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बड़े कदम की राह में दुश्वारियां

सबसे पहले एक घोषणा। मैं यह लेख किसी अर्थशास्त्री की हैसियत से नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानी आम आदमी के नुमाइंदे के तौर पर लिख रहा हूं, जो इस वक्त बेचैनी का शिकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 1000-500...

बड़े कदम की राह में दुश्वारियां
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 25 Nov 2016 04:04 PM
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सबसे पहले एक घोषणा। मैं यह लेख किसी अर्थशास्त्री की हैसियत से नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानी आम आदमी के नुमाइंदे के तौर पर लिख रहा हूं, जो इस वक्त बेचैनी का शिकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 1000-500 के नोट बंद करने के फैसले से लोगों की जिंदगी में उथल-पुथल मच गई है। बाजार की वह व्यवस्था, जिसे एक ढर्रे पर चलने की आदत हो गई थी, उसे नई राह पकड़ने पर बाध्य होना पड़ा है।

देश के हर हिस्से से शिकायतें आ रही हैं। कोई बीमार है, तो उसका इलाज नहीं हो पा रहा, दैनिक यात्रियों की दिक्कतें आसमान छू रही हैं। किसी को बच्चे के लिए दूध की जरूरत है, तो कोई सब्जी खरीदने में परेशानी महसूस कर रहा है। दिहाड़ी मजदूर और रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले आशंकाओं के शिकार हैं। बैंकों के बाहर लंबी लाइनें लगी हैं और एटीएम लोगों को संतुष्ट नहीं कर पा रहे। तमाम गृहिणियों ने पाई-पाई बचाकर कुछ रुपये जोड़ रखे थे। उनके सामने संकट आ खड़ा हुआ है। बैंक से अदला-बदली कराने के लिए यदि उन्होंने परिवारजनों को भरोसे में लिया, तो कलह का सामना करना पड़ सकता है। अकेले रहने वाले अशक्त और बुजुर्ग खुद को पहले से अधिक असहाय पा रहे हैं।

यह हलचल स्वाभाविक है, पर तसल्ली की बात है कि कहीं असंतोष का उग्र प्रदर्शन नहीं दिख रहा। क्या यह मान लें कि हिन्दुस्तान में जन्मे और पनपे लोग सहनशील हैं? वे हर स्थिति के लिए खुद को तैयार रखते हैं, चाहे विदेशी आक्रमण हो अथवा किसी तरह का आपातकाल? ऐसा मान लेना उनका अपमान होगा। यह 21वीं शताब्दी का वह भारत है, जिसने गरीब-गुलाम मुल्क की जलालत से संसार में तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का गौरवपूर्ण दर्जा लगभग सात दशक के मामूली अंतराल में पूरा किया है।
हिन्दुस्तानी अपना भला-बुरा बखूबी समझते हैं और अपनी आशा का दीप कभी बुझने नहीं देते।

यहां नरेंद्र मोदी की भी दाद देनी होगी। अपने निर्वाचित शासनकाल का 45 फीसदी से ज्यादा हिस्सा बिता देने के बावजूद उन्होंने वोटर का विश्वास डिगने नहीं दिया है। आप याद कर सकते हैं। 2014 के पूर्वार्द्ध में उन्होंने दो उक्तियां कही थीं, जो आज तक सिनेमाई संवादों की तरह लोगों की जुबान पर हैं। पहली 56 इंच के सीने की बात और दूसरी यह कि वह विदेशों में जमा सारा धन वापस ला हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपये जमा कर देंगे।

विरोधी इस पर उनका मजाक उड़ाते रहे हैं, मगर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर उन्होंने जता दिया कि वह चुप बैठने वालों में नहीं हैं। जरूरत पड़ने पर दुश्मन के घर में घुसकर मारने का माद्दा उनकी सरकार में है। उस स्ट्राइक की गुनगुनाहट अभी तक फिजां में है, इसीलिए जब लोगों को आठ नवंबर की शाम साढ़े सात बजे के बाद पता चलना शुरू हुआ कि प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करेंगे, तो आशंकाएं जगीं कि भारत-पाक का तनाव सीमा लांघ गया है।

