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बातचीत से ही बुझेगी नेपाल की आग

नेपाल को लंबे समय के बाद एक संविधान तो मिला, लेकिन इसका स्वागत वैसा नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। करीब आधी आबादी संविधान के कई प्रस्तावों को लेकर गुस्से में है। लोगों की नाराजगी के तमाम पहलुओं पर...

बातचीत से ही बुझेगी नेपाल की आग
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 23 Sep 2015 09:07 PM
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नेपाल को लंबे समय के बाद एक संविधान तो मिला, लेकिन इसका स्वागत वैसा नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। करीब आधी आबादी संविधान के कई प्रस्तावों को लेकर गुस्से में है। लोगों की नाराजगी के तमाम पहलुओं पर हिन्दुस्तान, पटना के राजनीतिक संपादक विनोद बंधु का आकलन

नेपाल की जनता के सात दशक लंबे संघर्ष का नतीजा है, निर्वाचित प्रतिनिधियों की संविधान सभा द्वारा पारित वहां का नया संविधान। सात साल पहले पहली संविधान सभा अस्तित्व में आई थी और उसके साथ वहां राजशाही का औपचारिक अंत हो गया था। पहली संविधान सभा नेपाल को नया संविधान नहीं दे पाई। दूसरी संविधान सभा के पास अभी करीब दो वर्ष से ज्यादा का समय शेष था।

इस बीच वहां की तीन बड़ी पार्टियों ने आपस में एजेंडा तय कर संविधान पारित कराने का संकल्प लिया और ऐसा कर दिखाया। नेपाल में 67 साल बाद नया संविधान 20 सितंबर से लागू हो गया है। यह मौका था जश्न मनाने का, गुलाल उड़ाने का, भविष्य संवारने की नीतियों पर मंथन करने का, पड़ोसी देश से मंत्रणा कर नेपाल की तरक्की की बुनियाद रखने का, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके विपरीत नेपाल के बड़े हिस्से में हिंसा, प्रदर्शन, धरना, आत्मदाह और भारत की तरफ पलायन से नए संविधान को 'सलामी' मिली। ऐसा क्यों?

नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोईराला ने गत मंगलवार को तराई मधेसी लोकतांत्रिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंथ ठाकुर से उनके आवास पर मिल कर बातचीत की जो पहल की, वैसी पहल पहले क्यों नहीं की गई? यह प्रयास कारगर नहीं रहा, क्योंकि मधेसी पार्टियां 2008 के समझौते को लागू करने के बाद ही किसी तरह की बातचीत के अपने फैसले पर अड़ी हुई हैं? नेपाल की आबादी तो महज तीन करोड़ है। ऐसे में जब वहां लाखों लोग एक महीने से सड़क पर थे तो उन लोगों से संवाद कर उनका भरोसा जीतने की पहल न करना, क्या नेपाल के शासन पर काबिज लोगों की बड़ी चूक नहीं है? और अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो क्या नेपाल की सरकार शासन कर पाएगी?

नेपाल में किसी भी तरह की अस्थिरता हो, भारत के सीमावर्ती राज्यों समेत पूरे देश को उसकी आंच सहनी ही पड़ती है। नेपाल में जब माओवादी हिंसा चरम पर थी तो भारत के सीमावर्ती राज्यों के नेपाल सीमा पर बसे इलाकों की भी नींद हराम रही। बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल का नेपाल से न केवल बेटी- रोटी का रिश्ता है, बल्कि भौगौलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रिश्ता भी है। बीते एक दशक में दो मौके ऐसे आए, जब भारत ने नेपाल में शांति बहाल करने में अहम भूमिका अदा की। 2006 में माओवादियों से समझौता हो या 2008 में मधेसी आंदोलनकारियों से बात, ये सब भारत के हस्तक्षेप से संभव हुआ।

