराबादी की नज्म की शक्ल में। कभी प्रसाद और बच्चन जी तो कभी महादेवी की कविता में। ज्योतिपर्व पर  ‘हिन्दुस्तान’ की खास प्रस्तुति :

न जाने कब से मनुष्य के अन्तरतर से ‘दीन-रट’ निकलती रही, मैं अन्धकार से घिर गया हूं, मुझे प्रकाश की ओर ले चलो- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय!’ परन्तु यह पुकार शायद सुनी नहीं गई- ‘होत न श्याम सहाय!’ प्रकाश और अन्धकार की आंखमिचौनी चलती ही रही, चलती ही रहेगी। यह तो विधि-विधान है। कौन टाल सकता है इसे। लेकिन मनुष्य के अन्तर्यामी निष्क्रिय नहीं हैं। वे थकते नहीं, रुकते नहीं, झुकते नहीं। वे अधीर भी नहीं होते। वैज्ञानिक का विश्वास है कि अनन्त रूपों में विकसित होते-होते वे मनुष्य के विवेक रूप में प्रत्यक्ष हुए हैं। करोड़ों वर्ष लगे हैं इस रूप में प्रकट होने में। उन्होंने धीरज नहीं छोड़ा। स्पर्शेन्द्रिय से स्वादेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय की ओर और फिर चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रियेन्द्रिय की ओर अपने-आपको अभिव्यक्त करते हुए मन और बुद्धि के रूप में आविर्भूत हुए हैं। और भी न जाने किन रूपों में अग्रसर हों। वैज्ञानिक को ‘अन्तर्यामी’ शब्द पसन्द नहीं है। कदाचित् वह प्राणशक्ति कहना पसन्द न करे। नाम का क्या झगड़ा है?

जीव का काम पुरा काल में स्पर्श से चल जाता था, बाद में उसने घ्राणशक्ति पाई। वह दूर-दूर की चीजों का अन्दाजा लगाने लगा। पहले स्पर्श से भिन्न सब कुछ अन्धकार था। अन्तर्यामी रुके नहीं। घ्राण का जगत्, फिर स्वाद का जगत्, फिर रूप का जगत्, फिर शब्द का संसार। एक पर एक नए जगत् उद्घाटित होते हुए। अन्धकार से प्रकाश, और भी प्रकाश, और भी, और भी। यहीं तक क्या अन्त है? कौन बताएगा? कातर पुकार अब भी जारी है- तमसो मा ज्योतिर्गमय। न जाने कितने ज्योतिलोक उद्घाटित होने वाले हैं। कहते हैं, और ठीक ही कहते होंगे, कि मनुष्य से भिन्न अवर सृष्टि में भी इन्द्रिय गृहीत बिम्ब किसी-न-किसी रूप में रहते हैं, पर वहां दो बातों की कमी है। इन बिम्बों को विविक्त करने की शक्ति और विविक्तीकृत बिम्बों को अपनी इच्छा से संकल्पपूर्वक नये सिरे से नये प्रसार-विस्तार या परम्युटेशन-कॉम्बिनेशन की प्रक्रिया द्वारा नयी अर्थात् प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं से भिन्न नयी चीज बनाने की क्षमता।

शब्द के बिम्बों के विविक्तीकरण का परिणाम भाषा, काव्य और संगीत है, रूप-बिम्बों के विविक्तीकरण के फल रंग, उच्चावचता, ह्रस्व-दीर्घ-वर्तुल आदि बिम्ब और फिर संकल्प शक्ति द्वारा विनियुक्त होने पर चित्र, मूर्ति, वास्तु, वस्त्र, अलंकरण, साज-सज्जा आदि। इसी तरह और भी इन्द्रिय गृहित बिम्बों का विविक्तीकरण और संकल्प-संयोजन से मानव-सृष्ट सहस्रों नई चीजें। यह कोई मामूली बात नहीं है। अभ्यास के कारण इनका महत्व भुला दिया जाता है। पर भुलाना नहीं चाहिए। मनुष्य कुछ भुलक्कड़ हो गया है। लेकिन यह बहुत बड़ा दोष भी नहीं है। न भूले तो जीना ही दूभर हो जाए। मगर ऐसी बातों का भूलना जरूर बुरा है, जो उसे जीने की शक्ति देती हैं, सीधे खड़ा होने की पे्ररणा  देती हैं।

