हमारे लोकतंत्र में महिलाएं
नजीमा बीबी का नाम सुना है आपने? न सुना हो, तो मैं बता देता हूं। वह देश के एक गुमनाम हिस्से में नया इतिहास रचने की कोशिश कर रही हैं। कट्टरपंथियों ने उन्हें धमकाया है कि इसके परिणाम बुरे होंगे, इतने...
नजीमा बीबी का नाम सुना है आपने? न सुना हो, तो मैं बता देता हूं। वह देश के एक गुमनाम हिस्से में नया इतिहास रचने की कोशिश कर रही हैं। कट्टरपंथियों ने उन्हें धमकाया है कि इसके परिणाम बुरे होंगे, इतने बुरे कि उन्हें मरने के बाद दफन के लिए कब्र भी नसीब नहीं होगी।
नजीमा बीबी की दिक्कतें तब शुरू हुईं, जब उन्होंने मणिपुर में विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेने का मन बनाया। अगर वह किसी तथाकथित स्थापित पार्टी का दामन थामतीं, तो शायद इतनी परेशानी न होती। उन्होंने अपनी ही तरह के विद्रोही तेवर की नेता ईरोम शर्मिला की नवगठित ‘पीपुल्स रिसर्जेन्स ऐंड जस्टिस एलायंस’ को चुना। ईरोम भारतीय समाज की विकृतियों का चलता-फिरता शिकार हैं। आप जानते हैं कि किस तरह उन्होंने 16 साल तक मणिपुर से अफ्स्पा यानी आम्र्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) ऐक्ट हटाने के लिए अनशन किया। जिस उम्र में नवयुवतियां सपने देखती हैं, प्रेम करती हैं, विवाह रचाती हैं, परिवार बढ़ाती हैं, वह उन्होंने व्यवस्था से लड़ने में गुजार दी। जब तक वह अनशन पर रहीं, तब तक परिवार और वे लोग, जिन्हें ‘अपना’ समझकर वह लड़ाई लड़ रही थीं, उनके गुण गा रहे थे। इससे उनकी इज्जत अफजाई होती। लोग कहते कि ईरोम अमुक परिवार अथवा अमुक बस्ती की रहने वाली हैं। वे ‘वीआईपी सिन्ड्रोम’ के शिकार हो चले थे।
हालात तब बदले, जब उन्हें एक परदेसी नौजवान से लगाव हो गया और उन्होंने अपनी लड़ाई को नए आयाम देने की ठानी।
इसी क्रम में उन्होंने अनशन तोड़ सियासत में आने की घोषणा कर दी। यही वह मुकाम है, जब परिवार और ‘अपने लोग’ उनके खिलाफ खड़े हो गए। मोहभंग के इस दारुण दौर में उन्हें समझ में आ गया होगा कि जिन लोगों के लिए उन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, वे उन्हें सिर्फ ‘बलिदान की देवी’ बनाना चाहते थे। उनके साथ खड़े होने की नीयत किसी की नहीं है। ईरोम और नजीमा का संघर्ष इसीलिए अनूठा है कि वे अपनी बनाई लीक पर चल पड़ी हैं। ऐसे लोगों पर भला कौन धन्ना सेठ अपना पैसा न्योछावर करना चाहेगा? धन के अभाव में वे साइकिलों पर अपना प्रचार करती हैं। क्या उनकी आवाज सुनी जाएगी?
