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सचेतक शब्द

वरिष्ठ कवि चन्द्रकान्त देवताले का नवीनतम कविता संग्रह है- खुद पर निगरानी का वक्त। संग्रह का शीर्षक ही संकेत देता है कि हम जिस दौर में पहुंच चुके हैं, वह किस हद तक खतरनाक हो चला है। भूमंडलीकरण और...

सचेतक शब्द
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 25 Jul 2015 07:47 PM
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वरिष्ठ कवि चन्द्रकान्त देवताले का नवीनतम कविता संग्रह है- खुद पर निगरानी का वक्त। संग्रह का शीर्षक ही संकेत देता है कि हम जिस दौर में पहुंच चुके हैं, वह किस हद तक खतरनाक हो चला है। भूमंडलीकरण और सर्वग्रासी बाजार के वर्तमान दौर में प्राय: रचनाकार इन खतरों से सचेत रहने की वकालत करते हैं। 'अंतिम सांस तक डोंडी पीटने' को अपनी जिम्मेदारी मानने वाले देवताले यदि एक ओर अपने पास-पड़ोस और देश-दुनिया के खतरों से आगाह करते हैं तो दूसरी ओर खुद की निगरानी करने की जरूरत पर भी जोर देते हैं। हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, वहां 'विनाश के शिलान्यास का महापर्व' मनाया जा रहा है। ताकत के तंत्र 'उम्मीद की मरीचिका' रच रहे हैं। जाहिर है, कवि सचेतक बन कर हमें इन खतरों से आगाह करता है।
खुद पर निगरानी का वक्त, चन्द्रकान्त देवताले, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- 150 रुपये


आत्मकथा

ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन' को हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि माना गया है। दलित जीवन की यातना और अपमानों को जिस प्रामाणिकता के साथ उन्होंने जूठन में व्यक्त किया था, उसने हमारी सामाजिक व्यवस्था के दोहरेपन की पोल खोल कर रख दी थी। वाल्मीकि जी ने जूठन के बारे में लिखा था कि इसे लिखना तमाम कष्टों, यातनाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीने के समान था। इसके बावजूद वाल्मीकि जी ने जूठन का दूसरा खंड भी लिखा। स्पष्टत: उनके लिए साहित्य सामाजिक परिवर्तन का एक माध्यम था, अन्यथा वे ऐसा नहीं करते। जूठन का यह दूसरा खंड वाल्मीकि जी के देहरादून की आर्डिनेंस फैक्टरी में नियुक्ति के प्रसंग से शुरू होता है, जहां उन्हें अपने पहचान से जुड़ी हुई समस्याओं से जूझना पड़ता है। प्रसंगवश इसमें आधुनिकता की आड़ में रुढि़यों को लादे फिर रहे सफेदपोश वर्ग का चेहरा बेपर्द हो जाता है। उम्मीद की जा सकती है कि वाल्मीकि जी की आत्मकथा के दूसरे खंड को भी वही स्वीकृति मिलेगी, जो पहले खंड को मिली थी।   
जूठन (दूसरा खंड), ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन,  नई दिल्ली, मूल्य- 300 रुपये



सियासी जीवन

साल 1974 के ऐतिहासिक छात्र आंदोलन से छात्र-युवाओं की जो जमात राजनीति में सक्रिय हुई थी, उसमें सुशील कुमार मोदी भी शामिल थे। आज भारतीय राजनीति के परिदृश्य में वह एक सुपरिचित नाम है। प्रस्तुत पुस्तक उनके आलेखों, संस्मरणों व जेल डायरी का संकलन है। यह मुख्य रूप से उनके सार्वजनिक जीवन की झांकी पेश करती है, हालांकि प्रसंगवश उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी कुछ जानकारियां देती है। इसमें आपातकाल व सामाजिक न्याय के दौर का खासा जिक्र है। अपने अनुभवों से उन्होंने आपतकाल को लोकतंत्र के संकट के रूप में लिपिबद्ध किया है तो सामाजिक न्याय के दौर की, खासकर बिहार की राजनीति के विरोधाभासों और कमियों पर कलम चलाई है।
बीच समर में, सुशील कुमार मोदी, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- 400 रुपये   

सम्यक विचार

समकालीन दौर को परिभाषित हुए हम इसे 'सूचना संचार-क्रांति का युग', 'तकनीकि क्रांति का युग' आदि कहते हैं। इसके विपरीत जब हम इस युग की जटिलताओं और समस्याओं पर नजर डालते हैं, तब कई लोग इसे 'विचारहीनता का युग' भी बतलाते हैं। जो हो, इतना तो तय है कि किसी भी युग में मनुष्य को ऐसे विचारों की जरूरत पड़ती ही है, जो उसकी मानवीयता को सुरक्षित रखने में सहायक सिद्ध हों। वस्तुत: इसी से मानवीय सृष्टि का भविष्य तय होता है। शुभू पटवा की यह पुस्तक मानवीय संस्कृति के प्रश्न को सामने रख कर नैतिक मूल्यों, वैयक्तिक स्वतंत्रता व सम्मान और सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए आवश्यक मानवीय मूल्यों पर विचार करती है। पटवा मानते हैं कि पूर्वधारणाओं से मुक्त होकर ही हम खुद को सही मायने में सांस्कृतिक बना सकते हैं।   
समय समाज और संस्कृति, शुभू पटवा, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर दिल्ली, मूल्य- 270 रुपये  

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