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जेल में एक बौद्ध भिक्षु

जनकवि नागार्जुन का जन्मदिवस 30 जून को पड़ता है। नागार्जुन की कविता जैसी बहुरंगी है, वैसा ही बहुआयामी जीवन भी ‘यात्री’ नागार्जुन ने जीया है। नागार्जुन के पुत्र शोभाकांत उनकी जीवनी लिख रहे...

जेल में एक बौद्ध भिक्षु
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 25 Jun 2016 08:36 PM
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जनकवि नागार्जुन का जन्मदिवस 30 जून को पड़ता है। नागार्जुन की कविता जैसी बहुरंगी है, वैसा ही बहुआयामी जीवन भी ‘यात्री’ नागार्जुन ने जीया है। नागार्जुन के पुत्र शोभाकांत उनकी जीवनी लिख रहे हैं। यहां प्रस्तुत है, इसी से एक अप्रकाशित अंश:

नागार्जुन की यह दूसरी जेल यात्रा थी। भागलपुर की केंद्रीय कारा में रखे गए थे। यहां उनके कई और राजनीतिक मित्र भी आ पहुंचे थे। समय का ज्यादा भाग राजनीतिक बहसों में ही गुजरता था। पिछले दो वर्षों से नागार्जुन राजनीति में सक्रिय हो गए थे।
उन दिनों उसी जेल में प्रख्यात क्रांतिकारी और भगत सिंह के साथी केदार मणि शुक्ल भी थे। उन्हें यह भार दिया गया था कि राजनैतिक बंदियों से मिलने-जुलने वालों पर नजर रखें। भिक्षु नागार्जुन से उनकी अच्छी मित्रता थी। एक दिन सवेरे नौ-दस बजे के आसपास शुक्ल जी ने नागार्जुन से कहा, ‘एक वृद्ध दो-तीन दिनों से एक कैदी के संबंध में पूछताछ कर रहे हैं, मुझे लगता है कि वह कैदी आप ही हैं।’ नागार्जुन चौंक उठे। जिज्ञासापूर्वक शुक्ल जी की ओर देखने लगे। मानो पूछना चाह रहे हों कि कौन है? राजनीति से संबंधित कोई होता तो शुक्ल जी निश्चित रूप से जानते होते। फिर जेल के फाटक पर साहित्यिक या कोई बौद्ध भला क्यों आएगा? रिकॉर्ड के अनुसार, उस समय भिक्षु नागार्जुन का कोई सगा-संबंधी नहीं था। भिक्षु का अर्थ ही होता है त्यागी। उस काल के नागार्जुन ने अपने रक्त के संबंधों तक को त्याग दिया था।

शुक्ल जी से पूछ बैठे, आपको कैसे पता चला कि मुझ से ही मिलने के लिए वह वृद्ध दो-तीन दिनों से चक्कर काट रहा है? शुक्ल जी ने भिक्षु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘बाहर गेट पर जिस वृद्ध से मैं बात करके आ रहा हूं, वह या तो आपके पिता हैं या मामा!’ अब नागार्जुन भीतर ही भीतर और भी परेशान हो उठे। शुक्ल जी की ओर टकटकी लगाए रहे, वह जानना चाह रहे थे कि शुक्ल जी यह सब किस आधार पर कह रहे हैं। मगर तब तक शुक्ल जी लगभग खींचते हुए भिक्षु को जेल के फाटक तक ले आए। वृद्ध ने भिक्षु को लगभग सात वर्षों के अंतराल पर देखा। उनका यह रूप-रंग देख कर बेचारे की आंखों से आंसू फूट पड़े। पुत्र पर ही टकटकी लगाए रहे। मन में ख्याल आया कि यह आखिर ‘ठक्कन’ ही निकला। भिक्षु नागार्जुन भी तो एकमात्र पुत्र थे उस वृद्ध के। फाटक के उस पार पिता की यह स्थिति देख कर अपने आंसू संभाल नहीं पाए। विकल पिता और भगोड़ा पुत्र। दोनों के बीच जेल का बड़ा फाटक।

