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क्योंकि आज मई दिवस है

मैंने नोएडा स्थित अपने दफ्तर की खिड़की पर जड़े मोटे शीशे से बाहर झांका। जानना चाहता था कि गरमी अधिक है या अंदर की ‘एयरकंडीशनिंग’ काम नहीं कर रही? बाहर आग बरस रही थी। सूरज अपने शिखर पर था,...

क्योंकि आज मई दिवस है
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 30 Apr 2016 09:31 PM
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मैंने नोएडा स्थित अपने दफ्तर की खिड़की पर जड़े मोटे शीशे से बाहर झांका। जानना चाहता था कि गरमी अधिक है या अंदर की ‘एयरकंडीशनिंग’ काम नहीं कर रही? बाहर आग बरस रही थी। सूरज अपने शिखर पर था, उसका ताप धरती तो क्या, उसके ऊपर रचे-बसे जड़-चेतन तक को झुलसाए दे रहा था। अचानक सड़क पार स्थित एक फैक्टरी की चिमनी पर नजर पड़ी। चौंधियाने वाली धूप में रह-रहकर यह क्या चमक उठता है? आंखें गड़ाकर देखा, तो पाया कि दो मजदूर चिमनी की वेल्डिंग कर रहे थे। दृश्य झकझोर देने वाला था। भयंकर गरमी में वह चिमनी और उससे जुड़ी लोहे की सीढ़ियां कितनी गरम हो रही होंगी! उस लू और धूप को पांच मिनट झेलना सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। वे न जाने कब से वहां चढ़े हुए थे? एक ‘रिसर्च’ के मुताबिक, ‘वेल्डिंग मशीन’ से उपजा तापमान पांच हजार डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है।

इससे बचने के लिए चेहरे पर खास किस्म के ‘मास्क’, उच्च तकनीक के चश्मे, ‘हेलमेट’ और वस्त्र जरूरी हैं। उनके पास ऐसा कुछ नहीं था। इतनी ऊंचाई पर वे इंसान कम, पुतले ज्यादा लग रहे थे। गिर न पड़ें, इसके लिए उनके शरीर पर ‘नायलॉन’ की रस्सियां बांध दी गई थीं, जो खुद गरम हो जाती हैं। मैं उन्हें ज्यादा देर देख नहीं सका। आंखों में आंसू भर आए और आवाज भर्रा गई। आदम और हव्वा की संतानें अपनी सांसों की डोर बचाए रखने के लिए जाने क्या-क्या करने को विवश हैं! इन बेचारों को इस जोखिम और यातना भरे काम के लिए कितनी दिहाड़ी मिलती होगी? क्या उनका कोई बीमा है? उनके परिवार की सामाजिक सुरक्षा के इंतजामात क्या हैं? जोखिम भरे कामों के लिए जब ‘कमांडो’ अथवा अन्य पेशेवर लोग घर से निकलते हैं, तो उनके परिजन दुआएं करते हैं कि वे सकुशल लौट आएं। अगर किस्मत रूठ जाए, तो उन्हें जीवन जीने लायक मुआवजा मिलता है। आश्रितों को नौकरी दी जाती है।

अखबारों में फोटो छपते हैं। टेलीविजन पर उनकी तारीफ के पुल बांध दिए जाते हैं। ये बेचारे मजदूर अगर गिर पड़ें या घर जाकर बेहद गरमी की वजह से दम तोड़ बैठें, तो? भगवान उन्हें लंबी और सेहत भरी जिंदगी दें, पर इन हालात में बहुत दिन स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है? ये भी तो भारत मां की संतानें हैं। इन पर किसी की नजर क्यों नहीं?
फिर सवाल सिर्फ इन दोनों का नहीं, ऐसे लाखों हैं। हर रोज गांवों से बड़ी फौज शहरों की ओर उमड़ रही है। खेत बंजर हो रहे हैं, गांव वीरान। पांच हजार साल पुरानी कृषि आधारित भारतीय सभ्यता सपनों का हिस्सा बनती जा रही है।   ऐसे सपने, जो अतीत का मायाजाल तो बुनते हैं, पर वर्तमान की कठोर चुनौतियों का सामना करने की कुव्वत नहीं रखते। क्यों? इन हाशिये पर पड़े लोगों की सुधि कोई क्यों नहीं लेता?