मुद्दा सीमा पर जंग का नहीं, बल्कि काले धन से युद्ध का निकला। अपने विरोधियों और समर्थकों, दोनों को एक साथ चौंका देना मोदी की सियासी अदा है।
कोई सोच नहीं सकता था कि वह इस हद तक चले जाएंगे। इसीलिए विपक्ष अभी तक सकते में है। सर्जिकल स्ट्राइक पर बयानबाजी से हुई छीछालेदर से सहमे विरोधी अभी तक जवाब देने लायक मुद्दे तलाश रहे हैं। अरविंद केजरीवाल भले ही उनकी नीयत पर शक कर रहे हों, लेकिन मुलायम सिंह यादव, मायावती, पी चिदंबरम जैसे नेता भी इस फैसले की खुलकर आलोचना नहीं कर सके हैं। वे या तो इसके लिए अपनाए गए तरीके की आलोचना कर रहे हैं, या लोगों को हो रही परेशानियों की बात कह रहे हैं, लेकिन इस कदम पर सीधे उंगली नहीं उठा रहे हैं। मोदी ने उनके लिए कोई रास्ता न छोड़ा। सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद, ड्रग्स की तस्करी, राजनेताओं, नौकरशाहों और धन्ना सेठों को उन्होंने अपने भाषण में बखूबी लपेटा, ताकि सियासी विरोधियों को बात बढ़ाने का मौका न मिले।

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम कुछ बड़ा करने से पहले बड़ी तैयारी करते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक से पहले उन्होंने पाकिस्तान से अपनी दोस्ती की पींगें बढ़ाने के साथ समूची दुनिया को यह जताने में सफलता हासिल कर ली थी कि हम नेकनीयत हैं और हमारा पड़ोसी बदनीयत। और तो और सऊदी अरब, जिसे समूची धरती पर धार्मिक कट्टरता का खैरख्वाह माना जाता था, उस तक ने भारत की हिमायत की। यही वजह है कि जब भारतीय फौज पाक अधिकृत कश्मीर में दाखिल हुई, तो विश्व बिरादरी ने विरोध नहीं किया। पाक के लिए यह दूसरा बड़ा झटका था।

इसी तरह उन्होंने ‘काला धन’ के मुद्दे की आंच कभी ठंडी नहीं होने दी। पहले इसके लिए ‘डिस्क्लोजर स्कीम’ आई। उसी दौरान मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने काला धन-धारियों को चेतावनी दी कि वे अपनी अघोषित संपत्ति घोषित करें, नहीं तो कानून अपना काम करेगा। यह सोची-बूझी रणनीति थी। वे लोहे को गरम करने के साथ आम आदमी को अपना हमराह बनाते चल रहे थे। इसीलिए जब उन्होंने यह कदम उठाया, तो उतनी अफरा-तफरी नहीं मची, जितनी आशंका फौरी तौर पर उभरी थी।

मनमोहन सिंह ने जो किया, वह लोगों को बता-जता नहीं सके। इसके विपरीत मौजूदा प्रधानमंत्री जानते हैं कि उनके काम की अनुगूंज जनता तक पहुंचनी जरूरी है। एक ‘मनोनीत’ और ‘निर्वाचित’ प्रधानमंत्री के इस फर्क को समझना होगा।
यह ठीक है कि बड़े नोट बंद कर उन्होंने काले धन के कारोबार की कमर तोड़ दी है, पर यह भी सच है कि छोटे कारोबारी और आम आदमी दिक्कत में फंस गए हैं। नगदी की अर्थव्यवस्था इस देश की शताब्दियों पुरानी हकीकत है। उसकी चरमराहट की चपेट में वे लोग भी आ गए हैं, जिन्हें काला धन सपने तक में नहीं दिखाई देता। वे ‘नगद’ को ‘नारायण’ मानते रहे हैं, क्योंकि उनके जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं इसी से पूरी होती हैं। जाहिर है, इसके लिए बैंकों को दिन-रात मेहनत करनी होगी।

बताने की जरूरत नहीं कि तमाम प्राइवेट बैंक आ जाने के बावजूद अभी तक असली भारत पर राष्ट्रीयकृत बैंकों का कब्जा है। उनकी काहिली जगजाहिर है। निम्न और मध्य आयवर्ग के लोगों को अगर चौबीसों घंटे एटीएम से पैसा मिलता रहा, बैंक उनकी करेंसी बदलते रहे और खुदरा व्यापार पर आंच नहीं आई, तो इस वर्ग में उनकी लोकप्रियता पहले के मुकाबले बढ़ सकती है। यही लोग ‘असली भारत’ के प्रतिनिधि हैं और ‘वोटर’ भी। क्या भारतीय जनता पार्टी को इसका लाभ उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में मिलने जा रहा है? ऐसा तभी होगा, जब छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में रहने वालों को अचानक आ खड़ी हुई इस आफत से निजात मिल सके।
तय है। मोदी का असली काम अब शुरू हुआ है। इतिहास उन्हें उत्सुकता भरी नजरों से देख रहा है। उसे राजनेताओं की सफलता और असफलता, दोनों को समूची निर्ममता के साथ दर्ज करने की बुरी आदत है।
मोदी जी यकीनन इस तथ्य से वाकिफ होंगे।
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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