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अपनी-अपनी अग्नि परीक्षा

हिंदी पट्टी की मशहूर कहावत है- ‘जब पिता के जूते में बेटे के पांव समाने लगें, तो उसे अपने पैर वापस खींच लेने चाहिए।’ क्या समाजवादी पार्टी के बुजुर्ग नेता इसको बिसरा बैठे हैं?  एक...

अपनी-अपनी अग्नि परीक्षा
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 16 Jan 2017 12:41 PM
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हिंदी पट्टी की मशहूर कहावत है- ‘जब पिता के जूते में बेटे के पांव समाने लगें, तो उसे अपने पैर वापस खींच लेने चाहिए।’ क्या समाजवादी पार्टी के बुजुर्ग नेता इसको बिसरा बैठे हैं? 

एक जाने-माने सियासी परिवार के लोग जिस तरह आपस में लड़ रहे हैं, उससे सवाल उठते हैं कि  क्या उन्हें अपनी आकांक्षाएं पार्टी की हार-जीत से ज्यादा प्रिय हैं? क्या उन्हें लाखों पार्टी कार्यकर्ताओं और करोड़ों मतदाताओं की भावनाओं की परवाह नहीं है, जिन्होंने उन्हें इस मुकाम पर पहुंचाया?

आप याद करें। अखिलेश यादव के सत्ता-रोहण के समय ही रामगोपाल और शिवपाल दो अलग ध्रुवों में बंटे नजर आ रहे थे। रामगोपाल अखिलेश के सगे चाचा नहीं हैं, पर उन्होंने टीवी पर यह बयान देकर ‘सियासी पोजिशनिंग’ ले ली थी कि मैं बहुत खुश होऊंगा, अगर अखिलेश मुख्यमंत्री बनते हैं। वह जानते थे कि अखिलेश के सगे चाचा शिवपाल को यह मंजूर नहीं होगा। ऐसा ही हुआ। शिवपाल ने उसी शाम कहा कि मुख्यमंत्री कौन होगा, इसका फैसला संसदीय बोर्ड करेगा। उत्तर प्रदेश की सियासत को समझने वाले उसी समय ताड़ गए थे कि समाजवादी कुनबा अब लंबे समय तक एक नहीं रहेगा। 

असली अग्नि परीक्षा तो मुलायम सिंह की थी। 
वह अब तक पार्टी के निर्विवाद ‘सुप्रीमो’ थे। उनकी चाहत ही कानून हुआ करती थी। दूसरी पीढ़ी राजनीति में आ गई थी, पर इसे ‘छत्रछाया’ का कमाल माना जाता था। इसीलिए अपने सत्ता-काल का शुरुआती आधा वक्त तो अखिलेश को खासी जद्दोजहद से गुजारना पड़ा। सरकारी मशीनरी में पिता और चाचाओं के वफादारों की फौज थी, जिनकी नियुक्तियां उन्हीं के इशारे पर होती थीं। मुझे एक किस्सा याद आ रहा है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी एक बार मुख्यमंत्री का मजाक उड़ा रहे थे। शेखीपूर्ण लहजे में उनका कहना था कि हम तो सारा काम मुख्यमंत्री के पापा से पूछकर करते हैं। नौजवान सत्तानायक की सबसे बड़ी दिक्कत यही थी कि पांच साल के निर्वासन के बाद महत्वपूर्ण पदों पर लौटे अफसर उनकी सुनने को तैयार नहीं थे। जिस मंत्रिमंडल के वह अगुवा थे, उसका भी यही हाल था। यही हाल उन विधायकों का था, जो आपराधिक छवि के थे। वे गाहे-बगाहे कानून-व्यवस्था के लिए दिक्कतें पैदा करते रहते, जिससे सरकार की छवि धूमिल होती। संगठन में भी ऐसी ही स्थिति थी। जमीन से जुड़े अधिकांश लोग शिवपाल यादव के समर्थक थे। सबके निहित स्वार्थ थे। 

ऐसे में, तरक्की की बात कौन करता?
मुख्यमंत्री की दिक्कतों का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता था। कई मौकों पर मुख्यमंत्री को पिता से सार्वजनिक तौर पर झाड़ सुननी पड़ती। इस बदलते वक्त में, जब भारतीय पारिवारिक परंपराएं नया आकार ले रही हैं, तब सार्वजनिक डांट के जवाब में मुस्कराकर रह जाने वाले अखिलेश परंपरावादी यूपी-वालों के ख्वाबों में बसे आदर्शवादी बेटे के खांचे में फिट नजर आते थे। पत्रकार उन्हें छेड़ते कि आपके पिता ने आपको डांटा, तो वह मनोहारी उत्तर देते कि हम समाजवादियों की यही तो खासियत है कि हमारे मन में जो होता है, हम उसे व्यक्त करने में संकोच नहीं करते। उन्हें आदर्श पुत्र मानने वाले लोग इस पर तालियां बजा उठते। यही हाल उनकी पत्नी डिंपल यादव का है। अपने सलीके भरे व्यवहार के कारण उत्तर प्रदेश के खास-ओ-आम के बीच में उन्होंने एक सुशील और समझदार बहू की ‘इमेज’ बना ली है। यह इमेज आने वाले चुनावों में अखिलेश के काम आ सकती है। अगर प्रियंका गांधी और डिंपल के एक साथ चुनाव प्रचार में उतरने की खबर सच साबित होती है, तो नौजवानों और महिलाओं पर यह जुगलबंदी असरकारी साबित हो सकती है। 