किस दिन एक शुभ मुहूर्त में मनुष्य ने मिट्टी के दिये, रुई की बाती, चकमक की चिनगारी और बीजों से निकलने वाले स्रोत का संयोग देखा। अन्धकार को जीता जा सकता है। दिया जलाया जा सकता है। घने अन्धकार में डूबी धरती को आंशिक रूप में आलोकित किया जा सकता है। अन्धकार से जूझने के संकल्प की जीत हुई। तब से मनुष्य ने इस दिशा में बड़ी प्रगति की है, पर वह आदिम-प्रयास क्या भूलने की चीज है? वह मनुष्य की दीर्घकालीन कातर प्रार्थना का उज्ज्वल फल था। दीवाली याद दिला जाती है उस ज्ञान लोक के अभिनव अंकुर की, जिसने मनुष्य की कातर प्रार्थना को दृढ़ संकल्प का रूप दिया था- अन्धकार से जूझना है, विघ्न-बाधाओं की उपेक्षा करके, संकटों का सामना करके।

इधर कुछ दिनों से शिथिल स्वर सुनाई देने लगे हैं। लोग कहते सुने जाते हैं- अन्धकार महाबलवान है,  उससे जूझने का संकल्प मूढ़ आदर्श मात्र है, सोचता हूं, यह क्या संकल्प-शक्ति का पराभव है? क्या मनुष्यता की अवमानना है? दीवाली आकर कह जाती है, अन्धकार से जूझने का संकल्प ही सही यथार्थ है। मृगमरीचिका में मत भटको। अन्धकार के सैकड़ों परत हैं। उससे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता  है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी की पूजा कहते हैं।


दीप / जयशंकर प्रसाद
धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को,
अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा बरसाने को।
गिरि संकट में जीवन-सोता मन मारे चुप बहता था,
कल कल नाद नहीं था उसमें मन की बात न कहता था।।
इसे जाह्नवी-सी आदर दे किसने भेंट चढ़ाया है
अंचल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया है।
जला करेगा वक्षस्थल पर बहा करेगा लहरी में,
नाचेंगी अनुरक्त बीचियां रंचित प्रभा सुनहरी में।।
तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी,
सुप्त खगों की नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी।
देख नग्न सौन्दर्य प्रकृति का निर्जन में अनुरागी हो,
निज प्रकाश डालेगा जिसमें अखिल विश्व 
समभागी हो।।
किसी माधुरी स्मित सा होकर यह संकेत बताने को,
जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाने को॥
(साभार- ‘झरना’:1918)

साथी, घर-घर आज दिवाली! / हरिवंशराय बच्चन
फैल गयी दीपों की माला
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
    
हास उमंग हृदय में भर-भर
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!
    
आंख हमारी नभ-मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारोंवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

क्यों न तुमने दीप बाला / महादेवी वर्मा
क्यों न तुमने दीप बाला
क्यों न इसके शीत अधरों से लगाई
अमर ज्वाला

अगम निशि है यह अकेला
तुहिन पतझर वात वेला
उन करों की सहज सुधि में
पहनता अंगार-माला
स्नेह मांगा और न बाती
नींद कब, कब क्लांति भाती
वर इसे दो एक कह दो
मिलन के क्षण का उजाला

झर इसी से अग्नि के कण
बन रहे हैं वेदना घन
प्राण में इसने विरह का
मोम सा मृदु शलभ पाला
यह जला निज धूम पीकर
जीत डाली मृत्यु जीकर
रत्न सा तम में तुम्हारा
अंक मृदु पद का संभाला

यह न झंझा से बुझेगा
बन मिटेगा मिट बनेगा
भय इसे है हो न जावे
प्रिय तुम्हारा पंथ काला

(‘आलोक पर्व’, राजकमल प्रकाशन से साभार)

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