इन दिनों भारत से रसद और ईंधन लेकर जाने वाले ट्रकों को वहां के हालात के कारण मुश्किलें पेश आ रही हैं। ऐसे में नेपाल के वर्तमान हालात पर भारत की ओर से चिंता जताने को नेपाल के राजनेता भारत का हस्तक्षेप कैसे करार दे सकते हैं? भारत ने बार- बार यही सुझाव दिया है कि बातचीत से समस्या का हल निकाला जाए और सौहार्द के माहौल में संविधान आए। 

नेपाल की आग सिर्फ मधेसियों तक सीमित नहीं है। आदिवासी थारू और दलित समाज भी ठगा महसूस कर रहा है। गुस्सा इस बात से है कि संख्या बल के आधार पर तीन बड़ी पार्टियों ने ऐसा संविधान रचा, जिससे सत्ता पर उनका कब्जा बना रहेगा। सद्भावना पार्टी संसदीय दल के नेता और संविधान सभा की नियमन कमेटी के अध्यक्ष लक्ष्मण लाल कर्ण की मानें तो तीनों पार्टियों के नेताओं ने पहले तय कर लिया था कि वे किसी की नहीं सुनेंगे और संख्या बल पर मनोनुकूल संविधान पारित करा लेंगे।

संविधान के मसौदे को पढ़ने के लिए सदस्यों को सात दिन का समय दिया जाना था, लेकिन बिना समय दिए बहस शुरू करा दी गई। सदन में विरोध हुआ तो मार्शल तैनात कर बहस जारी रखी गई। जनता की राय जानने के लिए एक महीने का समय निर्धारित था। इसके बदले एक दिन का समय दिया गया।

नए संविधान को मधेसी और जनजातीय समुदाय मानने को तैयार नहीं है। कहने को संविधान में देश को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है, लेकिन राज्यों को कोई अधिकार नहीं दिए गए हैं। जो सात प्रदेश बनाए गए हैं, उनके सीमांकन से इन दोनों समुदायों में बेहद नाराजगी है। मधेस में दो राज्य बनाने की बात थी, लेकिन भारत की सीमा से एक कड़ी में लगे आठ जिलों का एक प्रदेश बनाया गया है।

मधेस के बाकी जिलों को छह भागों में बांट कर पहाड़ी राज्यों में शामिल कर दिया गया। इससे वहां मधेसी आबादी अल्पसंख्यक बनी रहेगी। जनजातीय बहुल थरुहट को अलग प्रदेश नहीं बनाया गया। सद्भावना पार्टी के राष्ट्रीय मंत्री देवेन्द्र यादव कहते हैं कि राज्यों में ना पब्लिक सर्विस कमीशन बनाने का प्रावधान है और ना राज्यों की न्यायपालिका को बहाली का अधिकार होगा। ऐसे सभी अधिकार सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के पास रहेंगे।

बहरहाल, नेपाल में भारतीय मूल के लोगों को हाशिये पर रखने के प्रबंध तो कर लिए गए हैं, लेकिन जो हालात बने हैं, उससे नहीं लगता कि मधेस और थरुहट की आग को नेपाल का शासन सेना और पुलिस के बलबूते दबा पाएगा। नेपाल में शांति बहाल करने के लिए जरूरी है कि वहां की सरकार मधेसी और जनजातीय समुदाय की भावना की कद्र करे। भारत भी लंबे समय तक हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रह सकता।

लंबी लड़ाई चली
राजशाही को हटाने के लिए करीब 67 साल से भिन्न-भिन्न आंदोलन चले।
1950 में जब लोग सड़कों पर उतर आए थे, तब राजा त्रिभुवन ने घोषणा की थी कि एक निर्वाचित प्रतिनिधि निकाय नया संविधान बनाएगा, लेकिन यह कभी अमल में नहीं आ सका।
1990 में बहुदलीय लोकतंत्र लागू हुआ, लेकिन राजशाही बनी रही।
1996 में राजशाही खत्म करने के उद्देश्य से माओवादी गुरिल्ला आंदोलन शुरू हुआ। 2005 में सात अन्य राजनीतिक पार्टियां आंदोलन में शामिल हुईं।
2008 में राजशाही के खात्मे की घोषणा की गई। इसके बाद से लगातार नया संविधान बनाने के लिए कोशिशें चल रही थीं।