युवा मुख्यमंत्री पहले दिन से पार्टी के झंझटों से खुद को दूर रखकर ‘विकास पुरुष’ की उस सूरत को गढ़ने में जुटे थे, जिसे कभी नारायण दत्त तिवारी ने ईजाद किया था। यही वजह है कि आज उत्तर प्रदेश अकेला ऐसा राज्य है, जहां तीन जिलों में मेट्रो चलती है। रिकॉर्ड समय में उन्होंने आगरा लखनऊ एक्सप्रेस-वे बनाकर दिखा दिया। अखिलेश यह भी समझते थे कि सिर्फ सड़कें और मेट्रो अथवा 20 घंटे से ज्यादा की बिजली आपूर्ति काम नहीं आने वाली। उन्होंने नौजवानों में कंप्यूटर बांटे, महिलाओं के सशक्तीकरण पर काम किया और ‘मिड-डे-मील’ के दौरान बर्तन के अभाव में हथेली पर रखकर खाना खाने को मजबूर गरीब परिवारों के बच्चों को थालियां बांटीं। कानून-व्यवस्था के आरोप से निपटने के लिए उन्होंने अत्याधुनिक कंट्रोल रूम, गश्ती गाड़ियां और कंप्यूटरीकृत महिला हेल्पलाइन की शुरुआत की। 

उन्होंने बड़ी समझदारी से जाति और धर्म की राजनीति से एक कदम आगे जा नया ‘वोट बैंक’ बनाने की कोशिश की। इसीलिए जब वह बगावती सुर बोलते हैं, तो लोग उन्हें अवज्ञाकारी पुत्र मानने की बजाय सहानुभूति में उठ खड़े होते हैं। यही वजह है कि पार्टी के अधिकांश मंत्रियों, विधायकों को हम उनके झंडे तले खड़ा पाते हैं। अखिलेश यादव ने बड़ी समझदारी से अपने पारिवारिक चक्रव्यूह को तोड़ने में सफलता अर्जित की है, पर क्या इतने भर से वह 2017 की अग्नि-परीक्षा से पार हो सकेंगे? 

उनके सामने प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली भाजपा है। नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनकर आए हैं और उन्होंने उत्तर प्रदेश को शुरू से प्राथमिकता पर रखा है। एक ‘पॉलिटिकल ब्रांड’ के तौर पर वह आज भी बेहद सशक्त हैं। उधर, अमित शाह और ओम माथुर की टीम ने पिछले दो सालों के दौरान अति पिछड़ों में भगवा पार्टी के लिए नया वोट बैंक तैयार किया है। प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य इसकी मिसाल हैं। फिर चिर-प्रतिद्वंद्वी मायावती तो हैं ही। मायावती बोलती कम हैं, पर वह चौबीसों घंटे सिर्फ अगले चुनाव की तैयारी करती हैं। वह उत्तर प्रदेश की अकेली ऐसी नेता हैं, जिनके वोट बैंक ने आज तक निष्ठा नहीं बदली है और सामाजिक समीकरणों को साधने की कला में वह पारंगत हैं।

यह ठीक है कि अखिलेश सपा वोटर की पहली पसंद हैं, पर पिता अगर उनके खिलाफ प्रचार करेंगे, तो क्या सपा का परंपरागत मुस्लिम-यादव गठजोड़ ढीला नहीं पडे़गा? क्रिकेट की तरह राजनीति में भी मैदान पर कमाए गए वोट के मुकाबले गंवाया हुआ मत ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होता है। उल्लेखनीय है कि विग्रह सिर्फ मतों का नहीं, बल्कि पार्टी झंडे, दफ्तर, संपत्ति और समर्थकों की भावनाओं का भी होगा। ऊपर से कांग्रेस ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पत्ते नहीं खोले हैं। कांग्रेस और कुछ अन्य इलाकाई दलों का समर्थन अखिलेश के नुकसान की भरपाई के साथ मुस्लिमों को जोड़े रखने में मदद कर सकता है।

कांग्रेस इस वक्त सत्ता की लड़ाई से बाहर है। बिहार की तर्ज पर गठबंधन के जरिये अगर वह अपने विधायकों की तादाद बढ़ाकर सरकार में भागीदारी कर सके, तो उसे देश के सबसे बड़े सूबे में खुद को फिर से खड़ा करने में मदद मिलेगी। यह नया गठबंधन असमंजस के शिकार मुस्लिम मतदाताओं को भी आश्वस्त कर सकता है। वे उत्तर प्रदेश में अखिलेश और दिल्ली दरबार के लिए राहुल गांधी के तौर पर भाजपा का विकल्प तलाश सकते हैं। जब अंकगणित इतना साफ है, तो दोनों पार्टियां एक कदम आगे, दो कदम पीछे की नीति पर क्यों चल रही हैं?
क्या उन्हें नहीं मालूम कि राजनीति में देर से लिए गए सही फैसले भी गलत साबित हो जाते हैं? 

@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

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