शुक्ल जी ने जेल अधिकारियों से कह कर भिक्षु के पिता को मिलने-जुलने वाले विशेष कमरे में बैठाने की व्यवस्था की। पिता-पुत्र वर्षों के बाद साथ-साथ बैठे। पिता ने न जाने कितनी बार अपनी गमछी से आंसू पोंछे। गला बार-बार भर आता था। भिक्षु पुत्र की आंखों से भी न जाने कितने दिनों के बाद आंसू निकले थे उस दिन। आंसुओं का वेग थमा तो दुनियादारी सामने आई। पिता की नजर से वृद्ध ने पुत्र को जांचा-परखा। आश्वस्त हुए कि बेटा शारीरिक रूप से स्वस्थ है। भिक्षु अपने जनक को गहरी दृष्टि से कुछ देर देखते रहे। अपनी एक मैथिली कविता की कुछ पंक्तियां भीतर गूंज उठीं- ‘कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप/ हम टा संतति, से हुनक पाप/ इ जानि ह्वैन्हि जनु मनस्ताप/ अनको बिसरक थिक हमर नाम...’

एकमात्र पुत्र के पिता होने के कारण गोकुल मिश्र के मन में न जाने कितने प्रश्न उपज रहे थे। नाना प्रकार की शंकाएं हो रही थीं। स्वभाव से क्रोधी होने के बावजूद उस समय उन्हें स्वयं को परम संयमित रखना पड़ा। बड़ी ही मुश्किल से पुत्र के इस अते-पते की जानकारी उन्हें मिली थी। इसके लिए अपने ग्रामीण पंडित अनिरुद्ध मिश्र के वह हमेशा कृतज्ञ रहेंगे। कलकत्ते वाला ‘दैनिक विश्वमित्र’ पूरा का पूरा चाट जाया करते थे। उसमें एक दिन उन्होंने पढ़ा कि भागलपुर जेल में राजनैतिक बंदियों के साथ एक बौद्ध भिक्षु भी बंद है। उनके मन में न जाने यह बात कैसे जम गई कि यह राजनैतिक बंदी बौद्ध भिक्षु अपना वैद्यनाथ ही होगा। गोकुल बाबू उसी सूचना के आधार पर यहां आए थे।

जेल फाटक पर अपने पुत्र तरौनी निवासी वैद्यनाथ की खोजबीन करने पर उन्हें इस नाम के किसी भी कैदी का अता-पता नहीं लगा। लेकिन अपने ग्रामीण पंडितजी की बातों पर उन्हें पूरा विश्वास था। अत: जेल फाटक के सामने वाले मैदान के एक किनारे पेड़ के नीचे अपना आसन जमाया। उन दिनों लोगों को अपने संबंधी कैदियों से भेंट-मुलाकात में कई-कई दिन लग जाया करते थे। अत: जेल के आसपास दस-बीस लोग जमे ही रहते। सबेरे-शाम दो-चार चूल्हे भी जलते। गोकुल बाबू भी वहीं स्वयं पाकी बन गए। रोटी सेंकते और जेल-फाटक के सिपाहियों से अपने पुत्र के बारे में बात किया करते। उनकी वेश-भूषा और रंग-ढंग से किसी सिपाही को विश्वास नहीं हो पाता था कि किसी प्रथम श्रेणी के राजनैतिक बंदी के पिता ये हो सकते हैं। गेट के भीतर से शुक्ल जी ने लगातार दो दिनों तक उन्हें देखा। कई दफे बात की। बातों से अंदाजा लगाया। संयोग ऐसा कि अंदाजा सही निकला।
अभी पुत्र सामने बैठा था। इस युवक के मन में पिता के प्रति बहुत ही आक्रोश और असंतोष भरा पड़ा है।

