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सब बन्धनों से मुक्त पुरुष ही ईश्वर

‘ईश्वर’ शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, पर शब्द का साधारण अर्थ है नियंता। जो इस विश्व का नियंत्रण करते हैं, वे हैं ईश्वर। दार्शनिक भाषा में ‘ईश्वर’ शब्द का एक और अर्थ समझा जाता...

सब बन्धनों से मुक्त पुरुष ही ईश्वर
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 21 Dec 2015 08:51 PM
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‘ईश्वर’ शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, पर शब्द का साधारण अर्थ है नियंता। जो इस विश्व का नियंत्रण करते हैं, वे हैं ईश्वर। दार्शनिक भाषा में ‘ईश्वर’ शब्द का एक और अर्थ समझा जाता है। सब बन्धनों से मुक्त पुरुष को दार्शनिक भाषा में ईश्वर कहा जाता है। छोटा-मोटा दार्शनिक मतभेद चाहे जो भी हो, पर साधक की दृष्टि से ईश्वर सगुण ब्रह्म या भगवान को छोड़ कर कुछ भी नहीं हैं। ‘प्रणिधान’ शब्द का अर्थ है अच्छी तरह समझना या किसी को अपने आश्रय के रूप में अपनाना। इस तरह ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ हुआ ईश्वर भाव में अपने को स्थित करना यानी ईश्वर को जीवन के एकमात्र आदर्श के रूप में ग्रहण करना। इसीलिए ईश्वर-प्रणिधान पूरा भावाश्रयी है, पूर्णतया एक मानसिक चेष्टा है। इसमें गला फाड़-फाड़ कर, चिल्ला कर लोगों की भीड़ जमा करने का या झाल, मृदंग बजा कर भक्ति दिखाने का अवकाश ही नहीं है । तुम्हारे ईश्वर बधिर नहीं हैं। तुम अपने मन की भाषा उन्हें चिल्ला कर मत सुनाओ । ईश्वरीय भाव लेने के लिए पहले मन को सांसारिक प्रपंच से हटा लेना होगा। तब अपने क्षुद्र अहं भाव, ‘मैं’पन, स्वार्थ भावना से मन को हटाना होगा। उसके बाद बिंदुभूत मन के सामने उस विराट का भाव लेकर अपने संस्कार के अनुरूप मन में उसका भाव लेना होगा।

वे हैं सहज सत्ता, इसीलिए केवल भाव में ही उन्हें पाया जा सकता है, और कहीं नहीं। जप के तीन प्रकार हैं- वाचनिक यानी ऊंचे स्वर से पुकार कर उनकी दृष्टि अपनी ओर खींचने की चेष्टा करना एकदम बेकार है। श्रद्धा-प्रेम, निष्ठा-भक्ति भीतर की चीजें हैं। यह खुशामदी लोगों की बंधी-बंधाई भाषा में व्यक्त करने की चीज नहीं। इसलिए वाचनिक जप अर्थहीन है। हां, आंतरिक भाव का आनन्द जब मुख खोल कर व्यक्त करने की इच्छा जग जाती है, वहां ब्रह्म सम्बंधी तथ्य सरल भाषा में श्लोकों या गान के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। जहां अस्फुट स्वर से ओठों में ही मंत्र, उच्चरित होते हैं, वह उपांशु जप कहा जाता है। यद्यपि यह जप वाचनिक जप से अच्छा है, परंतु आदर्श जप कहलाने योग्य नहीं। ईश्वर-प्रणिधान में मानसिक जप ही श्रेष्ठ है। जिसका भाव मन लेता है, उस भाव का उच्चारण भी मन ही करेगा। मन ही उस भाव की बात सुनेगा। यह मानसिक जप उपयुक्त पात्र के पास उपयुक्त प्रकार से सीख कर नियमित रूप से सही प्रकार अभ्यास करना चाहिए।

कुछ ही दिनों में मन एक विशेष धारा प्रवाह में अग्रसर होता प्रतीत होगा। जिसने साधना का ठीक-ठीक क्रम जान लिया है या पा लिया है, उसमें इस प्रकार के लक्षणों का प्रकट होना एकदम स्वाभाविक है। इसमें किसी प्रकार का क्लेश नहीं, बल्कि आनन्द है। इस कारण जो साधक नहीं हैं, उन्हें उनसे व्यर्थ भयभीत होना ठीक नहीं है। साधक जब ईश्वर भावना में दीर्घ समय के लिए प्रतिष्ठित होने में सक्षम होता है, तब ये भाव केवल मानसिक देह में क्रियाशील होते हैं और स्थूल देह बहुत हद तक कुछ शांत हो जाती है।  ईश्वर-प्रणिधान अकेले तथा मिलित, दोनों प्रकार से किया जा सकता है। मिलित ईश्वर-प्रणिधान में सबकी सामूहिक मानसिक प्रचेष्टा एक साथ काम करना आरम्भ कर देती है। इसलिए उन्नत भाव के लक्षण भी अत्यन्त अल्प काल में ही जग उठते हैं। अर्थात दूसरी साधनाओं की तरह ईश्वर-प्रणिधान भी अकेले, अलग-अलग तो करो ही, इसके अतिरक्त जब कभी कुछ लोग सुविधानुसार मिल सकें तो मिलित ईश्वर-प्रणिधान कर लेने का सुअवसर हाथ से मत जाने दो। मिलित ईश्वर-प्रणिधान के फलस्वरूप जो मन:शक्ति जग उठती है, वह पृथ्वी की छोटी-बड़ी किसी भी समस्या के समाधान में तुम्हारी मदद करेगी।
प्रस्तुति: दिव्यचेतनानन्द अवधूत

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