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इंसाफ की तराजू पर हमारा गणतंत्र

मीडिया की सुर्खियों पर नजर डाल देखिए। आप पाएंगे कि चर्चा का 70 फीसदी हिस्सा उत्तर प्रदेश और 25 प्रतिशत पंजाब को समर्पित है। उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर मुख्यधारा की राजनीति और मीडिया से लगभग नदारद...

इंसाफ की तराजू पर हमारा गणतंत्र
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 06 Feb 2017 07:59 AM
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मीडिया की सुर्खियों पर नजर डाल देखिए। आप पाएंगे कि चर्चा का 70 फीसदी हिस्सा उत्तर प्रदेश और 25 प्रतिशत पंजाब को समर्पित है। उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर मुख्यधारा की राजनीति और मीडिया से लगभग नदारद हैं। 

कौन कहता है कि छोटे राज्यों के साथ इस देश में चौतरफा अन्याय नहीं होता? 

अपने महबूब सूबे उत्तराखंड से बात शुरू करता हूं। दो दिनों तक मैं कुमाऊं और उसकी तराई में घूमा। बस स्टैंड पर आम आदमियों का सामान ढोने वाले भारवाहक से लेकर आला वकीलों, व्यवसायियों और शिक्षाविदों तक का मानना है कि अलग राज्य बने हुए डेढ़ दशक से ज्यादा बीत गए, पर हमारी अपेक्षाएं अभी तक अधर में लटकी हुई हैं।

ऐसा लगता है, जैसे समूचा सूबा विरोधाभास में जी रहा है। उद्यमी और रोजगार के उत्सुक चाहते हैं कि यहां पर्यटन को बढ़ावा मिले। वे गलत नहीं हैं। हर तरह के पर्यटन के लिए यहां पर कुदरत ने संसाधन मुहैया करा रखे हैं, पर सबके सब अधकचरी प्रगति को जी रहे हैं। बाहर से पर्यटक आते हैं, तो वे खराब संसाधनों का रोना रोते हुए वापस जाते हैं। ऊपर से रहने, खाने और आवागमन के लिए उन्हें बड़ी रकम चुकानी पड़ती है। टूरिज्म व्यवसाय से जुड़े एक सज्जन का कहना है कि उत्तराखंड में तीन तारा होटल बैंकॉक जैसे शहरों के कई पंचतारा होटलों से ज्यादा पैसे वसूलते हैं।

संसाधनों के मामले में यह राज्य किस तरह का है, इसका पता तो उत्तराखंड की सीमा में प्रवेश करते ही चल जाता है। दिल्ली से नजदीक होने के बावजूद सड़कों की दुर्दशा जाम और दुर्घटनाओं को न्योता देती रहती है। तमाम सरकारें आई-गईं, पर अब भी दिल्ली से देहरादून अथवा नैनीताल के लिए ‘फोर लेन’ सड़क सपना है। सवाल उठता है कि पर्यटक इन परेशानियों के बावजूद यहां आते क्यों हैं? पहली वजह तो यह है कि गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ अथवा जागेश्वर जैसे तीर्थ कहीं और नहीं हैं। धार्मिक पर्यटन-स्थलों के मामले में कोई अन्य पर्वतीय राज्य उत्तराखंड का मुकाबला नहीं कर सकता।

दूसरी वजह है, उत्तराखंड के भले लोग। यहां के लोगों में अब भी शराफत कायम है।

कुमाऊं की पहाड़ियों और तराई में घूमते हुए मैंने पाया कि पर्यटन का नाम आते ही तमाम लोग पर्यावरण के कड़े कानूनों और उनसे जुड़ी गैर सरकारी संस्थाओं को कोसने लगते हैं। मैंने कई जगह पूछा कि अगर पर्यावरण ही खत्म हो जाएगा, तो भला यहां कौन आएगा? इसका जवाब भूगर्भ विज्ञान के एक प्रोफेसर ने दिया। उनका कहना था कि हिमालय संसार का सबसे नौजवान पहाड़ है। माफिया और रसूखदार लोग इसका दोहन कर रहे हैं, तो कुछ लोग कड़े कानूनों की आड़ में दूसरों का रास्ता रोक रहे हैं। इस विरोधाभासी स्थिति से बचने का एक ही तरीका है कि सूबे की सरकार इसके लिए उचित प्रावधान करे, पर वैसा हो नहीं रहा है। मसलन, हरिद्वार और देहरादून के बीच में बरसों पहले तमाम पेड़ इस वायदे के साथ काटे गए थे कि इससे कहीं ज्यादा रोपे जाएंगे। खाली जगह का इस्तेमाल हरिद्वार और देहरादून के बीच चार लेन की सड़क बनाने के लिए होना था। पेड़ कट गए, और सड़क अभी तक अधूरी पड़ी है। 