यूं कहने के लिए पिता ने पुत्र के प्रति अपने सभी कर्तव्य, जितना वह समझ पाए, किए ही हैं। मातृहीन बालक को पालना-पोसना कितना कठिन है- यह पुत्र कहां समझ पाता। यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। समय पर शादी कर दी। फिर भी आक्रोश कहां कम हुआ। यज्ञोपवीत संस्कार की बात मन में आते ही पिता पूछ बैठे, ‘सुना है समुद्र लांघ आए! जनेऊ पहन रखा है या उसे भी बीच समुद्र में डुबा आए?’ इस बात पर वहां उपस्थित आंदोलनधर्मियों को हंसी आ गई। भिक्षु अपने पिता से कुछ कहते, इससे पूर्व पिताश्री ने मंत्रसिक्त पीला जनेऊ पुत्र की ओर बढ़ाया और कहा, ‘जनेऊ ही ब्राह्मणों की पहचान है। इसे मामूली धागा कभी मत समझो। इसको धारण करने वाला ब्रह्मरूपी मनुष्य न जाने कितने जन्मों के बाद जन्म ले पाता है।’ भिक्षु ने पिता की ओर देखा और जनेऊ को चुपचाप कुर्ते की जेब में डाल लिया।

गोकुल मिश्र मूल रूप से कर्मकांडी ब्राह्मण थे। पुत्र का गांव-घर-बीवी को छोड़ कर संन्यासी हो जाना उन्हें भीतर ही भीतर पूरी तरह कचोटता था। शादीशुदा पुत्र के घर छोड़ने और भिक्षु हो जाने के कारण गोकुल बाबू को गांव का समाज और संबंधी वर्ग खूब प्रताड़ित किया करते। खास करके पुत्र-वधू के पिता तो अपने दामाद की इस स्थिति के लिए सारा दोष उन्हें ही देते। साथ ही पुत्र-वधू की स्थिति पर जब सोचते तो भीतर से कांप जाते। जेल के उस मिलन-कक्ष में उपस्थित भिक्षु के बंदी मित्रों और जेल के अधिकारियों से रो-रोकर गोकुल बाबू अपनी व्यथा-कथा से ज्यादा वैद्यनाथ की पत्नी की व्यथा-वेदना का वर्णन करते रहे। पिता ने कहा, ‘मुझे छोड़ दिया, घर छोड़ा, इसकी परवाह मुझे नहीं है। इस भगोड़े के सहारे मेरी जिंदगी क्या चलेगी? पर इसके साथ बछिया जैसी निरीह बांभनी का जीवन बंधा है, उसका क्या होगा? उसको तो भवसागर पार यही करवाएगा। वह बछिया ब्राह्मणी
क्या आजीवन इसका नाम ले-लेकर रोती रहेगी? मुझ से तो उस बेचारी का दुख-दर्द नहीं देखा जाता अब।’

जेल के अधिकारियों और वहां के उस काल के भिक्षु के मित्रों को इस तथागत की उस यशोधरा के मानवीय संवेदनशील पक्ष पर ध्यान देना पड़ा। पुत्र से अलग होते-होते गोकुल मिश्र ने वादा करवा ही लिया कि पुत्र इस जेल-यात्रा के बाद अवश्य घर आएगा। पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ पुत्र पर। तो, निदान तय यह किया गया कि ‘रिहाई’ का आदेश आते ही जेल से गोकुल बाबू को पत्र जाएगा, ताकि वह स्वयं आकर पुत्र को ले जाएं। यदि उनको यहां तक आने में कुछ दिन का विलंब भी होगा, तो भिक्षु एक जेल-अधिकारी के घर नजरबंद की तरह रहेंगे। हर हालत में भिक्षु को अपनी अ-भिक्षुणी के पास जाना ही पड़ेगा।
(यह घटना 1941 की है)

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