वे जीतें या हारें, पर तय है कि उन्होंने शुचिता भरे संघर्ष की जो मिसाल कायम की है, वह लंबे समय तक नौजवानों को प्रभावित करती रहेगी।
अगर भरोसा न हो, तो 1857 में मंगल पांडे का बलिदान याद कर लीजिए। बलिया के इस विद्रोही ने जब पूरी धरती को जूतों तले रौंद देने की शक्ति रखने वाले अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की थी, तब इसे ‘गदर’ माना गया था, जबकि यह एक ऐसी क्रांति की शुरुआत थी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को पराभव के रास्ते पर ला खड़ा किया। उस महासमर को आकार लेने में 90 साल लगे, ईरोम और नजीमा की लड़ाई भी एक या दो साल में रंग लाने वाली नहीं।
बदलाव की लड़ाइयां लंबी खिंचती हैं।
अगर 2017 के इन विधानसभा चुनावों को गंभीरता से देखें, तो पाएंगे कि भारतीय राजनीति कुछ नामों, निर्णयों और घटनाओं पर इठलाती जरूर है, पर आधी आबादी के प्रति उसका नजरिया अच्छा नहीं है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं का मत-प्रतिशत ज्यादा होने के बावजूद चुनाव में उनकी भागीदारी और जीत की संभावनाएं शर्मनाक तौर पर कम हैं। वेबसाइट इंडिया स्पेंड के मुताबिक, 2012 में महिला प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी जरूर, पर सामान्य सीटों पर उनमें से 85 फीसदी की जमानत जब्त हो गई। आरक्षित सीटों पर यह आंकड़ा अपेक्षाकृत कम निराशाजनक था, फिर भी इसे बदतर कहा जाएगा, क्योंकि 79.8 प्रतिशत औरतें जमानत नहीं बचा सकीं। इस चुनाव में आरक्षित सीटों पर 7.1 फीसदी महिलाएं जीतीं, जबकि सामान्य सीट पर उनकी तादाद लगभग आधी, यानी 4.7 प्रतिशत थी।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में महिलाओं की यह बदतर हालत तब है, जब 2001 से 2012 के बीच उनकी सेहत और शिक्षा के अनुपात में उत्साहजनक बढ़ोतरी हुई है। 2001 में उत्तर प्रदेश की महिला साक्षरता दर 42.2 फीसदी थी, जो 2011 तक 57.3 प्रतिशत हो गई। इसी तरह, लिंगानुपात में भी प्रति एक हजार पर 898 के मुकाबले 912 का सुधार हुआ। इस अवधि में प्रसव के दौरान होने वाली मौतों में भी खासी कमी आई। पहले 2001-02 में एक लाख पर 517 महिलाएं अकाल काल के गाल में समा जाती थीं, जिनकी तादाद 2012-13 में घटकर 258 रह गई।
उम्मीद है, 2017 तक इसमें और सुधार हुआ होगा, पर क्या यह महिलाओं की राजनीति में हिस्सेदारी बढ़ाने में मददगार है?
आप उम्मीदवारों की सूची उठाकर देख लीजिए। ‘जिताऊ’ महिला उम्मीदवारों में अधिकांश किसी न किसी राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखती हैं। इन्हें इसलिए चुनाव लड़ाया जा रहा है, ताकि परिवार के हिस्से में एक और सीट आ सके। मैंने राजनीतिक रिपोर्टिंग के इन साढ़े तीन दशकों में हरदम महसूस किया है कि तमाम निर्वाचन क्षेत्रों से ऐसी महिलाओं के परचे भरवा दिए जाते हैं, जो जमानत तक नहीं बचा सकतीं। सिर्फ प्रतिपक्षियों के वोट काटने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल किया जाता है। राजनीतिक घरानों की महिलाएं अगर ‘जिताऊ’ होती हैं, तो साधारण परिवारों की इन औरतों को क्या कहेंगे?
उत्तर प्रदेश के तमाम गांवों में, जहां महिला प्रधान हैं, वहां कई लोग ऐसे मिल जाएंगे, जो अपना परिचय ‘प्रधान पति’ के तौर पर देते हैं। ये वे लोग हैं, जो आरक्षण की वजह से खुद नहीं लड़ सके, तो अपनी पत्नी को जितवा दिया। वे अब भी अपनी औरतों को घर की चारदीवारी में कैद किए हुए हैं। लोकतंत्र के साथ इससे बड़ा धोखा और क्या हो सकता है?
उम्मीद है, यह सिलसिला बहुत दिन नहीं चलेगा, पर इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि इसी प्रदेश ने दशकों पूर्व खुद को महिला उत्थानवाद के प्रतीक के तौर पर पेश किया था।
देश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी थीं। उन्होंने 1963 से 67 तक उत्तर प्रदेश पर राज्य किया। वह आचार्य जे बी कृपलानी की पत्नी थीं। कृपलानी तब तक कांग्रेस विरोधी हो चुके थे, जबकि सुचेता जी इसी पार्टी की मुख्यमंत्री। परिवार में आंतरिक लोकतंत्र का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है? इसी प्रदेश ने देश को अब तक की अकेली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दी। यहीं से सोनिया गांधी चुनकर आती हैं, जो कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद की प्रमुख दावेदार मायावती के नाम भी कई रिकॉर्ड हैं। वह न केवल पहली महिला दलित मुख्यमंत्री बनीं, बल्कि चार बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर उन्होंने एक और रिकॉर्ड स्थापित किया।
विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास में महिलाओं को सबसे पहले समान मताधिकार देने वाला हमारा गणतंत्र अपने गौरवशाली अतीत पर कब तक इठलाता रहेगा? हमें नए कीर्तिमान रचने की आदत डालनी ही होगी।
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