इन सवालों के बीच एक प्रश्न खुद मेरे लिए उभरा। मैं क्या कर सकता हूं? क्या एक-दो खबरें छाप दूं? एक बड़ी श्रृंखला प्रकाशित कर दूं? जवाब जटिल नहीं था। उसका कुछ समय के लिए तो असर पड़ सकता है, पर इन बेबसों का दर्द हमेशा के लिए दूर करने के बारे में सत्ता-सदनों पर काबिज लोगों को सोचना होगा। कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ उन्होंने जो विचारधारा शुरू की, वह इस लक्ष्य को पाने में नाकाम रही, क्योंकि बात मजदूरों की एकता से नहीं बनती। इस मामले में हुक्मरानों को एकजुट होने की आवश्यकता है। पूरी दुनिया में हमेशा से सत्तानशीं सिर्फ अपनी और अपने से जुड़े लोगों की सोचते आए हैं। इसीलिए अगर कुछ लोगों की अमीरी बढ़ी है, तो अधिकांश के लिए गुरबत की खाई और गहरी हुई है।

इसी उधेड़-बुन में नोएडा के जिलाधिकारी एन पी सिंह को फोन मिलाता हूं। वह कहते हैं कि मैं भी आपकी ही तरह व्यथित हूं। हमारे गांवों में खेतिहर मजदूरों से भरी दोपहर काम नहीं कराया जाता था। उन्हें ऊर्जा देने के लिए गुड़ और पानी दिया जाता था। बाद में उन्होंने संबंधित विभागों और अधिकारियों के साथ बैठक की। उसी दिन शाम को आदेश जारी हो गया कि नोएडा में दोपहर एक से चार बजे तक लोगों से मजदूरी न कराई जाए। मालूम नहीं, इसका कितना अनुपालन होगा? अगर हो भी जाए, तो यह बेहद अपर्याप्त है। वैसे ही, जैसे कैंसर की पीड़ा से तड़पते हुए किसी व्यक्ति को छोटी दर्द निवारक गोली देकर छोड़ दिया गया हो।

भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में असंगठित और संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत बेहद दयनीय है। आपको जानकर आश्चर्य होगा, दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे अधिक पलायन पिछले साल 2015 में हुआ। अराजकता, आतंकवाद, आपसी संघर्ष अथवा भुखमरी से परेशान 24 करोड़, 40 लाख से अधिक लोग आज अपनी जन्मभूमि छोड़कर दूसरे मुल्क में रह रहे हैं। इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन की रिपोर्ट यह भी बताती है कि सर्वाधिक पलायन खाड़ी के देशों की तरफ हुआ। संयुक्त अरब अमीरात की कुल आबादी का 88.4 प्रतिशत हिस्सा बाहरी लोगों का है। कतर में 75.7 और कुवैत में 73.6 प्रतिशत लोग परदेसी हैं।

यूरोप के देश इस समय अवैध रूप से घुस आने वालों की परेशानी से आजिज आ चुके हैं। उन पर तरह-तरह से कड़ाई की जा रही है, लेकिन इंसानियत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हजारों साल से मजलूम लोग अपना मादरे-वतन छोड़कर दूसरी जगहों पर जाने के लिए मजबूर होते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दूसरी धरती उनके स्वागत के लिए लालायित बैठी होती है, वे सिर्फ एक जिल्लत से दूसरी जिल्लत की यात्रा करते हैं। भरोसा न हो, तो कस्तूरी मणिरत्नम को याद कर देखिए। यह 55 वर्षीय भारतीय महिला तमिलनाडु के एक अनाम गांव से रोजी-रोटी की तलाश में सऊदी अरब गई थी।

शुरुआती 90 दिनों में उसके ऊपर ऐसे जुल्म ढाए गए कि उसने वहां से भागने की कोशिश की। कस्तूरी बेचारी नहीं जानती थी कि दुर्भाग्य से बचकर नहीं भागा जा सकता। वह पकड़ी गई। नाराज मालकिन ने उसका दायां हाथ काट डाला और निर्मम पिटाई से उसकी रीढ़ की हड्डी में भयंकर चोटें आ गईं। यह मामला मीडिया तक पहुंच गया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इसे बेहद गंभीरता से लिया। कस्तूरी का कटा हाथ तो नहीं लौटेगा, हालांकि वह अपने गांव लौटने में सफल हुई। लेकिन ऐसे हजारों अभागे हैं, जो दूरदराज की अनजान धरती पर मर-खप गए। न वे अपनी दास्तां किसी से कह सके, न उनकी कहानी कोई जान सका।

परदेसी जमीन की छोड़िए। अपने मुल्क में भी घरेलू नौकरों पर अत्याचार आम बात है। 2013 में बसपा सांसद धनंजय सिंह के घर में नौकरानी की लाश पाई गई थी। आरोप है कि उनकी पत्नी ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। मतलब साफ है। जिन्हें बदहाली मारती है, उन्हें हर कोई सताता है। कुछ नेक लोगों के बावजूद दमन का यह सिलसिला सदियों से बेरोकटोक जारी है। एक तरफ संसार में धनी-मानी बढ़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ वंचितों की तादाद भी दिन दूनी, रात चौगुनी हो रही है। आज ‘मई दिवस’ के दिन क्या आप अपने व्यस्त समय में से कुछ पल ऐसे अभागों के लिए नहीं निकालना चाहेंगे? अंधेरे में दबे-छिपे बैठे इन इंसानों को हमारी जरूरत है।
@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

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