यह सच है कि जिस आम आदमी के हक-हुकूक के नाम पर उत्तराखंड की स्थापना हुई, वही अब हर तरफ से वंचित है। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। वहां सड़कें नहीं हैं, बिजली नहीं है, पानी नहीं है और रोजगार तो दूर-दूर तक नहीं है। पहाड़ की बड़ी आबादी ‘मनीऑर्डर इकोनॉमी’ पर जीती है। स्थानीय रोजगार के अभाव में यहां के नौजवान सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों में जाने के लिए उतावले बैठे रहते हैं, पर हरेक का नसीब इतना अच्छा नहीं होता कि उसे वर्दी पहनने का मौका मिले। मजबूरी में उन्हें पड़ोसी राज्यों या महानगरों में मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। वे जो रकम घर भेजते हैं, उसी से उनके परिवार पलते हैं। 

‘मनीऑर्डर इकोनॉमी’ से पेट तो पल सकता है, पर यह पलायन को बढ़ाती है। यहां के निर्जन गांव 21वीं शती को मुंह चिढ़ाते हैं। इससे तो वह गुजरा दौर भला था, जो वीरानों में गांव बसाकर बहार लाया करता था।

अक्सर कहा जाता है कि क्षेत्रीय दलों ने तमाम राज्यों में पिंडारियों की भूमिका अदा की। स्वच्छ प्रशासन सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियां दे सकती हैं। उत्तराखंड इस कुतर्क का माकूल जवाब है। यहां बारी-बारी से भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने हुकूमत की, पर मुख्यमंत्रियों के चेहरे इस तरह बदले गए, जैसे पार्टियों के आलाकमान ताश के पत्ते फेंट रहे हों। पिछली भाजपा सरकार ने भुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया। कार्यकाल के बीच में उन्हें हटाकर रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ बैठा दिए गए, पर चुनाव के पहले फिर खंडूरी सत्ता सदन में आ विराजे। इस अप्रिय फेरबदल की वजह से कांग्रेस सत्ता में आ गई, पर उसने भी यही किया। पहले विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बनाए गए और फिर उन्हें हटाकर हरीश रावत को स्थापित कर दिया गया। कोढ़ में खाज यह कि इन चुनावों में वरिष्ठतम नेताओं ने जिस तरह अपनी राजनीतिक वफाएं बदलीं, उससे साबित हो गया कि नेताओं को सिर्फ अपनी सीट पसंद है, अपना प्रदेश नहीं। 

इस कहते हैं- यथा राजा, तथा प्रजा।

अब आते हैं, मणिपुर पर। उत्तराखंड की तरह वहां भी प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना बिखरा पड़ा है, पर वहां के हालात उससे कहीं ज्यादा बदतर हैं। वजह- अलगाववादी हिंसक आंदोलन। बरसों पहले वहां के दुर्गमतम इलाकों की पड़ताल करते वक्त मुझे तमाम अचरज झेलने पड़े थे। वहां के लोग हमें ‘इंडियन’ कहते और हमारे सुरक्षा बल उन पर भरोसा नहीं करते। मणिपुर की हुकूमतें कबीलाई ग्रंथियों और दिल्ली की दुरभिसंधियों के हवाले रही हैं। कश्मीर की तरह इस सीमाई सूबे के लोग राज्य और अलगाववादियों के बीच पिसते रहे हैं। भय, भूख और आतंक के इस माहौल ने युवाओं को नशे के हवाले कर रखा है। उन्हें बंदूकों से ज्यादा भरोसे की जरूरत है। यह हो कैसे? अलगाव वहां संगठित व्यवसाय है। इसमें सरकारी एजेंसियां, सूबे के रसूखदार और तमाम राजनेता शामिल हैं।

समय के साथ वहां गोलियों की तड़तड़ाहट कम हुई है, पर बदहाली जस की तस कायम है। 

मैं गोवा के बारे में विस्तार से बात नहीं करूंगा। वहां इन दोनों राज्यों के मुकाबले कम समस्याएं हैं, पर इसका श्रेय सरकारों को नहीं, गोवा के इतिहास और संस्कृति को दिया जाना चाहिए। 

पंजाब पर जोशीली तकरीरें झाड़ने वाले नेताओं ने कई बार कहा है कि यह संवेदनशील सीमा वाला सूबा है। वे इन तीनों राज्यों को क्यों भूल जाते हैं? ये भी तो खतरनाक सीमांत पर बसे हैं। मतलब साफ है, छोटे प्रदेशों के पास पर्याप्त सांसद नहीं होते, इसलिए दिल्ली को उनकी परवाह नहीं है। सत्तानायकों की यह लापरवाही कश्मीर से मणिपुर तक हमारे जवानों को रक्त-स्नान पर विवश करती रही है।

कहने की जरूरत नहीं कि ये प्रदेश भारत गणराज्य का अटूट हिस्सा हैं। हमारी संस्कृति को गढ़ने में उनकी बेहद खास भूमिका है। सीमावर्ती होने के कारण वहां के लोग हमारे स्वाभाविक रक्षक भी हैं। उनकी उपेक्षा खतरनाक साबित हो सकती है। 

@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

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