ऐसा है नया संविधान
इसमें 37 अध्याय हैं। पिछले डेढ़ साल से बन रहा था संविधान। राजशाही पूरी तरह खत्म। हिंदू राष्ट्र नहीं रहा। धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित। इसे संविधान 2072 इसलिए कहा गया, क्योंकि नेपाल में विक्रम संवत् के अनुसार वर्ष की गणना होती है और उसके अनुसार अभी वर्ष 2072 चल रहा है।

दो सदनों वाली संसद होगी, निम्न सदन में 375 सदस्यों का प्रस्ताव किया गया है, जबकि उच्च सदन में 60 सदस्य होंगे।

सात प्रांतों का गठन किया जाएगा। इनके नाम फिलहाल तय नहीं, मगर क्षेत्र का बंटवारा किया गया। बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली। प्रेस की आजादी, मानवाधिकार की बात।

न्यायपालिका स्वतंत्र होगी। सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और निचली अदालतें होंगी।

मूल अधिकार होंगे। इन्हें तोड़ने पर सजा का प्रावधान। नागरिकों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की बात। समलैंगिकों, किन्नरों के अधिकारों की बात की है।


कौन हैं मधेसी
नेपाल के मैदानी क्षेत्र को तराई इलाका कहा जाता है। यूं तो तराई का क्षेत्रफल नेपाल का महज 17 फीसदी है, लेकिन यहां नेपाल की तकरीबन आधी आबादी रहती है। तराई के इलाके को मधेस भी कहा जाता है और यहां रहने वाले मधेसी पुकारे जाते हैं। तराई में 22 जिले हैं। इसी इलाके में सबसे अधिक संसाधन और आबादी है। यह भारतीय सीमा से सटा इलाका है। इसके अधिकतर इलाकों में कर्फ्यू लगा है।
मधेसियों का दर्द
ज्यादातर भारतीय मूल के लोग हैं। उनका आरोप है कि संविधान में सात प्रदेश बांटने की बात कही गई है, उसमें उनकी आबादी को तितर-बितर किया जा रहा है। समुदाय में कई शादियां भारत से हुई हैं, इसलिए नागरिकता को लेकर समस्या होगी।

नाराजगी की वजह
नेपाल की सरकार में मधेसियों की संख्या कम है।
दो सत्ताधारी दल (नेपाली कांग्रेस और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी), विपक्षी दल (एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और मधेसी जनाधिकार फोरम ने मिल कर तय किया कि संघीय नेपाल में छह प्रांत होंगे। बाद में इनकी संख्या बढ़ा कर सात कर दी गई।
मधेसी चाहते हैं कि तराई के सभी जिलों को मिला कर एक या दो प्रदेश बनाए जाएं।

भारत का रुख
भारत सरकार ने नेपाल में संविधान लागू होने का स्वागत किया है और विद्रोह प्रदर्शनों पर चिंता जताई है। प्रधानमंत्री मोदी पिछले साल जब नेपाल गए थे तो उन्होंने कहा था कि जब भी नेपाल का संविधान बनाया जाए तो उसमें सभी के हितों का पूरा ख्याल रखा जाए। अगस्त में प्रधानमंत्री कोइराला से मधेसी समुदाय के हितों का ध्यान रखने की बात कही।


महिलाओं का रोष
सिंगल मदर के लिए अपने बच्चों को नेपाली नागरिकता दिलाना काफी कठिन होगा।
नेपाली महिला विदेशी से विवाह करती है तो बच्चे तब तक नेपाली नागरिक नहीं होंगे, जब तक पिता नेपाली नागरिकता ना ले। अगर पिता नेपाली है और मां विदेशी तो बच्चे नेपाली नागरिक होंगे।

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